Saturday 2 December 2017

एक कविता - लम्हे / विजय शंकर सिंह

लम्हे तो टुकड़े टुकड़े होते हैं,
आते और जाते ,
जाते और आते ,
उन्हें जोड़ना पड़ता है,
पुरानी फिल्मों की रील की तरह,
अलग अलग फ्रेम में खिंची
एक एक तस्वीर,को
जोड़ कर जैसे
चल पड़ता था कभी बाइस्कोप ।

गति ही ज़िन्दगी है,
लम्हों को जोड़ने का हुनर
आ जाय कभी तो
ज़िन्दगी एक दिलचस्प फ़िल्म के मानिंद
यूँ गुज़र जाती है कि
अफसोसनाक पल भी,
आ कर गुदगुदा देते है ।
आओ हम,
जोड़ना सीखें लम्हों को,
और जीना सीखें उन्हें !!

© विजय शंकर सिंह
01/12/2017.

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