Sunday 26 February 2017

एक कविता - रात ढल रही है / विजय शंकर सिंह

सुबह तो है,
सूरज भी कहीं होगा,
कुहरे में लिपटे ये पेंड, पौधे आकाश,
सब रोक रहे हैं राह,
मेरे पास बने रहो तुम !

तुम्हारे साथ, और तुम्हारे अवलंब से,
मुझे दरिया के पार जाना है.
दरिया पर बना हुआ लकड़ी का पुल,
देखो सोया पड़ा है,
कुहरे की चादर ओढ़े.
उस पार एक और दुनिया है !

सूरज, चाँद, तारे सभी तो हैं उस पार.
कदम से कदम मिला कर,
थामे हुए हाँथ,
आओ पुल तक चलें,
यह कुहरा पार करना है अब,
सूरज जब दिखे तब दिखे,
पर उसका इंतज़ार नहीं है अब.
आओ चलो अब,
रात ढल रही है !!

© विजय शंकर सिंह

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