Saturday 14 October 2017

15 अक्टूबर, निराला की पुण्यतिथि - विनम्र स्मरण और उनकी एक कविता - जागो फिर एक बार / विजय शंकर सिंह

आज 15 अक्टूबर है ।आज ही के दिन 1961 ई में हिंदी साहित्य के ' महाप्राण ' सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला ' का देहावसान हुआ था। निराला ने अपने अंतिम समय इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले में बिताया था। वहीं उन्होंने देहत्याग किया था । मूलतः वह उन्नाव जनपद के गढ़ाकोला गांव के रहने वाले थे पर उनका जन्म बंगाल के महिषादल में 11 फरवरी 1886 को हुआ था। उस दिन वसंत पंचमी थी। यह भी एक संयोग ही है कि सरस्वती के वरद पुत्र का आगमन वीणावादिनि के आराधना के ही दिन हुआ । कविवर ' निराला ' ने सरस्वती की एक अनुपम वंदना, ' वीणावादिनि वर दे '  लिख कर उनके प्रति अपना आभार भी प्रकट कर दिया है । यह कविता वसंत पंचमी के दिन आयोजित होने वाली सरस्वती पूजा में गायी जाने वाली सबसे लोकप्रिय प्रार्थना है ।

उन्होंने कविताये लिखी, उपन्यास लिखे और सरोज स्मृति जैसा शोक काव्य भी लिखा । सरोज उनकी पुत्री थी। जिसका देहावसान बेहद दुःखद परिस्थितियों में हुआ था । तत्कालीन समाज की विडंबनाओं, वर्जनाओं और कुप्रथाओं पर मार्मिक चोट और एक संवेदनशील पिता के शोक को व्यक्त करती हुयी यह रचना हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखती है । बहुत से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में यह कविता सम्मिलित है । कविता का सारा भाव उनके इन शब्दों में छलक आया है ,
दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज जो नहीं कही !!

पर जब तक उनकी श्रेष्ठतम कविता राम की शक्ति पूजा का उल्लेख न किया जाय उनकी लेखन प्रतिभा की चर्चा पूरी ही नहीं हो सकती है । राम की शक्ति पूजा निराला की सर्वश्रेष्ठ कृति तो है ही वह विश्व साहित्य की श्रेष्ठतम कविताओं में अपना स्थान रखती है । इस कविता पर कुछ वाक्यों में नहीं लिखा जा सकता है । लेकिन कविता का कथ्य संक्षेप में इस प्रकार है ।

राम सागर तट पर रावण से युद्ध करने के लिये तत्पर हैं। वे दुर्गा की आराधना करते हैं । प्रतिमा की स्थापना हुयी । अनुष्ठान विधिवत प्रारम्भ हुआ । पूर्णाहुति का समय आया ।  उन्होंने दुर्गा की पूजा में 108 कमल के पुष्प अर्पित कर देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने का अवसर आया। राम,  मंत्र उच्चारित करते गये और एक एक कमल के पुष्प माँ को अर्पित करते गए । उनके पार्श्व में 108 स्वच्छ कमल के पुष्प रखे थे । उन्होंने 107 पुष्प अर्पित कर दिए । जब उन्होंने 108 वें पुष्प को देवी के चरणों में अर्पित करने के लिये थाल जहां यह पुष्प रखे थे, हाँथ बढ़ाया तो वहां कुछ भी नहीं था । थाल रिक्त था । राम के समक्ष एक विकट धर्मसंकट आ पड़ा। अगर वह पूजा छोड़ पुष्प की खोज में लगते हैं तो पूजा भग्न होती है, और अगर अंतिम पुष्प समर्पित नहीं कर पाते हैं तो अनुष्ठान अधूरा रहता है । राम के जीवन के वे सारे क्षण एक एक कर के उनके मस्तिष्क में दामिनी की तरह कौंध गए।बचपन मे विश्वामित्र के आश्रम में जाना, ताड़का से युद्ध, धनुष भंग पर परशुराम से विवाद, वन गमन, पिता की असमय शोकाभिभूत मृत्यु, वन में सीता का हरण, इतने उद्योग कर के जब रावण से युद्ध हुआ तो लक्ष्मण मरते मरते बचे, ( मेघनाथ का शक्तिबाण ) और अब जब सारी पूजा सकुशल सम्पन्न हो रही थी तो यह अपशकुन । राम ने स्वयं को कोसा और हतभाग्य कहा । निराला ने अत्यंत प्रभावी रूप से राम की मनोव्यथा को इस कविता में अभिव्यक्त किया है। अचानक राम को याद आता है, " माँ कहती थी मुझे राजीव नयन " । राम की आंखें कमल के समान थीं। वे कमल नयन हैं । उन्होंने सोचा , अनुष्ठान भंग होने से श्रेयस्कर है अपनी एक आंख ही जो कमल की तरह है , देवी को समर्पित कर दी जाय । वे अपनी आंख को समर्पित करने के लिये तीर से उस पर प्रहार करने ही वाले थे कि, दुर्गा , जिन्होंने 108 वां कमल स्वयं ही चुरा लिया था ने प्रकट हो कर उनका हाँथ थाम लिया और वह चुराया हुआ कमल उन्हें सौंप दिया । राम ने उस कमल पुष्प को विधिवत देवी को समर्पित किया और अनुष्ठान संपन्न हुआ । यह घटना शारदीय नवरात्र की नवमी की है । देवी प्रसन्न हुयी। राम को आशीर्वाद मिला, और दशमी के दिन राम रावण का निर्णायक युद्ध हुआ और राम को विजय श्री मिली। यह राम की परीक्षा थी।

यह कविता की विषयवस्तु है। इस प्रसिद्ध और लम्बी कविता की आलोचना में एक स्वतंत्र लेख या पुस्तक भी लिखी जा सकती है । निराला पर गहन शोध करने वाला आधिकारिक विद्वान डॉ राम विलास शर्मा को पढ़ना एक अनुपम अनुभव है ।

निराला जी की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे प्रायः खड़ी बोली के कवि थे, परन्तु वे ब्रजभाषा एवं अवधी भाषा में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। आपकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का ज़ज़्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। आपकी प्रमुख काव्यकृतियाँ अग्रलिखित हैं-

कविता संग्रह- परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, आदिमा, बेला, नये पत्त्ते, अर्चना, आराधना, तुलसीदास, जन्मभूमि।

उपन्यास- अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्च्श्रंखलता, काले कारनामे।

निबन्ध संग्रह- प्रबन्ध-परिचय, प्रबन्ध प्रतिभा, बंगभाषा का उच्चारण, प्रबन्ध पद्य, प्रबन्ध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संघर्ष।

अनुवाद- आनन्द मठ, विश्व-विकर्ष, कृष्ण कान्त का विल, कपाल कुण्डला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राज रानी, देवी चौधरानी, युगलंगुलिया, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्ण वचनामृत, भारत में विवेकानन्द, राजयोग।

यहां उनकी एक और प्रसिद्ध कविता को प्रस्तुत कर रहा हूँ,

जागो फिर एक बार
( सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" )

जागो फिर एक बार!
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार-
जागो फिर एक बार!

आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोयी कमल-कोरकों में?-
बन्द हो रहा गुंजार-
जागो फिर एक बार!

अस्ताचल चले रवि,
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी,
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,
आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी
घेर रहा चन्द्र को चाव से
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए,
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार-
जागो फिर एक बार!

पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये,
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार!

सहृदय समीर जैसे
पोछों प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में,
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
सब सुप्ति सुखोन्माद हो,
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमन
ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
तन-मन थक जायें,
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में,
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे,
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार!

उगे अरुणाचल में रवि
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट,
गया दिन, आयी रात,
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,
वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!

आज निराला की पुण्यतिथि पर महाप्राण का विनम्र स्मरण । लेखक और साहित्यकार कभी मरते नहीं है । उनके अक्षर, उनकी स्मृति का क्षरण नहीं होने देते हैं ।
उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !!

© विजय शंकर सिंह

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