Tuesday 17 April 2018

Ghalib - Ishq o mazduuree e isharatgahe Khusro / इश्क़ ओ मज़दूरी ए इशरतगहे खुसरो - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 58.
इश्क ओ मज़दूरी ए इशरतगहे खुसरो क्या खूब,
हमको तसलीम निकोनामी ए फरहाद नहीं !!

Ishq o mazduuree e isharat'gahe Khusro kyaa khoob,
Ham ko tasaleem nikonaamii e farhaad nhin !!
- Ghalib

इशरतगहे - भोग विलास का स्थान, स्वर्ग.
खुसरो - फारस का एक बादशाह जो शीरीं का पिता था.
तस्लीम - स्वीकार
निकोनामी - प्रसिद्धि, नेकनामी.

प्रेम और वह भी खुसरो बादशाह के महल की मज़दूरी के बदले । वाह यह भी क्या खूब मेल है । हमे फरहाद जैसी नेकनामी नहीं चाहिये। प्रेम के अभीष्ट की प्राप्ति के लिये हम मजदूर नहीं बन सकते है।
ग़ालिब के जीवन की कठिनाइयों के लिये उनका आत्मसम्मान भाव भी कम जिम्मेदार नहीं रहा है। उनके इस आत्मसम्मान भाव को उनके समकालीन उनका अहंकार , दंभ या घमंड भी मानते है। यही आत्मसम्मान भाव उनके अनेक शत्रु भी पैदा करता रहा है और उन्हें समाज से काट कर एकाकी भी बनाता रहा है। यह अकेलापन जो कभी कभी उनमें  अवसाद के मानिंद दिखता है  वह उनके अनेक शेरों और गज़लों में बड़ी खूबसूरती से नुमाया है।

इसी शेर में देखें। वे प्रेम तो करना चाहते हैं। प्रेम का अभीष्ट पाना भी चाहते हैं। पर प्रेम में वह फरहाद जैसी दीवानगी नहीं चाहते जो उन्हें मज़दूर बना दे। वह फरहाद जैसी प्रसिद्धि पाने के लिये मज़दूर नहीं बन सकते हैं। ऐसी नेकनामी, प्रसिद्धि फरहाद को ही मुबारक हो। फरहाद, शीरीं फरहाद की अमर प्रेमकथा का नायक है।
यह कहानी इस प्रकार है।
फारस की पृष्ठभूमि में जन्मी इस कहानी का पात्र फरहाद एक शिल्पकार था, जो राजकुमारी शीरीं से बेइंतहा मुहब्बत करता था, लेकिन राजकुमारी इस प्रेम से अनभिज्ञ थी। निराश फरहाद पहाडों में जाकर रहने लगा और बांसुरी पर राजकुमारी की प्रशंसा में धुनें बजाने लगा। जब यह बात शीरीं को मालूम हुई तो वह फरहाद से मिली और उसके प्रेम में गिरफ्त हो गई। शीरीं के पिता और राजा नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी एक आम आदमी से शादी करे। आखिर उन्होंने अपनी बेटी के सामने शर्त रखी कि यदि फरहाद पहाडों के बीच चट्टानों में नहर खोद दे तो वह शीरीं का विवाह उससे कर देंगे। यह बेहद मुश्किल कार्य था, लेकिन फरहाद ने नहर खोदनी शुरू की। उसकी अथक मेहनत देखकर राजा को लगा कि कहीं फरहाद अपना लक्ष्य प्राप्त न कर ले। नहर पूरी होने को थी, घबराए हुए राजा ने अपने दरबारियों से बेटी के विवाह की खातिर मशविरा करना चाहा। उनके वजीर ने सलाह दी कि किसी बूढी स्त्री को फरहाद के पास भेजें और यह संदेश दें कि राजकुमारी की मौत हो चुकी है। तब एक बूढी स्त्री फरहाद के पास पहुंची और जोर-जोर से रोने लगी। फरहाद ने उससे रोने का कारण पूछा तो बुढिया ने कहा, तुम जिसके लिए अपने शरीर को खटा रहे हो-वह तो मर चुकी है। यह सुनकर फरहाद को सदमा पहुंचा और उसने अपने औजारों से खुद को मार लिया, नहर बन चुकी थी, मगर पानी की जगह उसमें फरहाद का लहू बह रहा था। फरहाद की मौत की खबर सुनकर शीरीं ने भी खुद को खत्म कर लिया। इस तरह एक और प्रेम कहानी असमय मौत की गोद में सो गई।

ग़ालिब इस प्रेम कथा के अमर प्रेमी फरहाद की तरह नहीं बनना चाहते हैं। वे कहते हैं कि वे प्रेम पाने के लिये खुसरो बादशाह, जो शीरीं का पिता और राजा था, की मज़दूरी नहीं कर सकते । यहां उनका आत्मसम्मान भाव आड़े आ जाता है।
इसी से मिलता जुलता बर्क़ का यह शेर पढ़ें।

बे इबादत खुदा न बख्शेगा, सुभान अल्लाह,
ऐसे फिरदौस से हम गुज़रे, कि मज़दूर नहीं हैं !!
( बर्क़ )

बिना इबादत , प्रार्थना के खुदा, हमे पाप मुक्त नहीं करेगा।  इस बात को मैं नहीं मानता। यदि वह जन्नत न दे तो न दे। हम कोई मज़दूर नहीं है।

बर्क़ तो एक हाथ और आगे निकल गए है। वह ईश्वर को खुदा को ही चुनौती देते हुये कह रहे हैं, बिना इबादत ही जन्नत दे खुदा तो दे, मैं मज़दूर नहीं हूं कि इबादत के लिये मेहनत करूँ।

कबीर ने भी ऐसा ही कुछ कहा है। जब वे काशी से मगहर निष्काषित हो कर भेजे गए तो उन्होंने भी कहा,
जो कबीरा काशी मरैं, रामहि कौन निहोरा !!

यदि कबीर को काशी में ही मर कर स्वर्ग जाना है तो, राम का कौन सा एहसान है। काशी में तो जो मरता है वह सभी स्वर्ग ही जाता है। मगहर में मरने पर स्वर्ग मिले तो राम का एहसान मानूँ।

© विजय शंकर सिंह

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