Thursday 18 January 2018

सआदत हसन मंटो और उनकी एक कहानी - मूत्री / विजय शंकर सिंह

कांग्रस हाऊस और जिन्नाह हाल से थोड़े ही फ़ासले पर एक पेशाब गाह है जिसे बंबई में “मूत्री” कहते हैं। आस पास के महलों की सारी ग़लाज़त इस तअफ़्फ़ुन भरी कोठड़ी के बाहर ढेरियों की सूरत में पड़ी रहती है। इस क़दर बद-बू होती है कि आदमियों को नाक पर रूमाल रख कर बाज़ार से गुज़रना पड़ता है।
इस मूत्री में दफ़ा उसे मजबूरन जाना पड़ा........ पेशाब करने के लिए नाक पर रूमाल रख कर, सांस बंद कर के, वो बद-बूओं के इस मस्कन में दाख़िल हुआ फ़र्श पर ग़लाज़त बुलबुले बन कर फट रही थी........ दीवारों पर आज़ा-ए-तनासुल की मुहीब तस्वीरें बनी थीं........ सामने कोइले के साथ किसी ने ये अल्फ़ाज़ लिखे हुए थे:
“मुस्लमानों की बहन का पाकिस्तान मारा”
इन अल्फ़ाज़ ने बद-बू की शिद्दत और भी ज़्यादा कर दी। वो जल्दी जल्दी बाहर निकल आया।
जिन्नाह हाल और कांग्रस हाऊस दोनों पर गर्वनमैंट का क़बज़ा है। लेकिन थोड़े ही फ़ासले पर जो मूत्री है, इसी तरह आज़ाद है।
अपनी ग़लाज़तें और उफ़ूनतें फैलाने के लिए........ आस पास के महलों का कूड़ा करकट अब कुछ ज़्यादा ही ढेरियों की सूरत में बाहर पड़ा दिखाई देता है।
एक बार फिर उसे मजबूरन इस मूत्री में जाना पड़ा। ज़ाहिर है कि पेशाब करने के लिए। नाक पर रूमाल रख कर और सांस बंद कर के वो बद-बूओं के इस घर में दाख़िल हुआ........फ़र्श पर पतले पाख़ाने की पपड़ियां जम रही थीं। दीवारों पर इंसान के औलाद पैदा करने वाले आज़ा की तादाद में इज़ाफ़ा हो गया था........
“मुस्लमान की बहन का पाकिस्तान मारा” के नीचे किसी ने मोटी पैंसिल से ये घिनौनी अल्फ़ाज़ तहरीर किए हुए थे।
“हिंदुओं की माँ का अखंड हिंदूस्तान मारा”
इस तहरीर ने मूत्री की बद-बू में एक तेज़ाबी कैफ़ियत पैदा कर दी........ वो जल्दी जल्दी बाहर निकल आया।
महात्मा गांधी की ग़ैर मशरूत रिहाई हुई। जिन्नाह को पंजाब में शिकस्त हुई। जिन्नाह हाल और कांग्रस हाऊस दोनों को शिकस्त हुई न रिहाई। उन पर गर्वनमैंट का और उस के थोड़े ही फ़ासले पर जो मूत्री है उस पर बद-बू का क़ब्ज़ा जारी रहा........ आस पास के महलों का कूड़ा करकट अब एक ढेर की सूरत में बाहर पड़ा रहता है।
तीसरी बार फिर उसे इस मूत्री में जाना पड़ा........पेशाब करने के लिए नहीं........ नाक पर रूमाल रख कर और सांस बंद कर के वो ग़लाज़तों की इस कोठड़ी में दाख़िल हुआ........ फ़र्श पर कीड़े चल रहे थे। दीवारों पर इंसान के शर्म-नाक हिस्सों की नक़्क़ाशी करने के लिए अब कोई जगह बाक़ी नहीं रही थी........ “मुस्लमानों की बहन का पाकिस्तान मारा” और “हिंदूओं की माँ का अखंड हिंदूस्तान मारा” के अल्फ़ाज़ मद्धम पड़ गए थे। मगर उन के नीचे सफ़ैद चाक से लिखे हुए ये अल्फ़ाज़ उभर रहे थे।
“दोनों की माँ का हिंदूस्तान मारा”
इन अल्फ़ाज़ ने एक लहज़े के लिए मूत्री की बद-बू ग़ायब कर दी........ वो जब आहिस्ता आहिस्ता बाहर निकला तो उसे यूं लगा कि उसे बद-बूओं के इस घर में एक बे-नाम सी महक आई थी। सिर्फ़ एक लहज़े के लिए।
(सन्न-ए-तस्नीफ़ 1945-ई-)
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सआदत हसन मंटो ( 11 मई 1912 - 18 जनवरी 1955 )

आगर भारत विभाजन का त्रासद और बीभत्स विवेकहीन हिंसक आयाम देखना है तो आप इस कहानीकार की कहानियां पढ़ें । जैसा घट रहा था, जैसा दिख रहा था , जैसा मन्टो के संवेदनशील मन ने महसूस किया वैसा ही पन्नों पर उतार दिया । कभी कभी अश्लील भी लग सकता है । पर साहित्य में अश्लीलता का आरोप कभी कभी यथार्थ से भागने का एक बहाना भी होता हैं। मैंने सबसे पहले उनकी कहानी पढी टोबा टेक सिंह और फिर तो मुझ पर  उनकी हर कहानी पढ़ने की दीवानगी छा गयी । उनकी सभी कहानियों का संग्रह जो दो भागों में मंटों की कहानियां शीर्षक से छपा है पढ़ डाला । कहानियां सिर्फ भारत विभाजन पर ही नहीं है , उन सारी परिस्थितियों पर भी है जो लेखक ने भोगा है । मन्टो का जन्म लुधियाना में आज ही के दिन हुआ था । विभाजन के पहले ही उनका परिवार लाहौर चला गया था या बंटवारे के बाद गया यह तो मैं नहीं बता पाउँगा पर वे बंटवारे  के बाद पाकिस्तान में ही थे और वहीँ उनका निधन हुआ । मंटो 1912 में जन्मे और 18 जनवरी 1955 में 42 साल की उम्र में दिवंगत हो गए । कभी कभी मुझे लगता है प्रतिभा और आयु में भी हल्का फुल्का बैर है । कुछ प्रतिभाएं अकाल ही यहां से रुखसत हो जाती हैं । मंटो को भी मैं उसी श्रेणी में रखता हूँ ।

मुम्बई या तब की बम्बई या अंग्रेजों की बॉमबे मंटो की कर्मभूमि रही है । बम्बई फ़िल्मी 1913 में दादा साहब फाल्के के राजा हरिश्चंद्र फ़िल्म जिसे भारतीय सिनेमा की पहली फ़िल्म माना जाता है के परदे पर आने के बाद देश की फ़िल्म कला का केंद्र बन चुकी थी । हिंदी उर्दू के अनेक नामचीन हस्ताक्षर वहाँ अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के लिए जा रहे थे । हिंदी के महानतम कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द , प्रसिद्ध उपन्यास कार अमृतलाल नागर, उर्दू के कृष्ण चन्दर, ख्वाज़ा अहमद अब्बास ,और मंटो भी उसी परम्परा में मुम्बई पहुंचे । साहित्य का वह प्रगतिवादी काल था । उर्दू में इसे तरक़्क़ीपसंद कहते हैं । ऐसे लेखकों के संगठन भी अस्तित्व में आ गए थे और खूब सक्रिय भी थे । मंटो भी इनसे जुड़े । पर मुझे लगता है किसी खेमे में बंध कर जीने वाले जीव वह नहीं थे । उनका लेखन जस देखा तस छापा की तरह रहा । उनकी प्रारंभिक रचनाएं निश्चित रूप से समाजवादी सोच और विचारों से प्रभावित थी पर बाद की रचनाएं समाज के उस अन्धकार के अंदर घुसती प्रतीत होती हैं, जहाँ हम अमुमन झांकना नहीं चाहते हैं । उन्होंने समाज की विकृतियों को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ देखा और उसे अपनी रचनाओं में उतारा । एक नज़र में कुछ रचनाएं जुगुप्सा जगाएंगी पर हम अक्सर समाज की उन जुगुप्सा जगाने वाली बातों से नज़र भी चुरा लेते हैं । पर यथार्थ तो यथार्थ है । आदर्श कभी कभी एक नकली खोल डाले भी रहता है । मंटो ने उसी खोल को उधेड़ कर कहीं न कहीं अपनी रचनाओं में दिखा दिया है ।

उनकी पहली कहानी तमाशा है । यह कहानी आधारित है जलियावाला बाग़ के निर्मम नरसंहार पर । फिर तो लेखनी रुकी नहीं और निरन्तर कुछ न कुछ लिखती रही । उन्होंने कहानियों के अतिरिक्त नाटक, फिल्मों के लिये पटकथाएं , निबंध, व्यंग्य और पत्र भी लिखे । उनके अपने समकालीनों से हुआ पत्र व्यवहार भी कम रोचक साहित्य नहीं है । उनके संस्मरण भी उपलब्ध है वह तप फ़िल्मी दुनिया की संगदिली के अनेक किस्से समेटे हैं । उनकी प्रमुख कहानियां है , टोबा टेक सिंह , ठंडा गोश्त, बू , खोल दो, काली शलवार, आदि आदि । इन सब को मैंने हिंदी में पढ़ा है । लेकिन उर्दू से हिंदी में अनुवाद की कोई ज़रूरत ही नहीं है । बस उसे देवनागरी लिपि में ही लिख देना है ।

मैं कोई साहित्य का आलोचक नहीं हूँ । एक पाठक हूँ । जिसे अच्छा और जो रुचिकर लगे उसे पढता हूँ । मेरी मित्र सूची में हिंदी के कई प्रतष्ठित पत्रकार, लेखक गण और आलोचक भी है। उनसे अनुरोध है कि यह केवल एक पाठकीय प्रतिक्रिया है । आलोचना के विभिन्न मापदंडो के अनुसार किसी लेखक के साहित्य की पड़ताल यह नहीं है और न ही वैसी मेरी प्रतिभा है । सआदत हसन मंटो को उनकी पुण्यतिथि पर उनका विनम्र स्मरण ।

© विजय शंकर सिंह

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