Monday 9 April 2018

लाहौर की एक गुमशुदा दास्तान - डॉ सुरैया की कहानी - सलमान आसिफ जुबानी / विजय शंकर सिंह


लाहौर में हमारा घर डेविस रोड पर था। एक बहुत बड़ी कलोनीयल कोठी जिस के पड़ोस में माथुर्स विला था। अब्बा पंजाब एड्वर्ड्ज़ कॉलेज के प्रिन्सिपल थे जबके मिस्टर विद्या सागर माथुर, जिन्हें मैं माथुर अंकल कहती थी, वहाँ के  वाइस प्रिन्सिपल थे।
माथुर अंकल  बड़े हैंडसम थे। लम्बे ऊँचे, घने काले बाल जो हमेशा किसी जेल या क्रीम से अपनी जगह जमे रहते। वे बेडमिनटन  के खिलाड़ी और माहिर स्विमर थे। वे हमेशा स्टाइलिश सूट्स और सोला हैट में नज़र आते। मेरी उम्र उस वक्त १३ साल थी, और शायद मेरा पहला कृश भी माथुर अंकल पर हुआ था। उनका बेटा सिद्धार्थ महासागर माथुर और मैं क्लास फ़ेलोस थे। हम दोनो टेम्पल रोड केथीड्रल स्कूल में पढ़ते थे और ऐक ही टाँगे पर स्कूल जाते थे।
उधर अब्बा सफ़ेद अचकन, सफ़ेद पैजामे में अक्सर पंडित नेहरु के छोटे भाई लगते। हमारी अम्माँ मुग़ल फ़ेमली से थीं। गोरी चिट्टी, होटों पर पान की लाली, भरे हुए जिस्म की थीं, ख़ूब लम्बा कटार कि नोक जैसा आँखों में सुर्मा लगाती थीं। उनका बस एक ही पहनावा था कॉटन का ग़रारा सूट और ख़ूब स्टार्च लगा मलमल का लम्बा सा दुपट्टा। हाँ किसी शादी ब्याह के मौके़ पर वे कामदार ग़रारा सूट और दुपट्टा पहन लेतीं। घर से बाहर बहुत कम निकलती थीं। कोठी के तीन तरफ़ फैले हुए बाग़ में उन्हौंने बहुत सब्जी़याँ, बेलें, मोतिया, चम्पा, जूही, गुलाब के फूलों के झुंड, जामन, आम, अमरूद के पेड़ लगवा रखे थे। अम्माँ के लिए घर से बाहर की दुनिया बस ये बाग़ ही था। अगर कभी घर से क़दम बाहर निकालतीं तो बुर्क़ा पहनतीं।
माथुर अंकल की वाइफ़ कृष्ण माथुर आंटी दुबली पतली, लम्बी ऊँची खातुन थीं। साँवली सलोनी, कमर तक लम्बे सिल्क जैसे बाल जिन्हें वो जूढ़े में गूँध कर रखतीं। उनकी बड़ी, बड़ी आँखें और तीर कमान जैसे आर्चड अबरू, चेहरे के तीखे नक़्श बिलकुल ऐसे लगते थे जैसे अजंता की गुफ़ाओं में बनी अप्सराओं कि तस्वीरें। उन्हें भी हमेशा सूती साढ़ी में देखा। उनके चेहरे पर हमेशा ऐसा सकूँ होता था के हमें तो वे सचमुच किसी मंदिर कि कोई देवी लगती थीं। अम्माँ उन्हें रोज़ मोतिए की ताज़ा कलियाँ भेजती थीं जो वे कभी, कभी अपने जूड़े में लगा लेतीं। एक बार हम ने देखा की उन्होंने ने दो मोतिए के फूल टॉप्स की तरह अपने कानों में भी टाँक लिए। कैसी ग़ज़ब की दिलकशी थी उनके चेहरे की। राह चलते मुसाफ़िर की नज़र पड़े तो रास्ता भूल जाय। 
अम्माँ से आंटी माथुर की दोस्ती बड़ी अजीब थी। वे अम्माँ को मस्ज़ क़ाज़ी कहती थीं और अम्माँ उन्हें कृष्णा भाभी। दोनों में कोई एक बात भी तो कॉमन न थी। आंटी माथुर शेक्सपीएर, कीट्स, शेली, ब्ब्रांटे सिस्टर्ज़ की किताबों की शोकीं और टैगोर  की भक्त, उधर अम्माँ मीर, ग़ालिब, ज़ौक़  और दाग़ की रसिया। अम्माँ के दादा ग़दर में शहीद हुए थे और अम्माँ को अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ों से सख़्त बेज़ारी। हाँ ये एक बात दोनो पड़ोसनों में कॉमन थी के वे दोनों अंग्रेज़ों से आज़ादी की आरज़ू रखती थीं। आंटी माथुर इंडयन नैशनल कांग्रेस विमन विंग लाहौर की बड़ी एक्टिव मेम्बर थीं।
हमारी अम्माँ ख़ूब बातों की शौकीं, बात बात पर घबरा जाने वाली, ज़रा सी फ़िक्र हुई और अम्माँ के मुँह से ‘ऊयी अल्लाह,’ ‘हाय मौला,’ निकला। जबकी माथुर आंटी सर से पाँव तक सबर ही सबर थीं। इस सबके बावजूद दोनों पड़ोसनें घंटों इक्टठी बैठतीं - माथुर आंटी अम्माँ को कीट्स, टैगोर और शेक्सपीएर का कलाम उर्दू में अनुवाद कर के सुनातीं जिस पर अम्माँ वाह, वह करतीं। और अम्माँ आंटी को मीर और ग़ालिब की ग़ज़लें जो उन्हें ज़ुबानी याद थीं सुनातीं। आंटी माथुर किसी दिन अम्माँ से एक दम फ़रमाइश कर देतीं “मस्ज़ क़ाज़ी, ये शेर तो गुनगुना कर सुनाइए,” अम्माँ, जिन का गला बहुत अच्छा था, फ़ौरन ही तरन्नुम में झूम झूम कर, लहक लहक कर ग़ज़ल के शेर तरन्नुम में सुनाने लगतीं।
फिर एक दिन हमारे घर में एक इंक़लाब आया। अम्माँ और आंटी माथुर दोनों फ़िल्म देखने गयीं। जाने ये प्लानिंग कब और कैसे हुई। और वो भी अंग्रेज़ी की पिक्चर। और फिर तो ये सिलसिला चल निकला। टांगा मँगवाया जाता, माथुर आंटी अपनी साढी समेटे धीरे, धीरे अपने ग्रेस्फ़ुल अन्दाज़ में हमारे यहाँ आतीं, और अम्माँ बुर्क़ा पहन कर अपनी पोटली में पान और कवाम संभाले, माथुर आंटी के साथ कभी फ़्लावर एग्ज़िबिशन, कभी विमन’स क्लब की मीटिंग में और कभी वाई एम सी ऐ के किसी फ़ंक्शन में पहुँच जातीं। और अब्बा मियाँ? वे जब अम्माँ की मसरूफ़ियत का हाल सुनते तो हल्के से यूँ मुस्कुरा देते जैसे वे भी इस स्कीम का हिस्सा हों।
अब्बा और अंकल माथुर की दोस्ती, मेरी और सिद्धार्थ की दोस्ती के बर-ऐक्स बड़ी ख़ामोश सी थी। जबकी मेरी और सिद्धार्थ की दोस्ती पल में तोला पल में माशा थी। क्लास में जब दूसरे बच्चे मुझे बुली करते तो सिद्धार्थ उनसे झगड़ बैठता, भाग कर स्कूल की टकशोप से कुछ न कुछ ले आता और ज़बरदस्ती खाने पर मजबूर करता। और साथ ही धमकी भी देता “लुक डोंट बी सच ए प्रिन्सेस टिप्पी टोज’। मगर जब अपनी मर्ज़ी होती तो ख़ूब लड़ता भी। लेकिन कोई और मुझसे लड़ें, ये उसके बर्दाश्त से बाहर था। मुझे याद है जब एक बार ऐन मेरी गुड़िया की शादी के दिन मेरा गुड्डा गुम गया और रो, रो कर मैंने आँखें सूजा लीं तो वो चुपके से आंटी माथुर के साथ माल रोड की डौल्ज़ शाप से ऐक इम्पोर्टेड नीली आँखों और सुनहरे बालों वाला गुद्दा  ले आया। मैं तो ख़ुशी से नाचने लगी और अम्माँ गुड्डे को देख कर बोलीं “ये मुआ तो अंग्रेज़ दिखता है,” - मैंने तुरंत जवाब दिया “क्यूँ नहीं अम्माँ अब मेरी गुड़िया सीधी लंडन ब्रिज जाएगी।” इस बात पर मैंने आंटी माथुर को पहली बार खिलखिला के हँसते देखा। उनके दाँत मोतियों जैसे थे। रियल पेर्लज।
और फिर लाहौर में फ़साद शुरू हो गया। हर तरफ़ दंगे। इंसां, इंसां के ख़ून का प्यासा था। हर तरफ़ आग और ख़ून की होली खेली जा रही थी। हमारे स्कूल बंद हो गए थे। एक दिन अम्माँ और अब्बा चुप चाप माथुर विला पहुंचे, कुछ देर वहाँ बैठे। और फिर उस शाम माथुर्स हमारे घर के मेहमानख़ाने में शिफ़्ट हो गये। बाहर क़यामत थी और मैं ख़ुश कि अब मेरी बारी है सिद्धार्थ को सताने की। मैने उसे एक पल चैन से बैठने न दिया। चलो अब आम की कैरियाँ तोड़ कर नमक मिर्च लगा के खाते हैं, चलो अब कच्चे अमरूद की चाट बनाते हैं। सिद्धार्थ प्लीज़ मुझे साइकल चलाना सिखा दो, प्लीज़ मुझे जामन के पेड़ पर चढ़ना सिखा दो।
माथुर विला लॉक कर दिया गया था, सब सर्वंट्स को फ़ारिग़ कर दिया गया था और उन्हें बताया गया था के माथुर्स  दिल्ली चले गए। मुझे इस झूठ पर बड़ी हँसी आती थी।
मगर फिर एक दिन माथुर्स हक़ीक़त में दिल्ली जाने के लिए तैयार हो गए। हर तरफ़ ख़तरा था। माथुर अंकल ने अब्बा की शेरवानी और पायजामा पहना और अम्माँ ने आंटी के लिए अपना एक बुर्क़ा निकाला। आंटी ने अम्माँ को मुस्कुरा के देखा और अहिस्ता से कहा, “इसकी ज़रूरत नहीं है, हम अपने शहर ही में हैं और थोड़े दिनों में तो वापस आ ही जाना है।”
टाँगे में आगे अंकल और अब्बा सवार हुए। पीछे अम्माँ, माथुर आंटी, सिद्धार्थ और मैं फँसे-फँसाय बैठे थे। एक दूसरे टाँगे में उनका सामान था जिसके साथ ऐक बड़ी सी तोंद वाला पुलीस का संत्रि बेठा रास्ते भर बेफ़िक्री से ऊँघता रहा, वो शयेद अब्बा के कोलिज का संत्रि था जिसे अब्बा ने साथ ले लिया था। अम्माँ ने सिद्धार्थ को भींचा हुआ था और उसके सर पर अपना गाल रखे हुई थीं। मुझे सिद्धार्थ पर बड़ा प्यार आया वो अम्माँ से यूँ चिपका हुआ था जेसे कोई सहमा हुआ छोटा सा गुमशुदा बिल्ला। और कुछ ग़ुस्सा भी आया: अम्माँ ने मुझे तो कभी इस तरह सीने से न लगाया था।
सारे रास्ते दुआ करती रहीं ‘मेरे मौला मेरे मासूम बच्चे की, इसके माँ बाप की हिफ़ाज़त करना, मेरे मोला आपको नबी का वास्ता इन्हें अपनी हिफ़ाज़त में रख ले,” और साथ रोती जाती थीं। माथुर आंटी के शांत चेहरे पर कोई इमोशन न था। वे डेविस रोड से लाहौर के रेल्वे स्टेशन तक के सफ़र के दौरान यूँ दोनो तरफ़ की इमारतों देख रही थीं जैसे उन पर लिखा कुछ पढ़ रही हों। इस बीच एक आध बार उन्होंने अम्माँ को तसल्ली भी दी। अंकल और अब्बा बहुत अहिस्ता, आहिस्ता एक दूसरे से जाने क्या डिस्कस कर रहे थे।
लाहौर की सड़कें जिन पर हर वक़्त मेले का स्माँ रहता था भूत नगर का मंज़र बनी हुई थीं। चारों ओर वीरनी और सोग की फ़िज़ा थी। रेल्वे रोड की दोनो तरफ़ बड़ी बड़ी मेन्श्न्स और होटेल्ज़ की इमारतों से धुएँ के बादल उठ रहे थे। कहीं कोई इक्का दुक्का पुलिस की जीप या कोई एम्बुलेंस बेन करती हुई गुज़र जाती। रेल्वे रोड पर कर्फ्यू था। लेकिन अब्बा ने स्पेशल पर्मिट बनवा रखा था।
लाहौर रेल्वे स्टेशन आ गया। अब्बा और अंकल देर तक गले मिलते रहे। अम्माँ माथुर आंटी से लिपट कर रोने लगीं “भाभी आप सबका खुदा हाफ़िज़,” - मैने पहली बार माथुर आंटी की आँखों में आँसू देखे। मेरा दिमाग़ फट से फिर अजंता की मूर्तों की तरफ़ चला गया “अगर कोई अजंता की मूरत अशकबार हो तो बिलकुल आंटी जैसी लगे,” मैने सोचा। माथुर आंटी ने प्यार से अम्माँ का हिचकियाँ लेता गोल सा भोला भाला चेहरा अपने हाथों में लिया और कहा “भाभी नहीं, बहन”।
जाने मुझे भी क्यों रोना आ रहा था। मैने बेबसी से सिद्धार्थ को देखा तो उसने मुँह चिड़ा दिया। और इशारे से कहा के में तेरी पोनी खेंचूँगा।
अब्बा ने ऊँची सी आवाज़ में अंकल को अलिविदा कहा “अच्छा ‘शेख़’ साहिब आप से अब दिल्ली मुलाक़ात होगी”। मैं हैरान थी अब्बा को क्या हो गया माथुर अंकल को “शेख़ साहिब” क्यों कह रहे हैं। आंटी माथुर ने एक बार लाहौर पर भरपूर निगाह डाली और अम्माँ की तरफ़ देख कर कहा, “दर-ओ-दीवार पर हसरत की नज़र करते हैं —— ख़ुश रहो एहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं।” अम्माँ फूट, फूट कर रो दीं। ये शेर शायद अम्माँ ने आंटी को कभी सुनाया था।
माथुर्स के हिफ़ाज़त से दिल्ली पहुँचने की ख़बर हमें तार से मिली। अम्माँ ने मन्नत मानी हुई थी वो पूरी की। अब्बा को पहली बार मुस्कुराते देखा। फिर कई साल उनकी कोई ख़बर ना आई।
१९६२ में मेरी शादी हुई - मेहंदी वाले दिन अब्बा एक लिफ़ाफ़ा लाये, कहने लगे इसमें मेरे लिए कुछ दिल्ली से आया है। मेरा दिल धक से हो गया। लरजते हाथों से लिफ़ाफ़ा खोला, उसमें माथुर आंटी की मुस्कुराती तस्वीर, बाल चाँदी जैसे आँखों पर चश्मा लेकिन चेहरे पर वही मंदिर की देवियों वाला सुकून। और साथ में माथुर अंकल पहले से भी ज़्यादा यंग और डैशिंग, हमेशा की तरह हैंडसम। इस फ़ोटोग्राफ़ में उनके चेहरे पर ऐसी शोख़ी थी जो मैने कभी न देखी थी  - मैं कुछ चकरा सी गई और ज़हन में फ़िज़ूल सा ख़याल आया, काश अंकल को पता होता “I had a crush on him,” - मगर माथुर अंकल का चश्मा कहाँ गया, वे अब्बा की तरह एजेड क्यों नहीं हुए? जवाब भी जल्द ही मिल गया।
तस्वीर के नीचे लिखा था “प्रिन्सेज़ टिप्पी टोज कोंग्रेजुलेशेंस आन योर वेद्दीन,” पापा वुड हेव बलेसड यू टू इफ़ ही वास अलाइव।”
Post Script:
Dr Suraiya Qazi met Mathurs in the late 80s after 47 when she visited Dilli for a United Nations conference (she worked for the UN). She married a renowned orthopaedist, Dr Zaheer Siddiqui. They enjoyed a long, loving marriage but did not have any children of their own. Her husband used to laughingly say: “भाई हमारी मोहत्रेमा का तो पहला और आख़री इश्क़ माथुर साहिब से था हम तो महज़ इनके ख़िदमतगार हैं।” And pat, would come the instant reply from auntie Suraiya: “शुक्र है के आप को एहसास तो है, वरना आपको ख़ुशफ़हमी ही रहती।”
Dr Suraiya Qazi’s Dilli visit account: “I was received at Krishna Auntie and Siddharth’s sprawling, artistic bungalow. Siddharth was uncle Mathur’s copy. He took me in the house, introduced me to his lovely Spanish wife Mariana and two very clever teen-age children. My mind was buzzing and steps seemed so heavy, I could hardly lift my feet.
There in the lounge sat Auntie Mathur on a wheel chair with the grace of an empress regally snuggled upon a throne. She was frail, but no less graceful. She was struck by a severe paralysis attack a year earlier and had lost her speech. Struggling to hold back my tears was choking me. I had resolved not to cry, and try to be just be like my bravest of all Mathur auntie.
“I wanted this to be a happy reunion. I suddenly displayed my very short haircut to Siddharth. I said: देखो, में ने तो दिल्ली आने से पहले ही अपनी चुटिया कटवा दी। तुम्हारा क्या भरोसा भाई। इस पर सिद्धार्थ ने बढ़ कर मुझे गले लगा लिया। कैसा मज़बूत सहारा था, मेरे अपनों का सहारा। चालीस साल से रुके आँसू अचानक बाँध तोड़ कर बह निकले। मुझे अब्बा याद आ रहे थे, अम्माँ का भोला-भाला चेहरा याद आ रहा था, माथुर अंकल याद आ रहे थे; माथुरस विला और अपना डेविस रोड वाला घर याद आ रहा था। और सब से बढ़ कर आंटी माथुर की हसीन जवानी आँखों के सामने रह, रह कर आ रही थी।
माथुर आंटी ने मुझे इशारे से अपनी वील चेएर की तरफ़ बुलाया। में हिचकियाँ लेती उनके क़दमों में बेठी तो उन्हों ने आहिस्ता से मेरे आँसू पूँछे और ऐक नोट पेपर पर लिखा: “Just like your mother, emotional, witty and loving. But you’ve made me proud as a strong, professional woman, just as I had expected you to be.”
सिद्धार्थ जो अब ऐक मशहूर आर्टिस्ट और सीन्यर गवर्न्मेंट अफ़िशल था, उस ने मुझे अपने हाथ से बनी हुई चार कोंटेम्पर्री रगामला पेंटिंज़ तोहफ़े में दीं। हर तस्वीर में लाहोर की कोई झलक थी। “तुम ने अपने माज़ी (past) को किस ख़ूबसूरती से डॉक्युमेंट किया हस सिद्धार्थ,” में ने उस से कहा।
“लेकिन मेरा कोई माज़ी नहीं है। जो था वो है, जो है वो रहे गा,” सिद्धार्थ ने जवाब दिया।
Dr Suraiaya Qazi passed away in 2006. She was survived by Siddharth Mathur and Dr Zaheer Siddiqui.
This piece has been pieced together from notes taken by Salman Asif in 2004 and has been produced as it was narrated by Dr Suraiya Qazi with some names altered to maintain privacy.
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यह कहानी मैंने दोस्त शाहिद अख्तर की फेसबुक टाइमलाइन से उठायी है। उनका आभार ।
© विजय शंकर सिंह

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