Wednesday 18 October 2017

राम लौट आये हैं - अयोध्या में दीपावली / विजय शंकर सिंह

राम लौट आये हैं । 14 साल के बनवास के बाद जंगल की खट्टी मीठी स्मृतियों के साथ । रावण का वध कर । सीता और लक्ष्मण के साथ । साथ मे परम सेवक हनुमान भी है । कहते हैं राजा राम के लौटने की प्रसन्नता से अभिभूत हो अयोध्या वासियों ने असंख्य दीप जला कर उनका स्वागत किया था । राम ने गद्दी संभाली । उनकी पादुका हटा दी गयी । वे सीता के साथ उसी राज सिंहासन पर विराजमान हो गए । एक युग का अंत हुआ । वह पादुका का युग था । प्रॉक्सी काल था । सत्ता किसी और की थी, आदेश किसी और का चलता था । लेकिन यह व्यवस्था भी सहमति से थी। पादुका प्रतीक्षारत थी। आज उस पादुका को चरण मिल गए ।  रघुकुल के सबसे प्रतापी राजा का शासन प्रारम्भ हुआ । असँख्य दीप जल उठे । अंधकार सरयू पार चला गया । राजधानी से दूर उन गाँव गिरांव मे जहां वह प्रजा भी बसती थी, जो कोउ नृप होहि, की मानसिकता में जी रही थी। कम ओ बेश वह मानसिकता आज भी है । पर राजधानी उत्सव मग्न थी। यह उत्सवधर्मिता थी । उत्सवधर्मिता हमारे समाज का एक स्थायी भाव है । वसन्त के आगमन से ले कर शरद के प्रस्थान तक पर्व और उत्सवों की एक समृद्ध परंपरा है । आनन्द , भारतीय मानसिकता का स्थायी भाव है । दीया बाती, धूम धड़ाका, आदि यह सब,  तिमिर को दूर करने का यह एक प्रतीकात्मक उपक्रम ही तो है । अंधकार से एक अहर्निश युद्ध होता रहता है हम सबका । यह अंदर बाहर दोनों जगह चलता रहता है । अंतर यह है कि अंदर का संघर्ष कोई देख नहीं पाता है । कुछ देख भी पाते हैं तो अनदेखी कर जाते हैं ।  राजा , तिमिर का नाश करता है । वह एक व्यवस्था देता है । शासन की रीति -नीति, विधि - विधान बनाता है । उसी विधि -विधान पर राज्य चलता है । वह प्रजा का हित देखता है । प्रजा का सुख देखता है । प्रजा को प्रसन्न रखता है । प्रजा का रंजन करता है,  इसीलिए तो, उसे प्रजा का रंजक कहा गया है । प्रजा उसके लिये पाल्य है । अतः वह प्रजा पालक भी कहा गया है । पालन आप भेदभाव की भावना से ऊपर उठ कर ही कर सकते हैं । वह यह सुनिश्चित करता है कि उसके राज्य में दैहिक दैविक और भौतिक ताप न व्यापे। किसी को कोई कष्ट न हो । उसका शासन, उस की इच्छा पर निर्भर नही  करता था, वह स्वेच्छाचारी नहीं होता था । यह राजा का दायित्व है कि वह समभाव से शासन करे । उसके राजदण्ड पर धर्म का अंकुश रहता है । धर्मोअस्मि धर्मोअस्मि । धर्म से यहां तात्पर्य कर्मकांड से संक्रमित धर्म नही  है बल्कि उस विधान से है जो राज करने के लिये बनाये गए है । जो अनुभव और परम्पराओं की अग्नि में तप कर कुंदन बने हो। राजा जिस दिन इस राजधर्म से च्युत हो जाता है वह नर्क का भागी होता है । अत्याचारी राजा को राज्यच्युत करना भी शास्त्र सम्मत है ।

राजधर्म, इतिहास का पुनर्मचंन, पुनर्लेखन, और उत्सवधर्मिता ही नहीं है बल्कि प्रजा के कष्टों को दूर करते हुये एक व्यवस्थित शासन प्रणाली का मनसा वाचा कर्मणा पालन भी है । पर्व तो एक प्रतीक है । अंधेरा भी एक प्रतीक ही है । निशा है तो, अंधकार रहेगा ही। और फिर निशा भी अमावस की। उदास और काली रात ।  उसी अंधकार को दूर करने के लिये तो दीप जलाते हैं हम । हम सूरज की आभा में दीप कभी नहीं जलाते हैं। जलाते भी हैं तो उसका उद्देश्य अंधेरे को भगाना नहीं रहता है । क्यों कि अंधकार रहता ही नहीं है । दीप की आवश्यकता ही अंधकार में पड़ती है । उसका प्रकाश उस अंधेरे में सम्बल देता है, इसी लिये तो हम सबको आह्लादित करता है। यह इस बात का भी प्रतीक है कि अंधकार कितना भी सघन हो वह प्रकाश की एक रेख से डर जाता है । डर भी एक प्रकार का अंधेरा ही है । अंधकार का एक प्रतीक भय, भूख और जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं भी है । जब हम इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के जद्दोजहद से मुक्त होते हैं तो शुभकामनाओं का आदान प्रदान भी मन से निकलता है नहीं तो वह केवल शुष्क औपचारिकता ही बन जाती है । राजा का सबसे बड़ा दायित्व और कर्तव्य प्रजा को सुखी , सुरक्षित और भयमुक्त रखना है । ऐसे राजधर्म से च्युत राजा को नरक में ही शरण मिलती है । तभी तो आध्यात्म रामायण के एक प्रसंग के अनुसार राम वशिष्ठ से कहते हैं, " गुरुवर, राज्य करना सबसे कठिन कार्य है । " प्रजा की अपेक्षाओं को पूरा करना आसान नहीं होता है । इसी लिये राम इसे कठिन कहते हैं । मानस में तुलसीदास की यह बात भी सुनें,
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप होहिं नरक अधिकारी ।।
राम राज्य क्या है, इस पर तुलसी की यह चौपाइयां पढ़ें ।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।
तुलसी के बिना राम की और राम के बिना तुलसी की कल्पना नहीं की जा सकती है ।

राम राज्य अक्सर सर्वश्रेष्ठ राज माना जाता है । यह इतना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है कि इसे आप काल्पनिक आदर्शवाद यूटोपिया भी कह सकते हैं । यह आदर्श की चरम स्थिति है । हम एक सुंदर , व्यवस्थित और सुखी राज्य की जब कामना करते हैं तो राम राज्य का ही नाम मस्तिष्क में उभरता है । कभी कभी इसके विपरीत स्वच्छंद राज व्यवस्था को भी परिहास में राम राज्य कह देते हैं। पर राम राज्य से अर्थ एक सुंदर सुशासित राज्य ही है। जहां अपराध कम से कम हो, और हो तो अपराधी दंडित हो, सबकी उदर पूर्ति हो , शिक्षा चिकित्सा की सुविधा हो और प्रजा भयमुक्त हो । यह दीप जो उस दिन जले थे जन आशा के दीप थे । वह एक राजा का अपनी राजधानी में लौटने पर किया गया स्वागत तो था ही साथ ही आशा के भी दीप थे , कि अब अंधेरा छंटेगा और सुखकर शासन आएगा । शासन कितना भी सुखकर हो, वह अंतिम नहीं होता है । बेहतर की गुंजाइश और कामना सदैव जन्मती रहती है । यह कामना और इच्छा भाव ही संसार को चलाती रहती हैं । आज भी जो दीप वहां जले हैं, उसे इसी प्रतीक के रूप में देखें कि अब थोड़ा बेहतर शासन आएगा। आये या न आये पर एक आस रखने का अधिकार तो हम सबको है । कल क्या होगा यह राम ही बता पायें तो बताएं पर जब हम एक दीप उम्मीदों का जलाते हैं और उसे सरिता में प्रवाहित करते हैं और उसे समय के साथ ही बहते हुये देखते हैं तो जो प्रवाहभाव मन में उमगता है वही जीवन का सार होता है । नदी के प्रवाह में बहते हुये दीप उम्मीदों के दिये ही तो हैं ।  आशा के ये असंख्य दीप जो आज जगमग जगमग हुए हैं वे एक बेहतर कल की उम्मीदें पूरी करें । यही कामना है ।

© विजय शंकर सिंह

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