Friday 6 April 2018

परवीन शाकिर की एक नज़्म - सुकूत ए शहर ए सुखन में वो फूल सा लहजा / विजय शंकर सिंह


सुकूत-ए-शहर-ए-सुख़न में वो फ़ूल सा लहज़ा
समा'अतों की फ़ज़ा ख़्वाब-ख़्वाब  कर देगा !!

इसी  तरह  से  अग़र  चाहता  रहाँ  पैहम
सुख़न-वरी में मुझे , इंतिख़ाब कर देगा !!

अना_परस्त  है  इतना कि  बात से  पहले
वो उठ के बन्द मिरी हर किताब कर देगा !!

मैं  सच  कहूँगी  फ़िर भी  हार  जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा  ,और ला_जवाब कर देगा !!
O

सुकूत - नीरवता, चुप्पी, शांति
सुखन - साहित्य रचना
पैहम - निरन्तरता
समाअत - सुनना, ध्यान देना
इंतखाब - चयन
अना परस्त - अहंकारी
***

सैयदा परवीन शाकिर ( नवंबर 1952 – 26 दिसंबर 1994), एक उर्दू कवयित्री, शिक्षक और पाकिस्तान की सरकार की सिविल सेवा में एक अधिकारी थीं। इनकी प्रमुख कृतियाँ खुली आँखों में सपना, ख़ुशबू, सदबर्ग, इन्कार, रहमतों की बारिश, ख़ुद-कलामी, इंकार( 1990 ), माह-ए-तमाम  ( 1994 ) आदि हैं। वे उर्दू शायरी में एक युग का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनकी शायरी का केन्द्रबिंदु स्त्री रहा है। फ़हमीदा रियाज़ के अनुसार ये पाकिस्तान की उन कवयित्रियों में से एक हैं जिनके शेरों में लोकगीत की सादगी और लय भी है और क्लासिकी संगीत की नफ़ासत भी और नज़ाकत भी। उनकी नज़्में और ग़ज़लें भोलेपन और सॉफ़िस्टीकेशन का दिलआवेज़ संगम है। पाकिस्तान की इस मशहूर शायरा के बारे में कहा जाता है, कि जब उन्होंने 1982 में सेंट्रल सुपीरयर सर्विस की लिखित परीक्षा दी तो उस परीक्षा में उन्हीं पर एक सवाल पूछा गया था जिसे देखकर वह आत्मविभोर हूँ गयी थी।

© विजय शंकर सिंह

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