Saturday 4 March 2017

सुकांत भट्टाचार्य की एकं कविता - सीढ़ियाँ / विजय शंकर सिंह

हम सीढ़ियाँ हैं
रोज़ हमें रौंदते हुए
तुम चढ़ते हो ऊँचाइयों की ओर
और पलट कर देखते भी नहीं पीछे
हमारी रोज़-रोज़ लहूलुहान होती छातियाँ
बिछी हुई तुम्हारे पैरों के नीचे ।

पता है तुमको भी
तभी तो कालीनों में छुपा कर
रखना चाहते हो हमारे सीनों के जख़्म
पर्दा डालना चाहते हो अपने ज़ुल्मों के निशान पर
और पहुँचने नहीं देना चाहते हो दुनिया के कानों तक
अपने गर्वीले पैरों की जुल्म ढाती आहटों को ।

लेकिन हम जानते हैं
इस दुनिया से हमेशा के लिए छुपा नहीं रहेगा
हमारी देह पर तुम्हारे पैरों का आघात ।

बादशाह हुमायूँ की तरह
एक दिन फिसलेंगे तुम्हारे भी पैर ।

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सुकांत भट्टाचार्य ( 15 अगस्त 1926 से 23 मई 1947 ) बांग्ला भाषा के एक प्रसिद्ध कवि और नाटककार थे । बांग्ला भाषा में उनका नाम गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर और क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के बाद लिया जाता है । वे बहुत अधिक नहीं जी पाये । नियति ने उन्हें जल्दी उठा लिया । यह कविता उनके संग्रह छाड़पत्र से ली गयी है । इस कविता का अनुवाद हिंदी में पारपत्र के नाम से हुआ है । इसके अतिरिक्त पुरोभाष और ग़ुम नेई दो और रचनाएं हैं । इनकी कविताएं इनकी मृत्यु के बाद अधिक प्रकाशित हुयी और तभी ये लोकप्रिय भी हुए । वे विद्रोही कवि थे । जनवाद उनका प्रेरणा श्रोत था । पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्य मंत्री और सीपीएम नेता बुद्धदेव भटाचार्य इनके भतीजे हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

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