Friday 6 October 2017

रेवड़ियाँ और एम्पावरमेंट - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

पहले यह ट्वीट पढ़ें,
मैं जानता हूं , रेवड़ी बांटने के बजाय लोगों और देश को empower करने के काम मे, कई बार मुझे आलोचना का भी सामना करना पड़ेगा । लेकिन मैं अपने वर्तमान की चिंता में, देश के भविष्य को दांव पर नहीं लगा सकता हूँ -
( प्रधानमंत्री जी का यह ट्वीट
4 अक्टूबर 17 समय 7. 21  PM का है । )

वे हमें एम्पावर empower कर रहे हैं और उन्हें रेवड़ियां बांट रहे हैं । यकीन न हो तो फोर्ब्स की रिपोर्ट पढ़ लें । रवीश कुमार के लेख का यह अंश पढ़ें ,

" पर अच्छी ख़बर ये है कि अंबानी की संपत्ति में 67 फीसदी की वृद्धि हुई है। नई रिपोर्ट आई है कि भारत के सौ अमीरों की संपत्ति में 26 फीसदी की वृद्धि हुई है। क्या आपकी संपत्ति, सैलरी इतनी बढ़ी है? "

जिन्हें रेवड़ियां मिल रही हैं वे विपन्न लोग हैं । इतने विपन्न कि एक एक पैसा दांत से पकड़ते हैं । न कोई माया न दया । खूबसूरत लिबासों से सजी देह पर अंदर उफनती हुयी भावशून्यता । ईश्वर भी वे वही पूजते है जो उन्हें कुछ दे, उनकी विपन्नता दूर करे । लक्ष्मी उनकी प्रिय देवी, दीपावली प्रिय पर्व और ऐश्वर्यवान विष्णु प्रिय देव् है उनके ।  विपन्नता और घाटे का दुःख उनका स्थायी भाव है । विडंबना यह है कि फोर्ब्स की सीढ़ियां वे चढ़ते हैं, और जश्न हम मनाते हैं । वे समाज की प्रगति के मापदंड बन जाते हैं । उन पर न वंदे मातरम कहने की कोई बन्दिश है और न ही भारत माता की जय कहने का कोई फरमान जारी होता है । फरमान जारी कौन करे, वे सब तो उनके पाल्य है । देशभक्ति का आलम यह कि जिस देश से मुनाफा मिले भक्ति भाव वहीं का जाग्रत हो जाता है । सीमा तक संकुचित नहीं रहता इनका राष्ट्रवाद वह असीम है और यह एक नये तरह का साम्राज्यवाद है । हम तो मुगालते में रहते है कि निज़ाम हम ही बदलते हैं हमीं तख्त से ताज तक का सफर सियासतदानों को तय कराते हैं , पर ज़रा किसी सियासतदां के गरेबान में झांक कर खुद को तजबीज कीजियेगा वहां यही विपन्न समाज दिखायी देगा । हम तो बस तख्तियां लिये दहलीज़ के बाहर ही खड़ी एक भीड़ हैं । वे निकलते हैं , हाँथ हिलाते हैं, कभी किसी बच्चे को दुलारते हैं, किसी की पीठ पर धौल जमा कर एक मुस्कान, जिसकी कुटिलता ज़ाहिर नहीं होती है , बिखेरते निकल जाते हैं, और हम खुद को अहो भाग्य के मोड में पाते हैं । यह नये तरह का झरोखा दर्शन है मित्र ।

एक दिन बड़े हिसाबी किताबी लोगों की सभा हो रही थी । वे बोल रहे थे । उसे प्रलाप कहने की धृष्टता नहीं करूंगा । प्रलाप तो इंस्टैंट निकलता है । व्यथा का उद्गार होता है वह । कुछ न पाने की खीस, और ठगे जाने की खीज़ समेटे रहता है प्रलाप । पर वे आंकड़े लिये थे । कलियुग के लोकतंत्र में आंकड़ो से बड़ा कोई शस्त्र नहीं है ! वे कह रहे थे " लोग उन्हें हतोत्साहित कर रहे हैं । " मार से खुद को घिरा वे बता रहे थे । हवाई जहाज सवारी भर भर के उड़ रहे हैं । बाहर से पैसा बरस रहा है । मैंने टीवी की ट्यून तेज़ कर दी । मोबाइल परे रख दिया । सोचा राष्ट्र निर्माण हो रहा है थोड़ा गौर से सुना जाय । पर वे आये, कहे और चले गए । तड़ तड़ बजती तालियां भी समेट ले गये । पर जिस उम्मीद में टीवी की ट्यून तेज़ की थी मैंने , वह तो उन्होंने कहा ही नहीं । वो जिसकी उम्मीद थी कि वे कहेंगे कुछ, पूरे फ़साने में उसका कहीं ज़िक्र भी नहीं । उन्हें क्या पता दिक्कत उन्हें हैं जो रेल से सफर करते हैं । दिक्कत उन्हें हैं जो गम ए रोज़गार से जूझ रहे हैं। दिक्कत उन्हें हैं जो बेहतर जीवन के लिये संघर्षरत है । जहाज़ वाले गरीब तो रेवडियां पा ही रहे हैं ।

यह लोकतंत्र कि एक विसंगति है । पर क्या कीजियेगा आज भी इस से कम बुराई से भरा आला ए निज़ाम, शासन व्यवस्था हमारे दिमाग मे आयी ही नहीं । अरविंदो ने कहा है कि अभी हमारे मस्तिष्क का विकास पूरा नहीं हुआ है । वह अभी क्रम में हैं । वैज्ञानिकों का भी कहना है कि अभी 90 प्रतिशत दिमाग तो हम इस्तेमाल ही नहीं करते हैं । तो अभी हमे नाउम्मीद नहीं होना है । वैसे भी नाउम्मीदी कुफ्र है । कुछ कुछ प्रलाप जैसा लग रहा होगा यह सब जो आप पढ़ रहे हैं । प्रलाप ही है । जो जैसे आ रहा है वैसे उतार रहा हूँ । प्रधानमंत्री जी की बात में दम है । वे न कभी बेदम बोलते हैं और अनर्गल । अर्गला तो उनकी वाणी में कभी कभी रहती ही नहीं है । मुक्त, पवन की तरह , छूते और गुदगुदाते हुए निकल जाती हैं । बस , उनसे यही कहना है कि वे रेवड़ी न बांटे हमे ही एम्पावर कर दें । रेवड़ियां हम खुद ले लेंगे । पर कुछ करें तो । हम कब तक बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह दीवानावार बने रहेंगे ।

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment