Saturday 18 March 2017

Ghalib - Aalam gubaar e wahshat e majnu / आलम गुबार ए वहशत ए मजनू - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 43.
आलम गुबार ए वहशत ए मजनू है सर ब सर,
कब तक ख़याल ए तुर्रा ए लैला करे कोई !!

आलम गुबार ए वहशत - संसार एक रेत से भरा मैदान है.
तुर्रा                           - अलकों, केश राशि, ज़ुल्फ़ें, बाल.

Aalam ghubaar e wahashat e majanoon hai sar ba sar,
Kab tak khayaal e turraa e lailaa kare koi !!
- Ghalib.

" पूरा संसार, तो रेत से भरा एक मैदान है , मरुभूमि है. इस मरुभूमि में मजनू,  लैला की अलकें, जो नदी की लहरों की तरह हैं की कल्पना भला कैसे कर सकता है . "

उर्दू साहित्य का पद्य भाग विशेषकर शेर और ग़ज़लें ग़म के किस्सों से भरी पडी हैं यह दुखवाद ही इसका मूल है. ऐसा नहीं है कि और भावों की अभिव्यक्ति नहीं हो पायी है. पर हर शेर में ग़म ही माध्यम रहा है अपनी बात कहने का. यह निवृत्ति मार्ग है संभवतः. ग़म के ही प्रतीक चुने गए हैं. यहां भी संसार की निस्सारता का ही उल्लेख है.पूरा संसार ही सूखी रेत का मैदान है.न तो कोई हरियाली है, और न ही जीवन जीने के लिए कोई उत्साह.मजनू यहाँ प्रतीक है, जीव का. वह इस रेत के सागर में भटक रहा है , और उसे तलाश लक्ष्य की है. लक्ष्य लैला है. लैला की विपुल केश राशि जल धारा के समान, राहत देने वाली जीवनदायिनी है.  पर ज़िंदगी के इस सहरा में, लैला की चाह ही एक भ्रम है. और इस निस्सार संसार में कोई कब तक झूठे सुख की आशा में भटकेगा.

ग़ालिब का यह शेर बहुत गूढ़ अर्थ समेटे हैं. मैंने अपने विवेक से इसे समझने और आप के समक्ष रखने का प्रयास किया है. आप इस गूढता का और भी भाष्य कर सकते हैं.

( विजय शंकर सिंह )

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