Sunday 17 September 2017

प्रेमचंद के ' गोदान ' का तर्पण / विजय शंकर सिंह

केंद्रीय हिंदी संस्थान ने प्रेमचंद के अमर उपन्यास गोदान को अपने पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया है । ऐसा क्यों किया है, इसका कारण और स्पष्टीकरण भी उन्होंने बड़ा ही अज़ीब ओ गरीब दिया है । केंद्रीय हिंदी संस्थान की दलील है कि,
" उपन्यास की ग्रामीण पृष्ठभूमि और इसमें प्रयुक्त अवधी भाषा का पुट विदेशी छात्रों को समझ में नहीं आता लिहाज़ा उन्हें बड़ी दिक्कत होती है । "
यह दलील किस वकील ने इज़ाद की है यह तो मुझे नहीं मालूम पर यह दलील न केवल बचकानी है बल्कि, यह एक षडयंत्र के अंतर्गत दी गयी लगती है ।

गोदान, ग्रामीण पृष्ठभूमि पर और कर्मकाण्ड की विडम्बनाओं के बीच जीवन को खींच रहे होरी नामक एक ऐसे किसान की व्यथा की महागाथा है जिसने तत्कालीन किसानों के जीवन, उनकी भाषा, उनके सामाजिक रीति रिवाज की वर्जनाएं, आदि को प्रतिविम्बित कर दिया है । प्रेमचंद ने कुल 9 उपन्यास और 200 से अधिक कहानियाँ लिखी है । प्रेमचन्द का यह अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। कुछ लोग इसे उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानते हैं। इसका प्रकाशन 1936  ई० में हुआ था । इसमें प्रगतिवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का पूर्ण परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की एक विशेष संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुबास भरी है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है।

जिस समय प्रेमचन्द का जन्म हुआ वह युग सामाजिक-धार्मिक रुढ़िवाद से भरा हुआ था। इस रुढ़िवाद से स्वयं प्रेमचन्द भी प्रभावित हुए। जब अपने कथा-साहित्य का सफर शुरु किया अनेकों प्रकार के रुढ़िवाद से ग्रस्त समाज को यथाशक्ति साहित्य के  द्वारा मुक्त कराने का संकल्प लिया। अपनी एक कहानी के एक पात्र के माध्यम से यह घोषणा करते हुए कहा कि
"मैं निरर्थक रूढ़ियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ।"
वह कहते हैं कि समाज में जिन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज लगाई
"ए लोगों जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह जिन्दा रहने से क्या फायदा।"

गोदान में बहुत सी बातें कही गई हैं। ऐसा लगता है प्रेमचंद ने अपने संपूर्ण जीवन के व्यंग और विनोद, कसक और वेदना, विद्रोह और वैराग्य, अनुभव और आदर्श् सभी को इसी एक उपन्यास में भर देना चाहा है। कुछ आलाचकों को इसी कारण उसमें अस्तव्यस्तता मिलती है। उसका कथानक शिथिल, अनियंत्रित और स्थान-स्थान पर अति नाटकीय जान पड़ता है। ऊपर से देखने पर है भी ऐसा ही, परंतु सूक्ष्म रूप से देखने पर गोदान में लेखक का अद्भुत उपन्यास-कौशल दिखाई पड़ेगा क्योंकि उन्होंने जितनी बातें कहीं हैं वे सभी समुचित उठान में कहीं गई हैं। प्रेमचंद ने एक स्थान पर लिखा है -
" उपन्यास में आपकी कलम में जितनी शक्ति हो अपना जोर दिखाइए, राजनीति पर तर्क कीजिए, किसी महफिल के वर्णन में १०-२० पृष्ठ लिख डालिए (भाषा सरस होनी चाहिए), कोई दूषण नहीं।"
प्रेमचंद ने गोदान में अपनी कलम का पूरा जोर दिखाया है। सभी बातें कहने के लिये उपयुक्त प्रसंगकल्पना, समुचित तर्कजाल और सही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रवाहशील, चुस्त और दुरुस्त भाषा और वणर्नशैली में उपस्थित कर देना प्रेमचंद का अपना विशेष कौशल है और इस दृष्टि से उनकी तुलना में शायद ही किसी उपन्यास लेखक को रखा जा सकता है।

' गोदान' न सिर्फ प्रेमचंद की सवोत्तम कृति के रूप में आलोचकों द्वारा मानी गयी है, अपितु यह भारतीय भाषाओँ की साहित्यिक पुस्तकों में सर्वाधिक बिक्री के कीर्तिमान भी यह उपन्यास बना चुका है । दुनिया की अनेक भाषाओं में भी इसका अनुवाद हो चुका है । संस्थान की अवधी भाषा की दलील को मानें तो क्या तुलसी का  " राम चरित मानस ' और जायसी का " पद्मावत " जो अवधी में ही है को भी उसके पाठ्यक्रमों से निकाल देना चाहिये ?  पितृपक्ष में मैं इसे गोदान का तर्पण ही कहूँगा । इस उपन्यास पर कुछ भी लिखने से पहले मित्रों से अनुरोध है कि यह उपन्यास और प्रेमचंद की चुनिंदा कहानियाँ पढ़ लें ।
© विजय शंकर सिंह

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