Wednesday 15 March 2017

एक कविता - अग्रसर / विजय शंकर सिंह

तेरी घृणा की काँटों भरी राह से भी मैं,
चुन लूंगा, प्रेम के किसलय ।
उन छोटे छोटे पर चमकते धवल और निष्पाप पुष्पों को,
सहेज कर अपनी अंजुरी में,
धीरे धीरे ही सही,
बढ़ता रहूँगा, अपने मंज़िल की ओर ।
तेरी घृणा , तुझे ही जलायेगी,
दावानल की दहकती अग्नि की तरह ।

मैं , प्रेम के उन्ही नन्हे पुष्पों की ,
सुगंध समेटे, तेरी घृणा का हर पथ पार करूँगा.
तुम अपनी घृणा के अंगारों में ,
रौरव की तरह सुलगते रहोगे ।
तुम अपनी दहकायी आग में घिरे,
खुद ही राख में बदल जाओगे ।
तुमसे अन्यमनस्क बना मैं, 
अपने पथ पर निर्विकार, अग्रसर रहूँगा !!

( विजय शंकर सिंह )

No comments:

Post a Comment