Thursday 9 November 2017

9 नवम्बर - जन्मदिन - अल्लामा इक़बाल - एक स्मरण / विजय शंकर सिंह

                                                                               

उर्दू साहित्य में सर मुहम्मद इक़बाल का स्थान रवीन्द्रनाथ टैगोर के समान है। उनका जन्म 9 नवम्बर 1877 में सियालकोट में हुआ था। उर्दू साहित्य के शीर्षस्थ साहित्यकारों में हैं। उन्होंने ऊर्दू साहित्य को प्रेम के स्थूल और सूक्ष्म रूपों से निकाल कर एक दार्शनिक अभिव्यक्ति का भी माध्यम बनाया । वे जहां एक ओर चिंतनपरक और सूफ़ियाना शायरी के लिए मशहूर हैं, वहीं उन्होंने प्रकृति-चित्रण, राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति को भी अपनी शायरी का विषय बनाया है। प्रगतिशील शायरी का झंड़ा सबसे पहले उन्हीं ने उठाया जो बाद में जोश, फ़िराक़, फ़ैज़, साहिर आदि अनेक शायरों में उनका अनुसरण किया ।

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा .

( नरगिस - आँख की आकृति से मिलता-जुलता फूल , बेनूरी -.ज्योतिविहीनता , दीदावर - आँख रखने वाला (पारखी)।

इक़बाल का यह बहु उद्धरित शे’र संसार के अन्य महापुरुषों की तरह, जिन्होंने मनुष्य तथा मनुष्य की महानता के गीत गाए, तथा उस पतन की दलदल से निकालकर आत्मविश्वास, आत्मसम्मान तथा कर्म एवं संग्राम के पथ पर लगाने का प्रयत्न किया, स्वयं इक़बाल पर भी ठीक बैठता है।

यों तो शायरी का शौक़ इक़बाल को स्कूल-जीवन ही में उत्पन्न हो चुका था लेकिन वास्तविक रूप में उनकी शायरी की शुरुआत लाहौर आकर हुई। उस समय उनकी आयु बाईस वर्ष की थी जब मित्रों के आग्रह पर उन्होंने वहाँ के एक मुशायरे (कवि-सम्मेलन) में अपनी ग़ज़ल पढ़ी। उस मुशायरे में मिर्ज़ा अ़शरद गोरगानी भी थे जिनकी गणना उन दिनों चोटी के शायरों में होती थी। जब इक़बाल ने ग़ज़ल का यह शे’र पढ़ा !

मोती समझ के शाने-करीमी ने चुन लिये
क़तरे जो थे मेरे अर्क़-इन्अफ़ाल के !!

( शाने करीमी - दया की शान (भगवान)
अर्क इन अफ़आल -  पश्चात्ताप के कारण आए हुए पसीने के )

इक़बाल की शायरी का प्रारम्भ देश-प्रेम तथा साम्राज्य-विरोध की भावना से हुआ। आरम्भ-काल ही से वे ऐसी शायरी को व्यर्थ समझते थे जिसका उद्देश्य मानव-जंगल न हो और उस शायर पर धिक्कार भेजते थे जो जीवन की कठिनाइयों तथा परीक्षाओं से मुँह मोड़कर पलायनवाद में शरण लेता हो। उनके समीप शायर कर्त्तव्य यह था कि प्रकृति असीम धन में से जीवन और शक्ति का जो अंश उसे मिला है उसमें वह औरों को भी शामिल करें, यह नहीं कि उठाईगीर बनकर जो रही-सही पूंजी औरों के पास है उसे भी हथिया ले ।

इक़बाल भारत मे एक दूसरी नज़र और नज़रिये से भी देखे जाते हैं। उन्होंने सर्वप्रथम पाकिस्तान के विचार और मुस्लिमों के लिये एक देश बनाने की बात की तथा वे मुस्लिम लीग के सैद्धांतिक पीठ भी रहे इस लिये भारत मे वे एक खलनायक के तौर पर भी याद किये जाते हैं। लेकिन जब आप सियासी नज़रिये से दूर हो कर उनका रचा साहित्य पढ़ेंगे तो  इक़बाल का अदबी और फलसफाना दृष्टिकोण औऱ भारतीय मनीषा के ही एक नए रूप का दर्शन होगा। इनसे सैद्धान्तिक मतभेद तो हो सकता है लेकिन इनकी प्रभावात्मकता से इन्कार करना सम्भव नहीं।

ईक़बाल ने इंग्लैंड के तीन कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र क्री डिग्री प्राप्त की। ईरान के दर्शन पर एक पुस्तक लिखी, जिस पर जर्मनी म्यूनिख विश्वविद्यालय ने आपको डाक्टरेट की डिगरी प्रदान की। जर्मनी से वापस आकर आपने लन्दन में बैरिस्टरी की परीक्षा पास की। उन दिनों प्रोफ़ेसर आर्नल्ड भारत से वापस लन्दन जाकर लन्दन विश्वविद्यालय में अरबी के प्रोफेसर नियुक्त हो चुके थे। उनके छुटटी जाने पर छः मास तक आप उनके स्थान पर अरबी भी पढ़ाई।

दुर्भावना, तथा-छोटे-बड़े और काले-गोरे का भेद-भाव देखकर उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। भारत में भारतवासियों की अंग्रेज़ों द्वारा हो रही दुर्दशा को वे पहले ही देख चुके थे और उन्हें जगाने का यथासम्भव प्रयत्न भी कर चुके थे। अब विशाल अध्ययन तथा विस्तृत निरीक्षण के बाद उनकी क़लम से :

दियारे-मग़रिब1 के रहनेवालों खुदा की बस्ती दुकां नहीं है
खरा जिसे तुम समझ रहे हो, वो अब ज़रे-कम-अयार होगा ।
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही खुदकशी करेगी
जो शाख़े-नाजुक पे आशियाना बनेगा नापायदार होगा ।

जैसे शे’र निकलने लगे और उन्होंने गम्भीर समस्याओं पर विचार करना शुरू किया। उनकी एक अद्भुत पुस्तक है जावेदनामा, वह उनके दार्शनिक सोच का उच्चतम सोपान है । वे सृष्टि के रहस्य, पर बात करते है, वे विश्वमित्र और सप्तर्षियों पर बात करते हैं, वे सितारों के पार जा कर अनजानी दुनिया की तलाश में खोते हैं। लगता है वे कुछ ढूंढ रहे हैं । यह भारतीय दर्शन का जिज्ञासु भाव है जो संसार के किसी भी दर्शन से अलग है।

क्या सृष्टि के रहस्य को हम बच्चों का खेल कहकर टाल सकते हैं ? और यदि सचमुच यह बच्चों का ही खेल है तो पश्चिम में यह अधिक सफलता के साथ क्यों खेला जा रहा है ? पूर्वी देश क्यों केवल प्राचीन महानता और आध्यात्मिक विचारधारा पर सन्तुष्ट हैं ? यहाँ उनके सामने दर्शन और विज्ञान के नए मोड़ आए। ‘डार्विन’ की खोज, मात्र ‘बुद्धि’ को अपूर्ण प्रमाणित करने वाला ‘कांट’ का तर्क, ‘हैगल’, जो अनुकूलता-प्रतिकूलता (Opposites) को ही विश्व-विकास का नियम सिद्ध करता है, ‘नत्शे’ का ‘तूफ़ानी अहं’ का सिद्धान्त और ‘बरगुसां’ का अन्तर्ज्ञान को प्रदान किया हुआ नया महत्व इत्यादि दार्शनिक सिद्धान्त नए-नए पहलुओं से उनके सामने आए। कुछ सिद्धान्त उन्होंने मार्क्स और लेनिन से भी लिए। अब उन्होंने पूरे ब्रह्माण्ड को एक विशाल कैन्वेस के रूप  में देखा। सत्य और तथ्य की तलाश उन्हें नए-नए रास्तों पर ले गए। एक पड़ाव से दूसरा पड़ाव। एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल। विभिन्न पथ-प्रदर्शकों के नेतृत्व में उन्होंने ब्रह्माण्ड के कोनों खुदरों की सैर की। कल्पना की वादियों में वे बहुत दूर तक निकल गए, यहाँ तक कि उनकी कल्पना पर कोई भी सिद्धान्त पाबन्दी न लगा सका। कोई मंज़िल-मंज़िल, न रही। आगे बढ़ने और बढ़ते चले जाने की, सितारों से आगे और जहान देखने की उमंग और उत्सुकता उत्पन्न हुई और यहीं से उनकी शायरी में वह वेग, सौन्दर्य प्रेरणा और दर्शन-सम्बन्धी गहनता पैदा हुई जो उससे पहले की उर्दू शायरी में कहीं नहीं मिलती और जिसके बिना हम आधुनिक उर्दू शायरी की–और विशेष रूप से प्रगतिशील शायरी की-कल्पना तक नहीं कर सकते।

ये इक़बाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले ‘इंक़िलाब’ (क्रान्ति) का प्रयोग राजनीतिक तथा सामाजिक परिवर्तन के अर्थों में किया और उर्दू शायरी को क्रान्ति का वस्तु-विषय दिया। पूँजीपति और मज़दूर, ज़मींदार और किसान, स्वामी और सेवक, शासक और पराधीन की परस्पर खींचातानी के जो विषय हम आज की उर्दू शायरी में देखते हैं, उन सबपर सबसे पहले इक़बाल ने ही क़लम उठाई थी और यही वे विषय हैं जिनसे उनके बाद की पूरी पीढ़ी प्रभावित हुई और यह प्रभाव ‘जोश’ मलीहाबादी, ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी, ‘हफ़ीज़’ जालंधरी, ‘एहसान दानिश’ इत्यादि राष्ट्रवादी, रोमांसवादी और क्रान्तिवादी शायरों से होता हुआ तथा अधिक स्पष्ट रूप धारण करता हुआ फ़ैंज अहमद ‘फ़ैज’, ‘सरदार जाफ़री’, ‘साहिर’ लुधियानवी, ‘मख़दूम’ मुहीउद्दीन, ‘वामिक़’ जौनपुरी जैसे आधुनिक काल के प्रगतिशील शायरों तक पहुँचा है।

1908 में यूरोप से वापस आकर इक़बाल स्थाई रूप से लाहौर में रहने लगे। कुछ समय तक प्रोफ़ेसरी करने के बाद हमेशा के लिए नौकरी छोड़ दी और बैरिस्टरी का स्वतन्त्र धंधा अपना लिया। इस काल में उन्होंने उर्दू की बजाय फ़ारसी में अधिक लिखा। फ़ारसी को उर्दू भाषा के स्थान पर विचार-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने का कारण यह था कि ज्यों-ज्यों दर्शन-शास्त्र आदि विधाओं का उनका अध्ययन गहन होता गया और उन्हें गूढ़ विचारों के प्रकटीकरण की आवश्यकता अनुभव हुई तो उन्होंने देखा कि उर्दू भाषा का शब्द-भण्डार फ़ारसी के मुक़ाबले में बहुत कम है। कुछ लोगों का मत यह है कि उर्दू के स्थान पर फ़ारसी को अपना माध्यम बनाने में यह भावना निहित थी कि अब वे केवल भारत के लिए नहीं, संसार-भर के मुसलमानों के लिए शे’र कहना चाहते थे। कारण कुछ भी हो, वास्तविकता यह है कि फ़ारसी भाषा में शे’र कहने से उनका यश भारत से निकलकर न केवल ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, टर्की और मिश्र तक पहुँचा, बल्कि ‘असरारे-ख़ुदी’ ‘अहंभाव के रहस्य) पुस्तक की रचना और डॉक्टर निकल्सन के उसके अंग्रेज़ी अनुवाद से तो पूरे यूरोप और अमरीका की नज़रें इस महान भारतीय कवि की ओर उठ गईं।

और कदाचित् इससे प्रभावित होकर अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें ‘सर’ की श्रेष्ठ उपाधि प्रदान की। (साहित्य-सेवा के फलस्वरूप टैगोर के अतिरिक्त केवल इक़बाल को ही भारत में यह सम्मान मिला।) ‘असरारे-खुदी से तो ख़ैर उनकी ख्याति को चार चाँद लगे ही, लेकिन चिन्तन की दृष्टि से उनकी अन्य फ़ारसी रचनाएँ ‘असरारे-खुदी’ से आगे जाती हैं। ‘पयामे-मशरिक़’ में, जो जर्मनी के महान कवि और विचारक ‘गेटे’ की रचना ‘पश्चिमी प्रणाम’ के उत्तर में लिखी गई थी, दर्शन-सम्बन्धी विचारों का बड़ा सुन्दर उल्लेख मिलता है। इसमें कुछ ऐसी गहन समस्याएं और उनका समाधान किया गया है जिसका उल्लेख इससे पूर्व इतने सरल तथा आकर्षक ढंग से नहीं हुआ था। सारांश इस रचना का यह है कि एक भूला-भटका शायर जन्नत में पहुँच जाता है। अपने विचारों में वह इतना डूबा हुआ है कि जन्नत की खूबसूरतियों की ओर आँख तक उठाकर नहीं देखता। जन्नत की हर हूर उसे देखती है और कहती है कि तू बड़ा विचित्र प्राणी है, न तू शराब पीता है, न मेरी ओर देखता है ! इसपर शायर उत्तर देता है कि मेरा मन जन्नत में नहीं लगता। आकांक्षा की कसक मुझे कहीं चैन नहीं लेने देती। जब मैं किसी रूपवान को देखता हूँ जो बजाय इसके कि मैं उसके रूप की सराबना करूँ या उससे आनन्दित होऊँ मेरे मन में तुरन्त यह इच्छा उत्पन्न हो जाती है कि काश मैंने इससे अधिक रूपवान को देखा होता।
अल्लामा इक़बाल का उनके जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण !

© विजय शंकर सिंह

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