Tuesday 20 June 2017

एक कविता - तुमने कहा था ! / विजय शंकर सिंह

तुमने कहा था,
एक कविता लिखो
मैंने तुम्हारी आँखों में झाँका,
दूर तक फैला,
स्पंदित सागर दिखा,
देखता ही रहा, अनंत तक,
क्षितिज के पार कुछ भी न दिखा ।

फिर देखे कुंतल मैंने,
घना अरण्य ,
राह खोजे तो
खोजते ही रह जाय कोई,
भटकता ही रहे अहर्निश
न थके , न ऊबे !

उत्सुक आँखें
टिकी कपोलों पर,
संधि काल की दिव्य लालिमा,
दृष्टि टिकती भी कहाँ ,
पहाड़ों से उतरती हुयी,
उदय और अस्त होते हुए,
मिहिर के आलोक के समक्ष !

एक अदद कागज़,
और हाँथ में कलम थामे,
ढूंढ रहा हूँ, शब्द दर शब्द,
भटकता हूँ,
प्रतीकों की खोज में,
गढ़ता हूँ ढेर सारे विम्ब !

इन विम्बों से सजाता हूँ ,
कविता का एक संसार,
पर जब उन्हें तौलता हूँ,
सागर की शांत लहरों,
दिव्य अरण्य
उदय और अस्त होती आभा से,
तो शब्दों प्रतीकों
और विम्बों की खोज में फिर
खो जाता हूँ !
तुम्ही ने तो कहा था ,
एक कविता लिखो !!

© विजय शंकर सिंह
    20 जून 2017.

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