Saturday 17 March 2018

एक कविता - रूपांतरण / विजय शंकर सिंह

जब कहा उसने झुकने को,
तुम रेंगने लगे,
सरीसृप बन गए ।
ना ना, सरीसृप नहीं ,
सरीसृप का तो मेरुदंड सुदृढ़ होता है,
हाँ त्वचा थोड़ी मोटी, भोथरी ,
और असंवेदनशील होती है ।

पर तुम मिट्टी खाने
मिट्टी की ही विष्ठा उत्सर्जित करने वाले,
शस्य कीट बन गए ।
हाँ , वही केंचुआ,
मृदा खाता है,
मृदा उत्सर्जित करता है ।
अब तुम
उनके लिये भी गैर जरूरी हो गये हो,
और मेरे लिये तो ,
अप्रासंगिक हो ही चुके हो ।

कभी सोचना तुम,
जुगुप्सा उत्पन्न करने वाले ,
इस रूपांतरण पर ।
अतीत के उन पन्नों को छूना तुम,
जब तुमने कितने दारुण अरण्य के बीच,
कितनों को राह दिखायी थी।

मैं अब भी मुन्तज़िर हूं कि,
तुम्हारा मेरुदंड टटोल सकूं,
सहला कर आश्वस्त हो सकूँ ,
मुझे उस सबल और
सुदृढ़ मेरुदंड के दम पर एक जंग लड़नी है,
इस अंधेरे से पार पाना है,
सोचना कभी तुम,
में मुन्तज़िर हूँ और प्रार्थनारत हूँ !!

© विजय शंकर सिंह

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