Tuesday 20 December 2016

तुर्की में रूसी राजदूत की हत्या - कहीं इतिहास खुद को ही न दुहरा दे / विजय शंकर सिंह

1914 का प्रथम विश्वयुद्ध भले ही अचानक न भड़का हो, पर उसे भड़कने का एक तात्कालिक कारण भी था।  यह कारण था, आर्कड्यूक फ्रांसिस फर्डिनेंड की एक सर्बियाई अलगाववादी गुट के सदस्य ने हत्या कर दी । तब का यूरोप आज के यूरोप जैसा नहीं था, थोडा अलग था । जो राष्ट्र तब थे वे अब नहीं हैं और उनकी सीमाएं भी दो दो महायुद्धों के कारण मचे भारी उथल पुथल की वजह से बदल गयीं । आस्ट्रिया - हंगरी सर्बियन स्लाव अलगाववादी गुटों से संघर्षरत था, और वह उनका खात्मा करना चाहता था । लेकिन रूस जो उस समय जार के अधीन था और तब तक वहाँ बोल्शेविक क्रांति सफल नहीं हो पायी थी, लेकिन क्रान्ति की प्रतिध्वनि मुखरता से सुनायी दे रही थी, उस समय सर्बिया के साथ हो गया था । रूस भी स्लाव राज्य था और वह सर्बिया के लिए स्वायत्त शासन चाहता था । आस्ट्रिया - हंगरी , इस स्वायत्तता के विरुद्ध थे । वह अलगाववादी गुटों से इसी हेतु संघर्षरत था। 

बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण कर यूरोप में  उसे एक बड़ा और मज़बूत राष्ट्र बना दिया था । जर्मनी के सम्बन्ध ऑस्ट्रिया से बहुत मज़बूत थे । लेकिन वह एक तरफ से रूस से घिरा हुआ था । रूस और आस्ट्रिया का विवाद जब सर्बिया की स्वायत्तता को लेकर हुआ तो जर्मनी के सम्बन्ध रूस से बिगड़ गए थे । जर्मनी , पूर्व में रूस से, पश्चिम में फ्रांस और उत्तर में सागर पार ब्रिटेन से घिरा हुआ था । जर्मनी से फ़्रांस के सम्बन्ध भी ठीक नहीं थे । वह भी जर्मनी की ओर से सशंकित रहता था । फ़्रांस की संधि रूस के साथ थी और उस संधि का कारण जर्मनी का विरोध था। जब आर्कड्युक् की हत्या सर्बिया अलगाववादी गुट के सदस्य ने कर दी , और रूस सर्बिया के साथ था ही, तो जर्मनी ने तत्काल रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । अब रूस के साथ फ़्रांस हो गया क्यों कि दोनों ही जर्मनी के विरुद्ध थे, जर्मनी की आक्रामकता से आतंकित भी थे । फ़्रांस की रूस से संधि भी थी । ब्रिटेन का कोई भी हित न रूस से था और न ही फ्रांस से । बल्कि फ्रांस से ब्रिटेन की मनोवैज्ञानिक दूरी ही थी जो बहुत पहले से थीं । लेकिन ब्रिटेन जिसके पास दुनिया भर में उपनिवेश फैले हुए थे , ( भारत भी उसका एक उपनिवेश ही था ) जर्मनी की बढ़ती ताक़त से सशंकित हो गया और उसे यह आशंका हो गयी कि, अगर जर्मनी रूस और फ्रांस को पराजित कर देता है तो उसकी ताक़त बहुत बढ़ जायेगी, और फिर उसका निशाना सीधे ब्रिटेन ही होगा । जर्मनी को तोड़ने के लिए ब्रिटेन ने रूस और फ्रांस का साथ दिया और इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के मंच पर एक तरफ रूस, फ्रांस और ब्रिटेन हो गये और दुसरी तरफ जर्मनी और आस्ट्रिया - हंगरी हो गए ।

तुर्की में खिलाफत थी । खलीफा इस्लाम में धर्म और राज्य दोनों का प्रमुख होता है । इस्लाम में धर्म और राज्य की अवधारणा अलग अलग नहीं है । ओटोमन साम्राज्य जो तुर्की के खलीफा के साम्राज्य को कहते हैं अब कमज़ोर हो गया था । ओटोमन साम्राज्य उस्मान ने 1299 ई में स्थापित किया था । उस्मान जिसे अंग्रेजी में Osman लिखते है के नाम पर यह साम्राज्य ओटोमन साम्राज्य बोला जाने लगा । वैसे ऑटोमन का शाब्दिक अर्थ एक तख़्त या सेटी नुमा फर्नीचर होता है । ऑटोमन साम्राज्य तब तक कमज़ोर होने लगा था । बाद में तो मुस्तफा कमाल पाशा ने इस खिलाफत को ही समाप्त कर इसका आधुनिकीकरण कर दिया । जब जर्मनी ने रूस पर हमला कर दिया तो तुर्की उस युध्द में जर्मनी के साथ और रूस के खिलाफ हो गया । तुर्की और रूस की सीमाएं मिलती है । रूस ने ओटोमन साम्राज्य की कुछ क्षेत्र हथिया लिए थे , जिन्हें दुबारा वापस पाने के लिए उसने रूस के विरुद्ध जर्मनी का साथ दिया और युद्ध का और विस्तार हो गया । उधर अरब भी ऑटोमन साम्राज्य से अलग होने का इच्छुक था । वह तुर्की के खिलाफ और ब्रिटेन के साथ रूस और जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में शामिल हो गया । अरब , यह चाहता था कि अगर तुर्की कमज़ोर पड़ेगा तो दक्षिण के अरब के इलाके जिसे ऑटोमन साम्राज्य में है , को वह मुक्त करा लेगा । आप अंग्रेज़ी फ़िल्म लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया का स्मरण करें । यह फ़िल्म उस समय के उथलनपुथल पर ही बनी है ।

इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध का प्रारम्भ हुआ जो 1919 तक चला । ओरिजिन्स ऑफ़ वर्ल्ड वार नामक पुस्तक के लेखक फे , 1919 में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति को ही द्वीतीय विश्व युद्ध के कारणों की शुरुआत मानते हैं । अब एक तरफ , ब्रिटेन, फ्रांस और रूस और दुसरी तरफ जर्मनी, आस्ट्रिया , और साथ में तुर्की हो गए । मूलतः यह एक यूरोपीय युद्ध था । सारे देश यूरोप के ही थे और उनके आपसी हित भी यूरोप से ही जुड़े थे । लेकिन, पूरी दुनिया में इनके उपनिवेश बिखरे थे । अतः जब मालिक लड़ रहे हों तो गुलाम भला कैसे इस लड़ाई से बच सकते हैं । सभी उपनिवेशों में इस महायुद्ध के लिए सैनिक भर्ती किये गए । भारत में भी गाँव गाँव सैनिक भर्तियां हुयी थी । इस युद्ध के दस्तावेज़, भारतीय सैनिको की अनेक गौरव गाथाओं को समेटे हुए है ।

कल दिनांक 19 दिसम्बर को फिर एक रूसी राजदूत की हत्या आंद्रेई कारलोव की हत्या तुर्की के अंकारा शहर में कर दी गयी है । रूस की तरफ से क्या प्रतिक्रिया होती है यह देखने की बात है । रूस कोई कूटनीतिक मार्ग का अनुसरण करता है या वह युद्ध का विकल्प लेता है, यह कहना जल्दीबाज़ी होगी । लेकिन विश्व कूटनीति में रूचि रखने वालो के दिमाग में निम्न सवाल ज़रूर कौंध रहे होंगे ।
क्या रूस तुर्की पर हमला करेगा ?
क्या अमेरिका और यूरोप, इस हमले के समय तुर्की के बचाव में आएंगे ?
क्या शिया ईरान इस युद्ध में रूस के साथ और सुन्नी अरब तुर्की के पक्ष में और पश्चिमी ताक़तों के साथ खड़े होंगे ?
क्या सुन्नी आतंकी संगठन , आईएसआईएस , जो रूस विरोधी है, अरब के साथ और अरब अमेरिका के साथ होने पर , स्वाभाविक रुप से अमेरिका के साथ खड़ा होगा ?
क्या चीन , रूस के साथ खड़ा होगा ?
चीन के रूस के साथ खड़े होने पर क्या जापान और ताइवान स्वाभाविक रूप से अमेरिका के पक्ष में नहीं जाएगा ?
भारत इस गुत्थी में किधर रहेगा ?
पाकिस्तान धर्म के आधार पर तुर्की का साथ देगा या चीन के साथ खड़ा होगा ?

ये सारे काल्पनिक प्रश्न हैं । पर रसायन शास्त्र में ही क्रियायें और  प्रतिक्रियायें नहीं होती है । बल्कि कूटनीति और राजनीति में भी होती है । यह सारे सवाल तब उठेंगे जब रूस युद्ध का विकल्प चुनेगा । पुतिन की जैसी आक्रामक क्षवि है , उस से युद्ध की सम्भावनाओं से इनकार भी नहीं किया जा सकता है । अगर ऐसा होता है तो यह इतिहास का खुद को सौ साल बाद दुहराना ही कहा जाएगा । अलबर्ट आइंस्टीन का एक साक्षात्कार याद आता है । जब द्वीतीय युद्ध , महाविनाश के बाद समाप्त हो गया तो, एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि
" तीसरा युद्ध अगर हुआ तो वह कितना विनाशकारी होगा ।"
आइंस्टीन गंभीर हो गए, और उन्होंने उत्तर दिया,
" तीसरा युद्ध कितना विनाशकारी होगा, यह तो अभी नहीं बताया जा सकता और चौथा विश्व युद्ग ईंट और पत्थरों से लड़ा जाएगा । "
पत्रकार को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था ।

© विजय शंकर सिंह

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