Friday 18 August 2017

18 अगस्त , संस्कृत दिवस - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

आज 18 अगस्त है और आज ही संस्कृत दिवस भी मनाया जाता है । संस्कृत भारतीय वांग्मय की मूल भाषा है और भाषा विज्ञान के दृष्टिकोण से विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है । यह अकेली भाषा है जिसने अपनी व्याकरणीय मर्यादा और शुद्धता बचा कर रखी है । इस लेख में मित्र कुमुद सिंह जी की फेसबुक टाइमलाइन से लिया गया  मिथिला के एक विद्वान भैरव लाल दास द्वारा लिखा गया एक अंश जोड़ा गया  है ।  मिथिला और शास्त्रार्थ की परम्परा बहुत प्राचीन है । मिथिला नरेश जनक जिन्हें विदेह भी कहा जाता है के दरबार ऐसे ज्ञानियों से भरे पड़े रहते थे जो दर्शन के विविध आयामों पर नियमित विचार विमर्श करते थे । उन्हीं में से एक महान तत्वज्ञ अष्टावक्र भी थे ।

महान शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने वाले आचार्य मण्डन मिश्र भी मिथिला के ही थे। इस जगत प्रसिद्ध शास्त्रार्थ की निर्णायक , आचार्य मण्डन मिश्र की पत्नी आचार्या भारती थी । 5 माह 17 दिन तक चले इस शास्त्रार्थ में अंतिम 21 दिन का शास्रार्थ भारती से हुआ था । इस शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र ने शंकर के सिद्धांतों के आगे हार मान ली । तब भारती ने कहा था,
" आचार्य आप शंकर के मतों का खण्डन नहीं कर पाये । अब आप दंड धारण कर संन्यास ग्रहण करें ।"

भारती तथा शंकराचार्य के बीच संपन्न हुआ शास्त्रार्थ भी ऐतिहासिक था. दोनों के बीच यह शाश्त्रार्थ भी २१ दिन चला, परन्तु 21वें दिन जब भारती को लगा कि अब उसकी पराजय निश्चित है' तब उन्होंने शंकराचार्य से कहा: अब मैं आपसे अंतिम प्रश्न पूछती हूं और इस प्रश्न का भी उत्तर यदि आपने दे दिया तो हम अपने आपको विद्वता में आपसे पराजित मान लूंगी और आपका शिष्यत्व भी स्वीकार कर लूंगी। शंकराचार्य ने प्रश्न पूछने की अनुमति दे दी.
भारती ने शंकराचार्य पूछा:
सम्भोग क्या है ? यह कैसे किया जाता है ? और इससे संतान का निर्माण किस प्रकार हो जाता है ?
भारती के मुख से इन शब्दों को सुनते ही शंकराचार्य प्रश्न की गहरायी समझ गये। यदि वे इसी हालत में और इसी शरीर से भारती के प्रश्न का उत्तर देते हैं तो उनका संन्यास धर्म खन्डित हो जाता। क्योंकि संन्यासी को, बाल बृह्मचारी को संभोग का ज्ञान होना सम्भव ही नहीं है. अतः संन्यास धर्म की रक्षा करने के लिये उत्तर देना सम्भव ही नहीं था और उचित भी नहीं। आदि शंकराचार्य की हार तय थी। लिहाजा दोनों ही तरफ़ से नुकसान था । शंकराचार्य कुछ काल मौन रहे फिर उन्होंने कहा: क्या इस प्रश्न का उत्तर अध्ययन और सुने गये विवरण के आधार पर दे सकता हूं? या इसका उत्तर तभी प्रमाणिक माना जायेगा जबकि उत्तर देने वाला इस प्रक्रिया से व्यवहारिक रूप से गुजर चुका हो।
भारती ने कहा: व्यावहारिक ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है यदि आपने इसका व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त किया है तो आप निसंदेह उत्तर दे सकते हैं । आदि शंकराचार्य जन्म से ही संन्यासी थे। अतः उनके जीवन में कामकला का व्यावहारिक ज्ञान संन्यास धर्म के सर्वथा विपरीत था। अतः उन्होंने उस वक्त पराजय स्वीकार करते हुये कहा कि मैं इसका उत्तर 6 महीने बाद दूंगा और शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी से छ्ह माह का समय माँगा।
पर अंततः शंकराचार्य विजयी हुये । यह शंकर की दिग्विजय थी ।

दरभंगा नरेश ने आधुनिक काल में संस्कृत के लिये बहुत कुछ किया है । पहला संस्कृत विश्वविद्यालय उन्होंने ने ही खोला था । उन्होंने अपना महल और समृद्ध संग्रहालय जिसमें एक बड़ा ग्रन्थागार भी था, संस्कृत के लिये दान दे दिया । सबसे प्रसिद्ध संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय है । यह मूलतः एक संस्कृत कॉलेज था जिसे अंग्रेजों ने स्थापित किया था, जो बाद में जब डॉ संपूर्णानंद के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के बाद विश्वविद्यालय बन गया । अब इसका नाम बदल कर डॉ समूर्णानन्द के नाम पर रखा गया है । यह एक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय है , जो भारत के अतिरिक्त दुनिया के अन्य देशों में भी संस्कृत में प्रमाण पत्र तथा डिग्रियां देता है।

नीचे भैरव लाल दास का लेख प्रस्तुत है ---
'स्वत:प्रमाणं परत:प्रमाणं कीरांगना यत्र गिरागिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर-सन्निरुद्धा जानीहि तन्मंडन पण्डितौक:॥''

आज (18 अगस्‍त) संस्‍कृत दिवस है
संस्‍कृत के इस श्‍लोक का उच्‍चारण सुनते ही हमारे मिथिला के पण्डितों के ऑंखों की चमक देखते ही बनती है। तुरंत ही मण्‍डन मिश्र और शंकराचार्य प्रकरण को दुहराने लगते हैं। ऐसा वर्णन करेंगे जैसे शास्‍त्रार्थ के समय 'टिप्‍पणी' लिखने का भार उन्‍हें ही दिया गया हो। मिथिला के गौरव के साथ सबको जोड़ने लगते हैं। प्रकरण तब का है जब शंकराचार्य मिथिला आए, मण्‍डन मिश्र के गांव तक पहुँचे। कुऍं पर पानी भर रही पनभरिनी से पूछा कि मण्‍डन मिश्र का घर कौन सा है। पनिभरिनी ने जवाब दिया-स्‍वत: प्रमाणं परत: प्रमाणं..... लम्‍बा श्‍लोक। अर्थ यह कि जिसके घर के आगे सुग्‍गे संस्‍कृत में उच्‍चारण करते हों, वही मण्‍डन मिश्र का घर है। शंकराचार्य बेसुध हो गए। जिस गांव की पनभरिनी संस्‍कृत बोलती हों, सुग्‍गे भी संस्‍कृत बोलते हों, मण्‍डन मिश्र कैसे होंगे। कहानी आगे भी है। लेकिन संदर्भ यह है कि आज, 18 अगस्‍त को संस्‍कृत दिवस है। पूरे मिथिला में या फिर पूरे बिहार में संस्‍कृत अध्‍ययन-अध्‍यापन की स्थिति अभी बहुत ही गंभीर है। मैं यह नहीं कहता कि संस्‍कृत के विद्वान नहीं हैं, प्राध्‍यापक नहीं है, अनुवादक नहीं हैं लेकिन उनका जुड़ाव आम छात्र से तो बिलकुल ही नहीं है। पटना के तारामंडल के सामने पुणे की संस्‍था वेद-पाठ का आश्रम संचालित करती है, लेकिन पूरे पटना में एक भी ऐसा केन्‍द्र नहीं है जहां संस्‍कृत का सामान्‍य अध्‍ययन किया जा सके। काजीपुर, मन्दिरी आदि जगहों पर अवस्थित पुराने संस्‍कृत पाठशालाओं की स्थिति भी अच्‍छी नहीं है। पटना में रखे ऐसे सैकड़ों संस्‍कृत पाण्‍डुलिपियों की सूची मैंने बनाई है जिनका अनुवाद आज तक नहीं हो सका है। संस्‍कृत देवभाषा है, चार-पांच सौ सालों तक अखंड भारतवर्ष की राजभाषा संस्‍कृत ही रही है। यों तो गुप्‍त काल के बाद ही भारत में केन्‍द्रीय शासन का अंत हो गया लेकिन मुस्लिम एवं औपनिवेशिक शासन में संस्‍कृत भाषा को नाश करने का पूरा-पूरा प्रयत्‍न किया गया। रही सही कसर बाद के समाजवादियों ने कर दी। परोक्ष तौर पर इन नव राजनीतिज्ञों को ब्राह्मण एवं ब्राह्मण व्‍यवस्‍था का विरोध था लेकिन इन लोगों ने संस्‍कृत का विरोध भी जमकर किया। प्रथम एवं द्वितीय संस्‍कृत आयोग के प्रतिवेदनों को पढ़ने से ऐसा लगता है कि संस्‍कृत का प्रचार-प्रसार अब आरंभ ही होनेवाला है लेकिन व्‍यवहार में ऐसा कुछ होनेवाला नहीं है। बिहार में संस्‍कृत (ओरिएंटल) अध्‍ययन के लिए दरभंगा महाराजा ने अपना महल तक दान में दे दिया, अपना पूरा संग्रहालय दे दिया, पाण्‍डुलिपियां दे दीं, उसी विश्‍वविद्यालय के पूर्व कुलपति गबन के आरोप में पुलिस गिरफ्त में हैं। संतोष की बात है कि अब कोई शंकराचार्य बिहार नहीं आएंगे। यहां अब कोई मण्‍डन मिश्र नहीं हैं। यहां के सुग्‍गे और पनिभरिनी संस्‍कृत नहीं बोलती हैं। यहां संस्‍कृत विश्‍वविद्यालय हैं, महाविद्यालय हैं लेकिन यहां संस्‍कृत पढ़ाई नहीं होती है। विद्वानों को बहुत सारे कार्य हैं। फिर भी हम संस्‍कृत दिवस की चर्चा करते हैं। अभी इतना ही।
साभार – भैरव लाल दास ।

अक्सर संस्कृत को एक मृत भाषा कहा जाता है । यह कहने का आधार यह है कि यह बोलचाल में नहीं है । देश की भाषा समस्या पर विचार करते हुए डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था, कि
" देश की विडंबना है कि, देश में सदैव भाषाओं के दो स्तर रहे हैं । एक राज भाषा और दुसरी जन भाषा । जब संस्कृत राज भाषा थी तो , पालि और प्राकृत जन भाषा रही , मध्यकाल में जब फारसी राज भाषा बनी तो हिंदवी जन भाषा रही । ( इसमें आप क्षेत्रीय भाषायें भी जोड़ सकते हैं । ) अंग्रेज़ी जब राजभाषा हुयी तो हिंदी जन भाषा ही बनी रही । "
यहां राज भाषा का अर्थ संविधान में वर्णित राजभाषा से नहीं है बल्कि सरकार की भाषा से है । आज भी जो हिंदी सरकारी कागजों में लिखी जाती है वह आम जन में बोली नहीं जाती है ।

संस्कृत कोई धार्मिक भाषा नहीं है। कोई भाषा धार्मिक भाषा नहीं होती है । धर्म ज़रूर उस भाषा के माध्यम से जन तक पहुंचता है । संस्कृत साहित्य , साहित्य के सभी विधाओं में प्रचुर और समृद्ध है । वाल्मीकि और व्यास जैसे पुरा विद्वानों को अगर छोड़ भी दें तो कालिदास, भास्, मम्मट, कल्हण, शूद्रक आदि नाम किसी भी भाषा के साहित्य के नामों से कमतर नहीं है । यह अलग बात है कि हम इसी भ्रम में जी रहे हैं कि यह भाषा पंडो और पुजारियों की ही भाषा है । यह भाषा, अपनी संप्रेषणीयता, भाव वहन क्षमता, ऊर्जस्विता में दुनिया की श्रेष्टतम भाषाओं में से एक है । आज देश में 16 संस्कृत विश्वविद्यालय और भारत सरकार की संस्कृत अकादमी सहित अनेक राज्यों में संस्कृत अकादमियां भी है । यह सभी संस्कृत के उन्नयन और विकास हेतु तत्पर हैं ।
संस्कृत दिवस की शुभकामनायें !!

( विजय शंकर सिंह )

No comments:

Post a Comment