Saturday 31 December 2016

देखने हम भी गए थे.....पै तमाशा न हुआ - 2016 ई का आखिरी ब्लॉग / विजय शंकर सिंह

आरबीआई ने तोहफा दिया है हम सबको । कल ही उनका फरमान जारी हुआ है । आज तक टीवी वाली एंकर खुश खुश हो कर बता रही थी । कह रही थी , कल से आप एटीएम से 4500 रूपये तक निकाल सकेंगे । क्या फरमान है ! यह एक्स्ट्रा नहीं है , और बोनस भी नहीं । पचास दिन की तपस्या जो हम सब ने क़तारों में खड़े हो कर की है उसका प्रतिफल है । सुना नहीं था, तंज़ उनके । देश बदलने के लिए क़तारों में खड़े रहना पड़ता है । थोडा कष्ट सहना पड़ता है । कुछ को जान देनी पड़ती है । थोडा सब्र करना पड़ता है । लोगों ने किया भी । क़तारों में भी खड़े रहे, कष्ट भी सहा, सब्र भी खूब रखा, और 150 लोगों ने जान भी दे दी । पर देश तो अभी बदला नहीं , हाँ साल ज़रूर बदल गया । अब उनका तोहफा भी आया । बिलकुल इस शेर की तर्ज़ पर,
' दिल की बरबादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या । '
पर जब लोग क़तारों में खड़े हो कर मर रहे थे तो उनकी चिड़िया ने वेदना और संवेदना के एक भी स्वर नहीं उगले । किसी भी मरने वाले के बारे में न तो सरकार ने कुछ कहा, और न ही आरबीआई ने । जिम्मेदारी लेना तो दूर नामोल्लेख तक नहीं किया उनका । उलटे मज़ाक उड़ा उनका, उन्हें  बेईमान कहा गया । संवेदनशीलता का भी काश कोई एप्प होता तो वह भी एक दिन ऐसे ही जारी हो गया होता । आज के घोर कल - युग में हो सकता है साफ्टवेयर कम्पनियां ऐसा एप्प बना रही हों । किसे पता । बस आदेश निर्देश निकलते रहे । कभी आरबीआई के तो कभी सरकार के । सरकार और आरबीआई के बीच की जो स्पष्ट सीमा थी, जिसे संविधान के पाठकों को यह कह कर पढ़ाया जाता है कि आरबीआई एक स्वायत्त संस्थान है, अचानक मिटा दी गयी । सब एक ही में गड्डमड्ड हो गए । दोनों ही अंग एक ही बात पर सहमत थे कि सुबह तुम कुछ कहो, शाम हम कुछ कहें । अज़ीब नशेड़ियों के महकमे इकट्ठे हो गए थे । दै आदेश , दै आदेश ।  एक पर एक । कभी इतना मिलेगा । नहीं नहीं इतना ही देंगे । बाद में लेना यार अभी तो पैसा ही नहीं आया । बीच बीच में बाज़ारू ऑफर भी । जिन्होंने जीवन पर स्वाभिमान से रोटी खायी , जिन्होंने अंतिम समय तक भूखे रह गए और हाँथ नहीं फैलाये उन्हें भी बैंक मैनेजर के सामने अपनी बेटी बेटे की शादी के लिये गिड़गिड़ाते हुए , दस्तावेजों की फोटोकॉपी जमा करते हुए देखा है मैंने । यह गिड़गिड़ाहट किसी ऋण के लिए नहीं थी, और न ही किसी सरकारी अनुदान के लिए थी । यह अनुनय विनय , क्षोभ आक्रोश सब था तो अपने उस धन के लिए जो उसने अपने बेटे बेटी की शादी में खुल कर खर्च करने के , सुरक्षित जान कर बैंक में रखे अपने ही पैसे के लिए थी । पैसा तो सुरक्षित था, और वह इतना सुरक्षित हो गया कि उसकी स्थिति सरकार के हक़ में ही आरक्षित हो गयी । और इसे ही आज तक चैनेल तोहफा बता रहा है ।

योजनाएं कितनी भी अच्छी हों अगर उनका क्रियान्वयन सही तरह से नहीं किया गया है तो, उन योजनाओं का अपेक्षित परिणाम तो छोड़ दीजिये, वह तो मिलता ही नहीं है बल्कि उसके दुष्परिणाम मिलने लगते हैं । इरादा नेक तो होना ही चाहिये पर उन इरादों को ज़मीन में लाने का उपक्रम भी त्रुटि रहित होना चाहिए । एक अच्छा जनरल वह नहीं है जो कुशल रणनीति बना ले बल्कि वह है जो कुशलता पूर्वक उस रणनीति को धरातल पर उतार ले । इतिहास में बहुत से संवेदनशील युद्ध इस लिए हारे गए हैं कि उनके कमांडरों ने सोची समझी रणनीति के अनुसार काम नहीं किया । यही हाल इस नोटबंदी की योजना का होने जा रहा है । हालांकि अभी यह आशंका गलत हो सकती है । पर जैसी खबरें आ रही हैं उनसे उन परिस्थितियों का आकलन किया जा सकता है ।इसे एक साहसिक कदम कहा गया है और प्रधानमंत्री की दृढ इच्छा शक्ति का प्रतीक भी बताया जा रहा है । इसमें गोपनीयता भी बरतनी चाहिए थी और बरती भी गयी । यह खबर लीक की गयी है मैं इसे भी दुष्प्रचार मान लेता हूँ । तो भी इसका जो व्यापक असर बाज़ार पर पड़ेगा उसका आकलन आवश्यक हैं। अर्थ शास्त्र और बाजार मनोविज्ञान की मुझे बहुत अकादमिक जानकारी नहीं है और जो भी जानकारी है वह अखबारों और मित्रों से बातचीत से ही है । पर अपने सरकारी नौकरी के अनुभव के आधार पर इसके क्रियान्वयन में  हुयी खामियों को जो मैं महसूस करता हूँ आप सब से साझा कर रहा हूँ ।

रिज़र्व बैंक ही वह वैधानिक संस्था है जो मुद्रा संबंधी बदलाव के लिए अधिकृत है और यह एक स्वायत्त शासी संस्थान है । देश में कितने नोट किस राशि के हैं इन्हें पता रहता है क्यों की मुद्रा का प्रवाह , स्फीति और संकुचन आदि सभी यह मॉनिटर करते रहते हैं । देश के अंदर 1, 2, 5, 10 , 50, 100, 500 और 1000 रूपये की मुद्राएं और कुछ के सिक्के चलते हैं । जब से महंगाई बढ़ने लगी तब से बड़ी मुद्रा में भुगतान की गति ने उनकी मांग भी बढ़ा दी । 1000 और 500 की नोटें अधिक प्रचलन में आ गयीं । बल्कि 100 और 500 की मुद्रा सबसे अधिक चलन में आने वाली नोट बन गयी । मुद्रा के इस प्रसार में देश में जितनी भी मुद्रा थी, उसमे 84 प्रतिशत मुद्रा 500 और 1000 के नोटों की थी । जब 8 तारीख की मध्य रात्रि से धारक को 500 और 1000 रूपये का भुगतान करने का वचन सरकार ने वापस ले लिया तो, 84 प्रतिशत मुद्रा का शून्य उत्पन्न हो गया । अगर इन बंद मुद्राओं का प्रतिशत 84 के बजाय 16 होता तो थोड़ी समस्या होती पर इतना हाय तौबा नहीं मचता । रिज़र्व बैंक ने अगर इसका आकलन नहीं किया तो यह एक बड़ी प्रोफेशनल भूल है । सरकार के वित्त मंत्रालय को रिज़र्व बैंक द्वारा यह बताना और आगाह करना चाहिए था कि ऐसी समस्या आ सकती है और इसका समाधान भी उन्हें बताना चाहिए था । सरकार का कहना है कि नोटों की छपाई 6 माह से चल रही थी । सरकारे बहुत से काम गुपचुप तरीके से करती रहती हैं और उन्हें विभिन्न कारणों से गोपनीय रखा भी जाता है , और रखा जाना भी चाहिए, पर इसके परिणामो , तद्जन्य समस्याओं और समाधानों के विषय में भी अध्ययन करते रहना भी चाहिए । 84 % की कमी की पूर्ति कैसे होगी ? कितने नोट छपेंगे ? उन्हें दूर दराज तक कैसे पहुंचाया जाएगा ? कैसे यह सुनिश्चित किया जाएगा कि, हर जगह नोट पहुँच जाएँ ? उनकी मॉनिटरिंग कौन और कैसे करेगा ? जो गाड़ियां नोट ले कर जा रही हैं उनकी सुरक्षा कौन करेगा ? इन सब की कार्ययोजना बननी चाहिए । हो सकता है बनी भी हो पर आज इतने ( 52 ) दिन बाद भी अगर लोग परेशान हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि या तो योजना में कमी है या जो योजना बनायी गयी है वह धरातल पर नहीं उतारी गयी है । दोनों ही स्थितियों में जनता सरकार को कोसती है और इसका खामियाज़ा भी सरकार को ही भोगना पड़ता है ।

यह कोई भी नहीं बता रहा है कि
कितना काला धन पकड़ा गया ?
जिनके पास से पकड़ा गया उनके खिलाफ क्या कार्यवाही हुयी ?
क्यों उन्हें 50 50 % की छूट दे कर दंड मुक्त कर दिया गया ।
राजनीतिक दलों की फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए क्या क्या उपाय किये जाएंगे ?
उन्हें क्यों पुराने नोट जमा करने की छूट दी गयी ।
क़तारों में मरने वालों के लिए किसी मुआवज़े की घोषणा क्यों नहीं की गयी ?
न देते मुआवजा तो संवेदना के दो शब्द ही कह दिए होते सरकार ने ?
पर बराबर यही कहा जाता रहा कि नोटों की कोई कमी नहीं है और कैश पर्याप्त है । फिर भी कैश निकालने की हदबंदी हटायी नहीं जा रही है । नोटबंदी से हदबंदी तक का सफर अभी भी हम तय नहीं कर पाये ।

आज प्रधानमंत्री जी का सम्बोधन भी हुआ । बड़ी सरगर्मी थी । न्यूज़ चैनेल काउंटडाउन यूँ दिखा रहे थे जैसे भाषण बोला नहीं जाएगा बल्कि प्रक्षेपित होगा । पर जब कोई कभी कभी ही बोलता है तो वह कुछ सार्थक बोलता है । पर जब कोई रोज़ रोज़ ही खड़ा हो जाएगा बोलने के लिए तो क्या बोलेगा ! प्रधानमंत्री जी एक मंजे हुए वक्ता है । सम्प्रेषण की उनमे क्षमता है । पर वे सम्प्रेषित करेंगे क्या ? सरकार का काम, उपलब्धियां, भावी योजनाएं यही तो ? पर जब योजनाओं के क्रियान्वयन में ही खोट है , योजनाओं के इरादों पर ही संशय है तो वे क्या कहेंगे ? आज उन्होंने जो कहा उस पर मेरे अर्थशास्त्री मित्र अरविन्द वर्मा ने बड़ी ही सधी हुयी त्वरित टिप्पणी की है -
" 1.इतना धन का भण्डार बैंक के पास कभी नहीं आया था बैंक गरीब को ध्यान में रखकर  अपनी योजना बनाएं: महाशय जी क्या ये पैसा बैंक का है ये पैसा आम जनता का हक़ है।
2.किसान क्रेडिट कार्ड रुपे कार्ड से जोड़े जाएंगे: महाशय ये घोषणा भी पहले की जा चुकी है
3.गर्भवती महिलाओं के लिए 6 हज़ार रुपये की सहायता: महाशय पूरे भारत में 2000 रूपये दिए जा रहे थे,जिसमें इलाज और टीकाकरण पहले ही मुफ्त था और इसे बढाकर 4000 रु पहले ही किया जा चूका था।
4. वरिष्ठ नागरिक के लिए 10 वर्ष की जमा पर 8% ब्याज फिक्स: महाशय ये योजना है या कुयोजना, 8% ब्याज निम्नतम है कोई अहसान नहीं
5.बाबा साहिब के नाम पर भीम योजना: महाशय भीम का फुल फॉर्म भारत इंटरफ़ेस फ़ॉर मनी है फिर इसमें बाबा साहिब का नाम कहाँ हुआ, भीम तो महाभारत के पात्र भी हैं।
6.गृह निर्माण हेतु बैंक लोन पर 4% तक की छूट दी जायेगी: भाई जी पहले तो इंदिरा आवास योजना के तहत लगभग मुफ्त घर दिए जाते थे, और एफफोर्डब्ले हाउसिंग योजना पहले से ही लागू होगी।
मोदी जी कुछ घोषणाएं यथा ब्याज में छूट,गर्भवती महिलाओं के लिए सहायता राशि बढाने वाली योजना इत्यादि बजट से सम्बंधित हैं जिनके लिए वितीय प्रावधान की जरूरत है जो अगले वित्तिय वर्ष से लागू होंगी, ये शर्मिंदा करने वाला वक्त है जब व्यवस्था को तार तार कर दिया गया है। "
ग़ालिब का एक शेर यहाँ मुझे उपयुक्त लगा सो उसका उल्लेख कर रहा हूँ ,
थी खबर गर्म कि, ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े,
देखने हम भी गए थे, पै तमाशा न हुआ !!

चलिए 2016 समाप्त हो रहा है । वक़्त के साथ एक बात तय होती है, वह चाहे जैसा भी हो बीत ही जाता है । बीतता भी वह अपनी गति से ही है । पर जब रात अंधेरी होती है तो लंबी दिखती है और जब दिन की धूप मस्त होती है तो जल्दी ढल जाती है । यह सुख और दुःख का मनोविज्ञान है । घड़ी का कोई कुसूर नहीं है । उसकी टिकटिक समभाव से ही चलती है पर मन ही अक्सर सम और विषम भावों के बीच दोलायमान रहता है ।
2016 ईस्वी सन् की विदा के साथ ही 2017 ईस्वी का स्वागत है !

( विजय शंकर सिंह )

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