Sunday 22 April 2018

22 अप्रैल - लेनिन के जन्मदिन पर कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म / विजय शंकर सिंह


व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव, जिन्हें लेनिन के नाम से भी जाना जाता है, ( 22 अप्रैल 1870 – 21 जनवरी 1924 ) एक रूसी साम्यवादी क्रान्तिकारी, राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक सिद्धांतकार थे। लेनिन को रूस में बोल्शेविक क्रांति के नेता और ज़ारशाही के सामन्ती राज से मुक्तिदाता के रूप में दुनिया मे व्यापक पहचान मिली। वह 1917 से 1924 तक सोवियत यूनियन के कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख रहे।

1917 की रूसी क्रांति इतिहास की अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। मार्क्स के क्रांतिकारी सिद्धांतो पर आधारित इस महान क्रांति ने विश्व के शोषित और वंचित वर्गों के बीच एक चेतना जागृत कर दी और साम्राज्यवाद के उस दौर में गुलाम मुल्क़ों के लिये यह क्रांति एक प्रकाश स्तम्भ के रूप में स्थापित हुयी। ऐसा नहीं है कि मार्क्स और लेनिन ने केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से ही समाज को प्रभावित किया बल्कि साहित्य, सिनेमा, कला, दर्शन, जीवन शैली आदि सभी क्षेत्रों में अपना प्रत्यक्ष और तार्किक  प्रभाव डाला। भारतीय साहित्य भी इससे प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका। हिंदी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, मराठी आदि सभी साहित्यों में प्रगतिवादी रचनायें लिखी गयी। लेखकों की एक पीढ़ी ही प्रगतिशील या तरक़्क़ीपसन्द विचारों से पोषित और पल्लवित हुई। उर्दू के ख्यातनाम शायर कैफ़ी आज़मी भी एक तरक़्क़ीपसन्द ओर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित शायर थे। यह नज़्म उन्होंने लेनिन की स्मृति में लिखी है।
अब आप यह नज़्म पढ़ें।
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आसमां और भी ऊपर को उठा जाता है,
तुमने सौ साल में इंसां को किया कितना बलंद,
पुश्त पर बाँध दिया था जिन्हें जल्लादों ने,
फेंकते हैं वही हाथ आज सितारों पे कमंद।

देखते हो कि नहीं
जगमगा उट्ठी है मेहनत के पसीने से जबीं,
अब कोई खेत खते-तक़दीर नहीं हो सकता
तुमको हर मुल्क की सरहद पे खड़े देखा है
अब कोई मुल्क हो तसख़ीर नहीं हो सकता।

ख़ैर हो बाज़ुए-क़ातिल की, मगर खैर नहीं
आज मक़तल में बहुत भीड़ नज़र आती है
कर दिया था कभी हल्का-सा इशारा जिस सिम्त
सारी दुनिया उसी जानिब को मुड़ी जाती है।

हादिसा कितना बड़ा है कि सरे-मंज़िले-शौक़
क़ाफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक ख़तरनाक शिगाफ़ उसमे नज़र आता है।

देखते हो कि नहीं
देखते हो, तो कोई सुल्ह की तदबीर करो
हो सकें ज़ख्म रफू जिससे, वो तक़रीर करो
अह्द पेचीदा, मसाईल हैं सिवा पेचीदा
उनको सुलझाओ, सहीफ़ा कोई तहरीर करो।

रूहें आवारा हैं, दे दो उन्हें पैकर अपना
भर दो हर पार-ए-फौलाद में जौहर अपना
रहनुमा फिरते हैं या फिरती हैं बे-सर लाशें
रख दो हर अकड़ी हुई लाश पर तुम सर अपना ।
( कैफ़ी आज़मी )
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कैफ़ी आज़मी (असली नाम, अख्तर हुसैन रिजवी) उर्दू के एक अज़ीम शायर थे। उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए भी कई प्रसिद्ध गीत व ग़ज़लें भी लिखीं, जिनमें देशभक्ति का अमर गीत -"कर चले हम फिदा, जान-ओ-तन साथियों" भी शामिल है। कैफ़ी साहब मार्क्सवादी विचारों से बहुत प्रभावित थे। वे उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद के रहने वाले थे। क़ैफ़ी आज़मी को राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा कई बार अपने खूबसूरत और दिलकश गीतों के लिये फिल्मों का सम्मानित फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला है ।1974 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था।

© विजय शंकर सिंह

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