Wednesday 24 May 2017

मेजर गोगोई , उनसे जुड़ा प्रकरण और उनकी प्रेस कॉन्फरेंस - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

मेजर गोगोई वही सैन्य अधिकारी है जो एक कश्मीरी युवक को जीप पर आगे ढाल की तरह बाँध और बिठा कर , एक उपद्रवग्रस्त गांव से खुद और अपने साथियों को बचा कर निकाल लाने के लिए सुर्ख़ियों में कुछ दिनों पहले रहे हैं । उनके इस कदम की निंदा भी हुयी और प्रशंसा भी । कुछ लोगों ने इसे मानवाधिकार हनन का मामला माना तो कुछ ने इसे पाकिस्तान को करारा जवाब तो कुछ ने इसमें हिन्दू मुस्लिम एंगल भी ढूंढ निकाला । पर मेरी नज़र में यह एक सैन्य अधिकारी द्वारा प्रत्युत्पन्नमति का एक प्रदर्शन था । जिन लोगों ने कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी होगी वे इसकी कल्पना भी नहीं कर पाएंगे । मैंने खुद भी इतने शत्रुतापूर्ण वातावरण में काम नहीं किया है । पुलिस  में भी ऐसे शत्रुतापूर्ण मामले सामने आते हैं , पर उस माहौल में भी कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो पुलिस के साथ खड़े होते हैं । पर सेना सदैव शत्रुतापूर्ण मामलों का ही सामना करती है और वह न केवल इसके लिये प्रशिक्षित होती है बल्कि वह मानसिक रूप से तैयार भी रहती है । मेजर ऐसे ही एक शत्रुता से भरी भीड़ द्वारा घिर गए थे । वे ही उस टुकड़ी के इंचार्ज थे तो यह भी उन्हें ही तय करना था कि वे कैसे कम से कम अपना और नागरिको के जान और माल का नुकसान बचाते हुए उस परिस्थिति से बाहर निकलें । उन्हें यही सूझा कि वे उसी भीड़ में से ही किसी को मानव ढाल की तरह अपने सामने प्रयोग करें और उसी की आड़ ले कर सुरक्षित मय साथियों और लवाजमा सहित बाहर निकल आएं। निश्चित ही भीड़ सेना पर जब पत्थर फेंकती तो उनके ही एक साथी को चोट लगती या उन्हें यह डर था कि उनके ही एक साथी को सेना मार देती अतः मेजर को रास्ता मिल गया और वह बाहर निकले ।

थोडा कल्पना कीजिए उस समय मेजर के पास क्या विकल्प था ?
1. या तो वे पत्थर फेंकने वालों पर गोली चलाते जिस से नागरिक भी हताहत होते और सैनिक भी ।
2. या तो वे चुपचाप और सहायता की प्रतीक्षा में बिल्कुल बचाव की मुद्रा में दुबके रहते ।
3. या वे उन पत्थर फेंकने वालों से बातचीत कर समझाते और फिर सुरक्षित निकलते ।
4. या फिर वे यह रणनीति अपनाते जिसकी हम सब आज अपने ठंडे कमरे में लैपटॉप पर बैठ कर मीन मेख कर रहे हैं ।

पहले विकल्प में जो नागरिक मरते उसका भी दारोमदार मेजर पर ही आता और उनसे कहा जाता कि उन्होंने धैर्य से काम नहीं लिया । कश्मीर के अलगाववादी तत्वों को अपने अवाम से कोई प्यार नहीं है । वे सिर्फ अपने उद्देश्य के लिए उनका उपयोग कर रहे हैं । कश्मीर में अगर मेजर की टुकड़ी द्वारा गोली चलाने से 2 लड़के भी मरे होते तो उसका प्रचार व्यापक होता और कोर्ट ऑफ़ इन्क्वायरी तब भी बैठती । तब शायद मेजर गोबोइ को खुद को निर्दोष साबित करना कठिन होता ।

दूसरा विकल्प मेरी राय में संभव ही नहीं था । अगर बचाव की मुद्रा में रहते तो शायद पत्थर फेंकने वाले और आक्रामक होते और किसी भी समय सैन्य टुकड़ी का धैर्य जवाब दे जाता और हो सकता है और बड़ी जनहानि होती । आखिर सैनिक भी मनुष्य ही है । उनके भी धैर्य  की सीमा है ।

तीसरा विकल्प तो मैंने दिया ज़रूर पर वह भी सम्भव नहीं होता । क्यों कि बातचीत करने में कोई हर्ज़ नहीं है । पर उन्मादित और हिंसक भीड़ से बातचीत नहीं की जाती । बातचीत भी पथराव के माहौल में और सड़क पर नहीं की जाती । फिर यह भी सवाल उठता है कि क्या बात हो और किस से बात की जाय । फिर इस बात की क्या गारंटी कि पत्थर फेंकने वाले लड़के बात मान ही लेंगे । अतः यह विकल्प भी एक कल्पना ही है ।

अब चौथा विकल्प जो मेजर गोगोई के दिमाग में आया उन्होंने उसे अपनाया और बिना जनहानि के सुरक्षित खुद और अपने साथियों को बचा लाये । आप जब भी मेजर गोगोई के इस कृत्य की समीक्षा करें तो उन सारी संभावनाओं का खाका दिमाग में खींचे और तब यह तय करें कि उनका कदम उचित था या अनुचित ।

मानवाधिकार संगठनों की भी एक भूमिका होती है । उन्हें आप नज़रअंदाज़ कर भी दें तो एनएचआरसी को तो बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते । अतः कोई भी निर्णय उनकी भूमिका को ध्यान में रख कर ही लेना पड़ेगा । इसी प्रकरण में,  अगर आप साफ़ सवाल पूंछे कि क्या किसी नागरिक को इस प्रकार जीप की बोनट पर बाँध कर घुमाना क्या उसके नागरिक अधिकारों का हनन नही है ?  उत्तर होगा हाँ है । पर कानून व्यवस्था के मसले इतने आसान नहीं होते । मेरे विभागीय मित्र और मैजिस्ट्रेट साथीगण जो मेरी मित्र सूची में हैं मेरी बात से सहमत होंगे । उन्मादित भीड़ से निपटने के लिए कानून में अपने प्राविधान हैं पर वे एक मोटामोटी गाइडलाइन हैं । मौके पर किस तरह की भीड़ से कैसे निपटना है और क्या करना है यह भी मौके पर ही जो अफसर मौजूद हैं उन्हें ही तय करना है । बस उद्देश्य एक ही रहना चाहिए कि कम से कम जनहानि हो, नागरिकों की भी और फ़ोर्स की भी । इसी लिए गोली चलाने को अंतिम और सर्वविकल्पहीनता की स्थिति में एक विकल्प के रूप में रखा गया है । मुझे सेना के साथ काम करने का न तो अनुभव है और न ही कोई अवसर प्राप्त हुआ है फिर भी अपने प्रशासनिक अनुभव से जो मैं समझ पा रहा हूँ यहां व्यक्त कर रहा हूँ । वैसे भी मेजर गोगोई के इस कृत्य के प्रति आंतरिक जांच चल रही है । जांच के विंदु क्या है यह मुझे नहीं मालुम । जब परिणाम आएगा तो खुद ही सब को पता चल जाएगा । यह प्रतिक्रिया घटना का विवरण नहीं है संभावित परिस्थितियों के आधार पर एक आकलन का प्रयास है ।

मेजर गोगोई की प्रेस कॉन्फरेंस गैर ज़रूरी क़वायद है । उन्होंने क्या किया, क्यों किया, किस लिए किया, उनके ऐसा करने से उन्हें क्या रणनीतिक लाभ मिला यह विभागीय बातें हैं और निश्चित ही उनके सीओ ने उनसे इन सब की कैफियत तलब भी की होगी । पर शायद यह भी पहली ही बार है कि किसी मेजर जैसे कनिष्ठ अफसर ने प्रेस पर आकर अपनी सफाई प्रस्तुत की । वे विस्तार से उन सारी परिस्थितियों का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं और खुद की सफाई पेश कर रहे हैं । निश्चय ही प्रेस वार्ता करने का निर्णय उनका अपना नहीं होगा इसे भी उनके वरिष्ठ अधिकारियों , हो सकता है कि, सेना मुख्यालय के क्लीयरेंस बाद ही यह कदम उठाया गया हो ।

इस प्रेस वार्ता से दो सवाल उठते हैं । सेना मुख्यालय के इस बयान के बाद कि, इस विषय में जांच प्रचलित रहेगी, इस प्रेस कॉन्फरेंस का कोई औचित्य नहीं है । जांच में मेजर गोगोई के कहे तथ्य अगर प्रमाणित नहीं हुए और कश्मीरी युवक को जीप पर बाँध कर घुमाने के आरोप को अंतिम उपलब्ध विकल्प के रूप में सिद्ध करने में वह असफल रहे तो वह दण्डित हो सकते हैं । चूँकि अभी जांच पूरी नहीं हुयी है इस लिए इस प्रकार की प्रेस वार्ता जांच अधिकारी पर मनोवैज्ञानिक दबाव ही डालेगी ।
दूसरा सवाल उठता है, उन्हें सम्मानित किये जाने का । सभी सुरक्षा बलों में त्वरित दंड और त्वरित पुरस्कार का चलन है । इसके लिए विभिन्न तरह के मेडल और सम्मान पत्रों की व्यवस्था भी है । सेनाध्यक्ष अपने अधीनस्थ सभी रैंक्स के अधिकारीयों और जवानों को उनके कृत्यों या दुष्कृत्यों के लिए पुरस्कृत अथवा दण्डित करने के लिए सक्षम हैं । पर इस मामले में उनका यह फैसला आशंकाएं ही जताता है । अगर जांच रिपोर्ट आ गयी हो और उसमे मेजर निर्दोष पाये गए हों तब तो उनके सम्मान पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं उठ सकता है , पर जांच की अवधि में ही यह इनाम दे देना भी जांच पर परोक्ष रूप से मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा ।

सेना भी अपनी उपलब्धियाँ बताती है । उसके पास भी जन संपर्क विभाग होते हैं । पर वे प्रश्नोत्तर सत्र कम ही आयोजित करते हैं । वे एक प्रेस रिलीज़ जारी करते हैं । वे अनुशासित बल के सदस्य होते हैं । उनकी रणनीति गोपनीय होती है और उनके लक्ष्य कम ही सार्वजनिक होते हैं । पर इस मामले में जांच पूरी होने के पहले ही सम्मान और प्रेस वार्ता सैनिक परम्परा के अनुकूल नहीं है । परम्परा से हट कर मेजर गोगोई की प्रेस वार्ता क्या भविष्य में होने वाले सभी ऑपरेशंस में नज़ीर के रूप में दुहरायी जायेगी या यह एक विशेष परिस्थितियों में ही की गयी प्रेस वार्ता है ?

( विजय शंकर सिंह )

Friday 12 May 2017

एक कविता - तुम्ही कोई बात कहो ! / विजय शंकर सिंह

तुम्ही कोई बात कहो
या छेड़ो साज़ कोई
तिमिर के यह पल कटें
सुबह की आस बंधे !

वक़्त कुछ खिसके
पिघले तुषार कुछ
ख्वाब भरे आँखों में,
अफ़साने ही अफ़साने !

आओ इस धुंध में
जब हवा गुमसुम हो,
आकाश हो मेघों भरा,
ढूंढें, एक चाँद आज !

कुछ तो कहीं नूर दिखे
कुछ तो उम्मीद बंधे ,
तुम्ही कोई बात कहो
या छेड़ो साज़ कोई !!

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 11 May 2017

सआदत हसन मंटो की एक कहानी - ठंडा गोश्त / विजय शंकर सिंह

ईश्वरसिंह ज्यों ही होटल के कमरे में दांखिला हुआ, कुलवन्त कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज-तेज आँखों से उसकी तरफ घूरकर देखा और दरवाजे की चिटखनी बन्द कर दी। रात के बारह बज चुके थे। शहर का वातावरण एक अजीब रहस्यमयी खामोशी में गर्क था।

कुलवन्त कौर पलंग पर आलथी-पालथी मारकर बैठ गयी। ईशरसिंह, जो शायद अपने समस्यापूर्ण विचारों के उलझे हुए धागे खोल रहा था, हाथ में किरपान लेकर उस कोने में खड़ा था। कुछ क्षण इसी तरह खामोशी में बीत गये। कुलवन्त कौर को थोड़ी देर के बाद अपना आसन पसन्द न आया और दोनों टाँगें पलंग के नीचे लटकाकर उन्हें हिलाने लगी। ईशरसिंह फिर भी कुछ न बोला।

कुलवन्त कौर भरे-भरे हाथ-पैरों वाली औरत थी। चौड़े-चकले कूल्हे थुल-थुल करने वाले गोश्त से भरपूर। कुछ बहुत ही ज्यादा ऊपर को उठा हुआ सीना,तेज आँखें, ऊपरी होंठ पर सुरमई गुबार, ठोड़ी की बनावट से पता चलता था कि बड़े धड़ल्ले की औरत है।

ईशरसिंह सिर नीचा किये एक कोने में चुपचाप खड़ा था। सिर पर उसके कसकर बाँधी हुई पगड़ी ढीली हो रही थी। उसने हाथ में जो किरपान थामी हुई थी, उसमें थोड़ी-थोड़ी कम्पन थी, उसके आकार-प्रकार और डील-डौल से पता चलता था कि वह कुलवन्त कौर जैसी औरत के लिए सबसे उपयुक्त मर्द है।

कुछ क्षण जब इसी तरह खामोशी में बीत गये तो कुलवन्त कौर छलक पड़ी, लेकिन तेज-तेज आँखों को नचाकर वह सिर्फ इस कदर कह सकी-''ईशरसियाँ!''

ईशरसिंह ने गर्दन उठाकर कुलवन्त कौर की तरफ देखा, मगर उसकी निगाहों की गोलियों की ताब न लाकर मुँह दूसरी तरफ मोड लिया।

कुलवन्त कौर चिल्लायी-''ईशरसिंह!'' लेकिन फौरन ही आवांज भींच ली, पलंग पर से उठकर उसकी तरफ होती हुई बोली-''कहाँ गायब रहे तुम इतने दिन?''

ईशरसिंह ने खुश्क होठों पर जबान फेरी, ''मुझे मालूम नहीं।''

कुलवन्त कौर भन्ना गयी, ''यह भी कोई माइयावाँ जवाब है!''

ईशरसिंह ने किरपान एक तरफ फेंक दी और पलंग पर लेट गया। ऐसा मालूम होता था, वह कई दिनों का बीमार है। कुलवन्त कौर ने पलंग की तरफ देखा, जो अब ईशरसिंह से लबालब भरा था और उसके दिल में हमदर्दी की भावना पैदा हो गयी। चुनांचे उसके माथे पर हाथ रखकर उसने बड़े प्यार से पूछा-''जानी, क्या हुआ तुम्हें?''

ईशरसिंह छत की तरफ देख रहा था। उससे निगाहें हटाकर उसने कुलवन्त कौर ने परिचित चेहरे की टटोलना शुरू किया-''कुलवन्त।''

आवांज में दर्द था। कुलवन्त कौर सारी-की-सारी सिमटकर अपने ऊपरी होंठ में आ गयी, ''हाँ, जानी।'' कहकर वह उसको दाँतों से काटने लगी।

ईशरसिंह ने पगड़ी उतार दी। कुलवन्त कौर की तरफ सहारा लेनेवाली निगाहों से देखा। उसके गोश्त भरे कुल्हे पर जोर से थप्पा मारा और सिर को झटका देकर अपने-आपसे कहा, ''इस कुड़ी दा दिमांग ही खराब है।''

झटके देने से उसके केश खुल गये। कुलवन्त अँगुलियों से उनमें कंघी करने लगी। ऐसा करते हुए उसने बड़े प्यार से पूछा, ''ईशरसियाँ, कहाँ रहे तुम इतने दिन?''

''बुरे की मां के घर।'' ईशरसिंह ने कुलवन्त कौर को घूरकर देखा और फौरन दोनों हाथों से उसके उभरे हुए सीने को मसलने लगा-''कसम वाहे गुरु की,बड़ी जानदार औरत हो!''

कुलवन्त कौर ने एक अदा के साथ ईशरसिंह के हाथ एक तरफ झटक दिये और पूछा, ''तुम्हें मेरी कसम, बताओ कहाँ रहे?-शहर गये थे?''

ईशरसिंह ने एक ही लपेट में अपने बालों का जूड़ा बनाते हुए जवाब दिया, ''नहीं।''

कुलवन्त कौर चिढ़ गयी, ''नहीं, तुम जरूर शहर गये थे-और तुमने बहुत-सा रुपया लूटा है, जो मुझसे छुपा रहे हो।''

''वह अपने बाप का तुख्म न हो, जो तुमसे झूठ बोले।''

कुलवन्त कौर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गयी, लेकिन फौरन ही भड़क उठी, ''लेकिन मेरी समझ में नहीं आता उस रात तुम्हें हुआ क्या?-अच्छे-भले मेरे साथ लेटे थे। मुझे तुमने वे तमाम गहने पहना रखे थे, जो तुम शहर से लूटकर लाए थे। मेरी पप्पियाँ ले रहे थे। पर जाने एकदम तुम्हें क्या हुआ, उठे और कपड़े पहनकर बाहर निकल गये।''

ईशरसिंह का रंग जर्द हो गया। कुलवन्त ने यह तबदीली देखते ही कहा, ''देखा, कैसे रंग पीला पड़ गया ईशरसियाँ, कसम वाहे गुरु की, जरूर कुछ दाल में काला है।''

''तेरी जान कसम, कुछ भी नहीं!''

ईशरसिंह की आवांज बेजान थी। कुलवन्ता कौर का शुबहा और ज्यादा मजबूत हो गया। ऊपरी होंठ भींचकर उसने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा, ''ईशरसियाँ, क्या बात है, तुम वह नहीं हो, जो आज से आठ रोज पहले थे।''

ईशरसिंह एकदम उठ बैठा, जैसे किसी ने उस पर हमला किया था। कुलवन्त कौर को अपने मजबूत बाजुओं में समेटकर उसने पूरी ताकत के साथ झ्रझोड़ना शुरू कर दिया, ''जानी, मैं वहीं हूं-घुट-घुट कर पा जफ्फियाँ, तेरी निकले हड्डाँ दी गर्मी।''

कुलवन्त कौर ने कोई बाधा न दी, लेकिन वह शिकायत करती रही, ''तुम्हें उस रात €या हो गया था?''

''बुरे की मां का वह हो गया था!''

''बताओगे नहीं?''

''कोई बात हो तो बताऊँ।''

''मुझे अपने हाथों से जलाओ, अगर झूठ बोलो।''

ईशरसिंह ने अपने बाजू उसकी गर्दन में डाल दिये और होंठ उसके होंठ पर गड़ा दिए। मूँछों के बाल कुलवन्त कौर के नथूनों में घुसे, तो उसे छींक आ गयी। ईशरसिंह ने अपनी सरदी उतार दी और कुलवन्त कौर को वासनामयी नंजरों से देखकर कहा, ''आओ जानी, एक बाजी ताश की हो जाए।''

कुलवन्त कौर के ऊपरी होंठ पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूंदें फूट आयीं। एक अदा के साथ उसने अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमायीं और कहा, ''चल, दफा हो।''

ईशरसिंह ने उसके भरे हुए कूल्हे पर जोर से चुटकी भरी। कुलवन्त कौर तड़पकर एक तरफ हट गयी, ''न कर ईशरसियाँ, मेरे दर्द होता है!''

ईशरसिंह ने आगे बढ़कर कुलवन्त कौर की ऊपरी होंठ अपने दाँतों तले दबा लिया और कचकचाने लगा। कुलवन्त कौर बिलकुल पिघल गयी। ईशरसिंह ने अपना कुर्ता उतारकर फेंक दिया और कहा, ''तो फिर हो जाए तुरप चाल।''

कुलवन्त कौर का ऊपरी होंठ कँपकँपाने लगा। ईशरसिंह ने दोनों हाथों से कुलवन्त कौर की कमींज का बेरा पकड़ा और जिस तरह बकरे की खाल उतारते हैं, उसी तरह उसको उतारकर एक तरफ रख दिया। फिर उसने घूरकर उसके नंगे बदन को देखा और जोर से उसके बाजू पर चुटकी भरते हुए कहा-''कुलवन्त, कसम वाहे गुरु की! बड़ी करारी औरत हो तुम।''

कुलवन्त कौर अपने बाजू पर उभरते हुए धŽबे को देखने लगी। ''बड़ा जालिम है तू ईशरसियाँ।''

ईशरसिंह अपनी घनी काली मूँछों में मुस्काया, ''होने दे आज जालिम।'' और यह कहकर उसने और जुल्म ढाने शुरू किये। कुलवन्त कौन का ऊपरी होंठ दाँतों तले किचकिचाया, कान की लवों को काटा, उभरे हुए सीने को भँभोडा, भरे हुए कूल्हों पर आवांज पैदा करने वाले चाँटे मारे, गालों के मुंह भर-भरकर बोसे लिये, चूस-चूसकर उसका सीना थूकों से लथेड़ दिया। कुलवन्त कौर तेंज आँच पर चढ़ी हुई हांड़ी की तरह उबलने लगी। लेकिन ईशरसिंह उन तमाम हीलों के बावजूद खुद में हरकत पैदा न कर सका। जितने गुर और जितने दाँव उसे याद थे, सबके-सब उसने पिट जाने वाले पहलवान की तरह इस्तेमाल कर दिये,परन्तु कोई कारगर न हुआ। कुलवन्त कौर के सारे बदन के तार तनकर खुद-ब-खुद बज रहे थे, गैरजरूरी छेड़-छाड़ से तंग आकर कहा, ''ईश्वरसियाँ, काफी फेंट चुका है, अब पत्ता फेंक !''

यह सुनते ही ईशरसिंह के हाथ से जैसे ताश की सारी गड्डी नीचे फिसल गयी। हाँफता हुआ वह कुलवन्त के पहलू में लेट गया और उसके माथे पर सर्द पसीने के लेप होने लगे।

कुलवन्त कौर ने उसे गरमाने की बहुत कोशिश की, मगर नाकाम रही। अब तक सब कुछ मुंह से कहे बगैर होता रहा था, लेकिन जब कुलवन्त कौर के क्रियापेक्षी अंगों को सख्त निराशा हुई तो वह झल्लाकर पलंग से उतर गयी। सामने खूँटी पर चादर पड़ी थी, उसे उतारकर उसने जल्दी-जल्दी ओढ़कर और नथुने फुलाकर बिफरे हुए लहजे में कहा, ''ईशरसियाँ, वह कौन हरामजादी है, जिसके पास तू इतने दिन रहकर आया है और जिसने तुझे निचोड़ डाला है?''

कुलवन्त कौर गुस्से से उबलने लगी, ''मैं पूछती हूं, कौन है वह चड्डो-है वह उल्फती, कौन है वह चोर-पत्ता?''

ईशरसिंह ने थके हुए लहजे में कहा, ''कोई भी नहीं कुलवन्त, कोई भी नहीं।''

कुलवन्त कौर ने अपने उभरे हुए कूल्हों पर हाथ रखकर एक दृढ़ता के साथ कहा-''ईशरसियाँ! मैं आज झूठ-सच जानकर रहूँगी-खा वाहे गुरु जी की कसम-इसकी तह में कोई औरत नहीं?''

ईशरसिंह ने कुछ कहना चाहा, मगर कुलवन्त कौर ने इसकी इजाजत न दी,

''कसम खाने से पहले सोच ले कि मैं भी सरदार निहालसिंह की बेटी हूं तक्का-बोटी कर दूँगी अगर तूने झूठ बोला-ले, अब खा वाहे गुरु जी की कसम-इसकी तह में कोई औरत नहीं?''

ईशरसिंह ने बड़े दु:ख के साथ हाँ में सिर हिलाया। कुलवन्त कौर बिलकुल दीवानी हो गयी। लपककर कोने में से किरपान उठायी। म्यान को केले के छिलके की तरह उतारकर एक तरफ फेंका और ईशरसिंह पर वार कर दिया।

आन-की-आन में लहू के फव्वारे छूट पड़े। कुलवन्त कौर को इससे भी तसल्ली न हुई तो उसने वहशी बिल्लियों की तरह ईशरसिंह के केश नोचने शुरू कर दिये। साथ-ही-साथ वह अपनी नामालूम सौत को मोटी-मोटी गालियाँ देती रही। ईशरसिंह ने थोड़ी देर बाद दुबली आवांज में विनती की, ''जाने दे अब कुलवन्त, जाने दे।''

आवांज में बला का दर्द था। कुलवन्त कौर पीछे हट गयी।

खून ईशरसिंह के गले में उड़-उड़ कर उसकी मूँछों पर गिर रहा था। उसने अपने काँपते होंठ खोले और कुलवन्त कौर की तरफ शुक्रियों और शिकायतों की मिली-जुली निगाहों से देखा।

''मेरी जान, तुमने बहुत जल्दी की-लेकिन जो हुआ, ठीक है।''

कुलवन्त कौर कीर् ईष्या फिर भड़की, ''मगर वह कौन है, तेरी मां?''

लहू ईशरसिंह की जबान तक पहुँच गया। जब उसने उसका स्वाद चखा तो उसके बदले में झुरझुरी-सी दौड़ गयी।

''और मैं...और मैं भेनी या छ: आदमियों को कत्ल कर चुका हूं-इसी किरपान से।''

कुलवन्त कौर के दिमाग में दूसरी औरत थी-''मैं पूछती हूं कौन है वह हरामजादी?''

ईशरसिंह की आँखें धुँधला रही थीं। एक हल्की-सी चमक उनमें पैदा हुई और उसने कुलवन्त कौर से कहा, ''गाली न दे उस भड़वी को।''

कुलवन्त कौर चिल्लायी, ''मैं पूछती हूं, वह कौन?''

ईशरसिंह के गले में आवांज रुँध गयी-''बताता हूं,'' कहकर उसने अपनी गर्दन पर हाथ फेरा और उस पर अपनी जीता-जीता खून देखकर मुस्कराया, ''इनसान माइयाँ भी एक अजीब चीज है।''

कुलवन्त कौर उसके जवाब का इन्तजार कर रही थी, ''ईशरसिंह, तू मतलब की बात कर।''

ईशरसिंह की मुस्कराहट उसकी लहू भरी मूँछों में और ज्यादा फैल गयी, ''मतलब ही की बात कर रहा हूं-गला चिरा हुआ है माइयाँ मेरा-अब धीरे-धीरे ही सारी बात बताऊँगा।''

और जब वह बताने लगा तो उसके माथे पर ठंडे पसीने के लेप होने लगे, ''कुलवन्त ! मेरी जान-मैं तुम्हें नहीं बता सकता, मेरे साथ क्या हुआ?-इनसान कुड़िया भी एक अजीब चीज है-शहर में लूट मची तो सबकी तरह मैंने भी इसमें हिस्सा लिया-गहने-पाते और रुपये-पैसे जो भी हाथ लगे, वे मैंने तुम्हें दे दिये-लेकिन एक बात तुम्हें न बतायी?''

ईशरसिंह ने घाव में दर्द महसूस किया और कराहने लगा। कुलवन्त कौन ने उसकी तरफ तवज्जह न दी और बड़ी बेरहमी से पूछा, ''कौन-सी बात?''ईशरसिंह ने मूँछों पर जमे हुए जरिए उड़ाते हुए कहा, ''जिस मकान पर...मैंने धावा बोला था...उसमें सात...उसमें सात आदमी थे-छ: मैंने कत्ल कर दिये...इसी किरपान से, जिससे तूने मुझे...छोड़ इसे...सुन...एक लड़की थी, बहुत ही सुन्दर, उसको उठाकर मैं अपने साथ ले आया।''

कुलवन्त कौर खामोश सुनती रही। ईशरसिंह ने एक बार फिर फूँक मारकर मूँछों पर से लहू उड़ाया-कुलवन्ती जानी, मैं तुमसे क्या कहूँ, कितनी सुन्दर थी-मैं उसे भी मार डालता, पर मैंने कहा, ''नहीं ईशरसियाँ, कुलवन्त कौर ते हर रोज मजे लेता है, यह मेवा भी चखकर देख!''

कुलवन्त कौर ने सिर्फ इस कदर कहा, ''हूं।''

''और मैं उसे कन्धे पर डालकर चला दिया...रास्ते में...क़्या कह रहा था मैं...हाँ, रास्ते में...नहर की पटरी के पास, थूहड़ की झाड़ियों तले मैंने उसे लिटा दिया-पहले सोचा कि फेंटूँ, फिर खयाल आया कि नहीं...'' यह कहते-कहते ईशरसिंह की जबान सूख गयी।

कुलवन्त ने थूक निकलकर हलक तर किया और पूछा, ''फिर क्या हुआ?''

ईशरसिंह के हलक से मुश्किल से ये शब्द निकले, ''मैंने...मैंने पत्ता फेंका...लेकिन...लेकिन...।''

उसकी आवांज डूब गयी।

कुलवन्त कौर ने उसे झिंझोड़ा, ''फिर क्या हुआ?''

ईशरसिंह ने अपनी बन्द होती आँखें खोलीं और कुलवन्त कौर के जिस्म की तरफ देखा, जिसकी बोटी-बोटी थिरक रही थी-''वह...वह मरी हुई थी...लाश थी...बिलकुल ठंडा गोश्त...जानी, मुझे अपना हाथ दे...!''

कुलवन्त कौर ने अपना हाथ ईशरसिंह के हाथ पर रखा जो बर्फ से भी ज्यादा ठंडा था।
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सआदत हसन मंटो ( 11 मई 1912 - 18 जनवरी 1955 ) -
आज 11 मई है और आज उर्दू के मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो का जन्म दिन है । अगर भारत विभाजन का त्रासद और बीभत्स विवेकहीन हिंसक आयाम देखना है तो आप इस कहानीकार की कहानियां पढ़ें । जैसा घट रहा था, जैसा दिख रहा था , जैसा मन्टो के संवेदनशील मन ने महसूस किया वैसा ही पन्नों पर उतार दिया । कभी कभी अश्लील भी लग सकता है । पर साहित्य में अश्लीलता का आरोप कभी कभी यथार्थ से भागने का एक बहाना भी होता हैं। मैंने सबसे पहले उनकी कहानी पढी टोबा टेक सिंह और फिर तो मुझ पर  उनकी हर कहानी पढ़ने की दीवानगी छा गयी । उनकी सभी कहानियों का संग्रह जो दो भागों में मंटों की कहानियां शीर्षक से छपा है पढ़ डाला । कहानियां सिर्फ भारत विभाजन पर ही नहीं है , उन सारी परिस्थितियों पर भी है जो लेखक ने भोगा है । मन्टो का जन्म लुधियाना में आज ही के दिन हुआ था । विभाजन के पहले ही उनका परिवार लाहौर चला गया था या बंटवारे के बाद गया यह तो मैं नहीं बता पाउँगा पर वे बंटवारे  के बाद पाकिस्तान में ही थे और वहीँ उनका निधन हुआ । मंटो 1912 में जन्मे और 18 जनवरी 1955 में 42 साल की उम्र में दिवंगत हो गए । कभी कभी मुझे लगता है प्रतिभा और आयु में भी हल्का फुल्का बैर है । कुछ प्रतिभाएं अकाल ही यहां से रुखसत हो जाती हैं । मंटो को भी मैं उसी श्रेणी में रखता हूँ ।

मुम्बई या तब की बम्बई या अंग्रेजों की बॉमबे मंटो की कर्मभूमि रही है । बम्बई फ़िल्मी 1913 में दादा साहब फाल्के के राजा हरिश्चंद्र फ़िल्म जिसे भारतीय सिनेमा की पहली फ़िल्म माना जाता है के परदे पर आने के बाद देश की फ़िल्म कला का केंद्र बन चुकी थी । हिंदी उर्दू के अनेक नामचीन हस्ताक्षर वहाँ अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के लिए जा रहे थे । हिंदी के महानतम कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द , प्रसिद्ध उपन्यास कार अमृतलाल नागर, उर्दू के कृष्ण चन्दर, ख्वाज़ा अहमद अब्बास ,और मंटो भी उसी परम्परा में मुम्बई पहुंचे । साहित्य का वह प्रगतिवादी काल था । उर्दू में इसे तरक़्क़ीपसंद कहते हैं । ऐसे लेखकों के संगठन भी अस्तित्व में आ गए थे और खूब सक्रिय भी थे । मंटो भी इनसे जुड़े । पर मुझे लगता है किसी खेमे में बंध कर जीने वाले जीव वह नहीं थे । उनका लेखन जस देखा तस छापा की तरह रहा । उनकी प्रारंभिक रचनाएं निश्चित रूप से समाजवादी सोच और विचारों से प्रभावित थी पर बाद की रचनाएं समाज के उस अन्धकार के अंदर घुसती प्रतीत होती हैं, जहाँ हम अमुमन झांकना नहीं चाहते हैं । उन्होंने समाज की विकृतियों को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ देखा और उसे अपनी रचनाओं में उतारा । एक नज़र में कुछ रचनाएं जुगुप्सा जगाएंगी पर हम अक्सर समाज की उन जुगुप्सा जगाने वाली बातों से नज़र भी चुरा लेते हैं । पर यथार्थ तो यथार्थ है । आदर्श कभी कभी एक नकली खोल डाले भी रहता है । मंटो ने उसी खोल को उधेड़ कर कहीं न कहीं अपनी रचनाओं में दिखा दिया है ।

( विजय शंकर सिंह )