Wednesday 1 November 2017

अंजुम कानपुरी की 1984 के दंगों पर लिखी गयी एक कविता / विजय शंकर सिंह

यह भोगा हुआ सच है । निर्मम और यथार्थ । मनुष्य के पशु होने की करुण कथा । बर्बर मध्ययुग की ओर जहां हिंसा ही जीवन का आधार हुआ करता था कभी की ओर लौटते हुये मनुष्य की एक विडंबना है । वह दंगा था । किसी व्यक्ति द्वारा किये गए अपराध की सजा उसका धार्मिक भुगता था । आज भी यह मनोवृत्ति शेष है ।

31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे उत्तर भारत मे सिख विरोधी दंगे भड़क उठे थे । 3 दिन तक पूरे देश के कुछ इलाक़ों में प्रशासन और पुलिस व्यवस्था पंगु हो गयी थी। दिल्ली, कानपुर और बोकारो सबसे बुरी तरह से पीड़ित रहे । 1986 में जब मैं कानपुर में डीएसपी हो कर गया था उस भयावह दंगे के निशान मौजूद थे । घाव तब तक भरा नहीं था । 1947, 1984 और 2002 के धार्मिक आधार पर फैले दंगे प्रशानिक अक्षमता के साथ साथ धर्म की विकृति और कट्टरवादी सोच के परिणाम है । इन दंगों का तात्कालिक और दूरगामी कारण जो भी रहा हो पर इन सब के पीछे धर्मान्धता का मूल कारण है । इस घटना पर यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । यह कविता गुरुदीप सिंह कोहली अंजुम कानपुरी की है। यह उनका भोगा हुआ सच है । इस दंगे के कारण, परिणाम और इसके लिये जिम्मेदार लोगों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और हो सकता है आगे भी इतिहास के विद्यार्थी इस पर शोध करें । यह #कविता एक मित्र ने भेजी है । मैं जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

जो देखा जो जाना और जो बीता |
“फिर याद ताज़ा हो गयी”

आज इक दोस्त ने याद दिलाया ‘’८४ का मंज़र|
जिस पे गुज़री वो जानता है नर्क कहते किसको||
जिसने न देखा है न समझा है नहीं झेला है कभी|
शख्स वो क्या जाने हालाते फर्क कहते किसको||

मुसलसल जुनून में डूबे हुए बेदर्द लोगों के हुजूम|
बेकुसूर लोगों को निशाना ए नफरत बनाते देखा||
घर में घुस कर इज्ज़ते हौव्वा को तार तार किया|
मैनें बेशर्मी से कितनो ही को जिंदा जलाते देखा||

छिड़क पेट्रोल या जो भी कुछ हाथ आया उन के|
कितने भागते लाचारों को मैंने आग लगाते देखा||
वो तड़पते हुए सड़कों पर गिरे बने लाशों के टीले|
उनके चारों तरफ वहशियों को नाचते गाते देखा||

वो बेजुबान से नन्हे से बच्चे को गोदी में ले कर|
भाग रही थी सड़कों पर शायद बचा ले भाई कोई||
चीख चीख कर पुकारा पर दर तो सारे बंद ही रहे|
कहीं आगे मोड़ पर फिर मिल गया कसाई कोई||

छीन बच्चे को पटका ज़मीं पर औ छुरा दे भोंका|
न रोया न चीखा वोह बस मर गया यूं सहम कर||
माँ तड़प तड़प कर बोले भाई मेरा कुसूर तो बता|
खुदा का वास्ता मुझे मार मेरे बच्चे पे रहम कर||

नज़र घूमी तो देखा ठठ के ठठ और आते ही गए|
वहीं सड़क पर उसकी इज्ज़त पर नाच नंगा हुआ||
पहले पीटा फिर लूटा फिर कपड़े तार तार किये|
लोगों ने तो बस इतना ही कहा कि हाँ दंगा हुआ||

जिनकी इज्ज़त गयी जान गयी और परिवार गए|
उनसे कभी पूछा किसी ने कि दर्द किसको कहते||
आज इतने बरस बाद भी जब है इसका ज़िक्र उठा|
दिल टूट सा गया न रुके मेरे आंसू भी बहते बहते||

जो रहते रहे हैं साथ लख्त ए जिगर बन के कभी|
वक़्त ए परीशां में वही सब यूं कैसे बुरे हो जाते हैं||
वक़्त की धूल से ढके ढांपे पन्ने हाय कुरेदे अंजुम|
ज़ख्म तो ज़ख्म ही हैं यह फिर से हरे हो जाते हैं||

© गुरदीप सिंह कोहली ( अंजुम कानपुरी ) कानपुर के निवासी है । इनकी लेखन रुचि कविताओं और गज़लों में हैं । इन्होंने बहुत सी सुंदर कविताएं और गज़लें लिखी हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

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