Thursday 12 October 2017

12 अक्टूबर, डॉ लोहिया की पुण्यतिथि - विनम्र श्रद्धांजलि / विजय शंकर सिंह

12 अक्टूबर । आज डॉ राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 1967 में डॉ लोहिया का निधन दिल्ली स्थित डॉ राममनोहर लोहिया अस्पताल जो पहले वेलिंगटन हॉस्पिटल था में हुआ था। वे प्रॉस्ट्रेट की बीमारी से पीड़ित थे। वे तब फरुखाबाद से सांसद थे । अपने राजनीतिक कैरियर में वे दो बार चुनाव जीते थे । पहली बार 1963 मे फरुखाबाद से ही उपचुनाव और फिर वही से 1967 का आम चुनाव। डॉ लोहिया जब दिवंगत हुये थे तो वे विपक्ष के सबसे कद्दावर और संघर्षशील नेता थे । गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत के प्रणेता, नेहरू के ज़बरदस्त आलोचक और संसद में सरकार के खिलाफ पहली बार अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले और तीन आना बनाम तेरह आना की जोरदार बहस छेड़ कर सदन में ही नेहरू जैसे विराट व्यक्तित्व को अपनी बात मानने के लिये मजबूर कर देना यह इन्हीं का कमाल था । प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ कृष्णनाथ द्वारा संपादित 17 खण्डों में पुस्तक ' लोकसभा में लोहिया ' तत्कालीन संसदीय इतिहास का एक प्रमुख दस्तावेज़ है । अब वे पुस्तकें उपलब्ध हैं या नहीं पता नहीं।

डॉ लोहिया, नेहरू के खिलाफ चुनाव भी लड़े थे । यह चुनाव फूलपुर से 1957 का चुनाव था। वे परिणाम जानते थे । फिर भी वे लड़े और हारे। चुनाव के पूर्व उन्होंने नेहरू से उन्हीं के खिलाफ चुनाव लड़ने की अनुमति भी ली, चुनाव का खर्च भी मांगा । नेहरू ने उनकी जीत की शुभकामना भी की । यह भी कहा कि वह नामांकन के बाद उनकी सुविधा के लिये प्रचार करने हेतु फूलपुर नहीं जाएंगे । पर लोहिया हारे लेकिन अपनी जमानत बचा ले गए । उन्होंने नेहरू को संबोधित अपने पत्र में लिखा था कि,
" में जानता हूं कि मैं पहाड़ से सिर टकरा रहा हू । पहाड़ का कुछ नहीं बिगड़ेगा । लेकिन अगर पहाड़ कुछ दरक भी जाये तो मेरा उद्देश्य सफल होगा। मैं आप को आज़ादी के पहले वाला नेहरू बनाना चाहता हूं । "
लोहिया यह मानते थे कि नेहरू का सत्ता पाने के बाद क्षरण हो गया है । सत्ता , बड़े से बड़े आदर्शवाद का क्षय करने लगती है ।

उनका यह उद्धरण देखें ,
"भारतीय राजनीति में अच्छाई और सफाई तब आएगी जब अपने ही पार्टी के लोग अपनी ही पार्टी की बुराइयों की आलोचना करेंगे । "

यह केवल सुभाषित ही नहीं है । उन्होंने अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने के लिये बाध्य कर दिया । यह लोकतंत्र की एक दुर्लभ घटना थी। आज तो हर झूठ को सच ठहराने की जद्दोजहद है ।

एक घटना है केरल की । वहां के मुख्यमंत्री पी थानुपिल्लै की । जो डॉ लोहिया के दल के केरल में मुख्यमंत्री थे और उन्हीं का इस्तीफा पुलिस द्वारा जनता पर फायरिंग करने के कारण डॉ लोहिया द्वारा मांगा गया और न मिलने पर लोहिया ने पार्टी छोड़ दी और एक नयी पार्टी बना ली । ' सुधरो या टूटो ' का अपना खुद का गढ़ा सिद्धांत उन्होंने अमल में यहाँ भी  लाया ।

यह रोचक घटना पढ़ें ।
सीएम थे पिल्लई । उन्होंने त्रावणकोर कांग्रेस पार्टी की स्थापना 1928 में की थी जब त्रावणकोर राज एक बड़ी रियासत थी। तब उन्होंने त्रावणकोर राज्य में लोकप्रिय सरकार के स्थापना की मांग के लिए आंदोलन का नेतृत्व भी किया था। 1928 में ही पिल्लई त्रावणकोर विधानसभा के लिए चुन लिये गये थे। लेकिन जब 1947 में भारत आज़ाद हुआ तो वे 1948 में वे त्रावणकोर के मुख्यमंत्री बने । थानुपिल्लै का कुछ कांग्रेसियों से किसी बात पर मतभेद हो गया और उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। पिल्लई 16 मार्च 1954 को पीएसपी से दोबारा मुख्यमंत्री बने। 11 अगस्त 1954 को त्रावणकोर के कोचीन शहर में पुलिस ने गोलियां चलायीं, जिससे चार व्यक्ति मारे गये। तब आचार्य जेबी कृपलानी  पीएसपी के अध्यक्ष थे। डॉ लोहिया ने मांग की कि गोलीकांड के कारण पिल्लई मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दें। डॉ लोहिया की राय थी कि इस्तीफे के कारण पार्टी और जनता के मन मे सरकार और पार्टी के प्रति विश्वास बढ़ेगा। इस से अलग तरह की क्षवि बनेगी । इस तरह का इस्तीफा अन्य पार्टियों को अपने व्यवहार बदलने और राजनीति में शुचिता लाने के लिये बाध्य करेगा। पुलिस को भी औपनिवेशिक मनोवृत्ति छोड़ कर अपने आचरण में बदलाव लाने की परंपरा जन्म लेगी। इस गोलीकांड को लेकर दल में उच्चतम स्तर पर काफ़ी चिंतन और आत्ममंथन हुआ, पर इस्तीफे के पक्ष में एकराय नहीं बनी। अत: डॉ लोहिया ने अगस्त में ही प्रसोपा  की सदस्यता और दल के महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया। उनके समर्थकों ने भी पार्टी के पदों से इस्तीफा दे दिया। तब पार्टी ने कहा कि पार्टी इस गोलीकांड के लिए जनता से माफी मांगती है, पर मुख्यमंत्री का इस्तीफा नहीं होगा। उधर, मुख्यमंत्री पिल्लई ने कहा कि
" सरकार के बारे में राय बनाने के लिए जनता सबसे सक्षम न्यायाधीश है। उनकी सरकार काफ़ी लोकप्रिय है और सरकार के इस्तीफे का कोई कारण नहीं है। "

जे.बी. कृपलानी ने पुलिस फायरिंग पर महात्मा गांधी के विचारों से संदर्भ ढूंढ कर यह तर्क दिया कि,
" कांग्रेसी सरकार में जब पुलिस गोलीबारी हुई, तो उन्होंने उस सरकार से इस्तीफा नहीं मांगा।"
लेकिन कृपलानी जी यह भूल गए कि गाँधी जी के समय ब्रिटिश सरकार थी, जिस से इस्तीफा मांगने और इस्तीफा की उम्मीद करने का कोई तुक ही नहीं था । डॉ लोहिया के बारे में कृपलानी ने कहा कि
" हम लोगों के बीच एक नयी प्रतिभा का उदय हुआ है, लेकिन इसकी भी एक सीमा होनी चाहिए। "
जयप्रकाश नारायण ने भी इस गोली कांड पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि
" कांग्रेस शासित राज्यों में पुलिस गोलीकांड होने पर क्या कांग्रेस ने इस तरह का प्रस्ताव पारित किया, जैसा प्रस्ताव पीएसपी ने पास किया है ? "
इस मुद्दे पर विचार के लिए पार्टी का अधिवेशन बुलाया गया। पर इस्तीफा न देने के तर्को से लोहिया सहमत नहीं थे। उन्होंने एक जनसभा में कहा कि
" कोई भी सरकार, जो अपनी पुलिस की राइफल पर निर्भर करती है, जनता का भला नहीं कर सकती। "  
डॉ लोहिया ने फिर नयी पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी , संसोपा बनायी और उसे एक सिद्धांतनिष्ठ पार्टी के रूप में चलाया। वे इसी पार्टी से दो बार सांसद चुने गए । उनके गैरकांग्रेसवाद के नारे के कारण 1967 के चुनाव में नौ राज्यों में कांग्रेस की सरकार नहीं रही। ऐसा बहुतों का मानना है कि 1967 में डॉ लोहिया का निधन नहीं हुआ होता, तो देश में समाजवादी आंदोलन की यह दुर्गति नहीं होती ।

आज उनकी पुण्यतिथि पर इस महान और अहर्निश संघर्षशील व्यक्तित्व को विनम्र श्रद्धांजलि !!

© विजय शंकर सिंह

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