Tuesday 22 November 2016

डॉ विवेकी राय का निधन- उन्हें विनम्र श्रधांजलि / विजय शंकर सिंह


डॉ विवेकी राय नहीं रहे । 93 वर्ष की आयु मैं उन्होंने संसार को अलविदा कहा । अंतिम समय उनका वाराणसी में व्यतीत हुआ । अंतिम सांस भी उन्होंने काशी में ही ली । मूल रूप से वे बलिया जिलें के भरौली गाँव के रहने वाले थे । कुछ अख़बार उन्हें हिंदी और भोजपुरी के एक बड़े साहित्यकार के रूप में उनके अवसान की ख़बरें दे रहे हैं । मुझे इस खबर पर आपत्ति है । वे बड़े साहित्यकार तो थे ही, इसमें किसी को संदेह नहीं है पर वे हिंदी भाषा के साहित्यकार थे । उनका लेखन भोजपुरी में भी है । भोजपुरी हिंदी की एक बोली है न कि कोई अलग भाषा है । वे जिस इलाके के थे वह साहित्यिक दृष्टिकोण से बहुत ही उर्वर क्षेत्र हैं। बलिया के ही आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी थे । बलिया, ग़ाज़ीपुर, वाराणसी, अब मेरे जिले चंदौली को भी इसमें नत्थी कर लीजिये तो यह एक ही परम्परा , रीति रिवाज़ और प्रकृति का क्षेत्र है । आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी , डॉ शिव प्रसाद सिंह, डॉ नामवर सिंह, डॉ काशीनाथ सिंह, डॉ राही मासूम रज़ा, जैसे दिग्गज साहित्यकारों ने इस मिट्टी में जन्म लिया है । ऐसे ही साहित्यिक रूप से उर्वर क्षेत्र में विवेकी राय का जन्म 19 नवम्बर 1924 को हुआ था । 

उनकी प्रारंभिक शिक्षा सोनवानी गाँव जो ज़िला ग़ाज़ीपुर में है, हुयी थी । राय साहब की पृष्ठभूमि ग्रामीण थी । माटी की गंध इन्होंने महसूस की थी । गाँव की समस्याएं , लोगों की बातचीत , रस्म ओ रिवाज़, गाँव के रगड़े झगड़े, लोकाचार के विभिन्न रूप इन्होंने खुद देखा और उनके साहित्य में करईल माटी की गंध की तरह उतरता  रहा ।  भोजपुरी इनकी मातृभाषा थी । भोजपुरी का कोई लिखित साहित्य नहीं होता था पहले । लेकिन वाक् साहित्य से समृद्ध इस बोली में भी इन्होंने अपनी कलम चलायी । शिक्षा दीक्षा के बाद वे अध्यापन कार्य से जुड़े । उनका लेखन कर्म तभी प्रारम्भ हुआ । हम लोग जब विश्वविद्यालय में थे तो उस समय सारिका, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग जैसी स्तरीय पत्रिकाएं निकलती थी । डॉ साहब की कहानियां अक्सर इनमे से किसी न किसी पत्रिका में छपती रहती थी । वे पढ़ी भी जातीं थीं और उन पर चर्चा भी होती थी । साहित्यिक अनुराग रखने वाले लोगों की काव्य गोष्ठी के साथ साथ कथा वाचन की महफ़िलें भी लगती थी । उनमें इन कहानियों का वाचन और इनके सरोकारों पर बहस भी होतीं थी । कहानियाँ सिर्फ मनोरंजन या टाइम पास जैसी चीज़ नहीं होती थी । वह भी समाज निर्माण के योगदान में एक कदम समझी जातीं थी ।

डॉ साहब ने विपुल साहित्य रचा । साहित्य की हर विधा पर उनकी कलम चली । 50 से अधिक रचनाएं उन्होंने की । कविता , कहानी , उपन्यास, समालोचना, और ललित निबंध पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी । उनकी रचनाओं को क्रमवार से आप यहां पढ़ सकते हैं -
उपन्यास -
बबूल, पुरुष पुराण, लोक ऋण, श्वेत पत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम, अमंगल हारी तथा देहरी के पार ।
ललित निबंध -
फिर बैतलवा डार पर, जुलुस रुका है, गँवई गंध गुलाब, मनबोध मास्टर की डायरी, वन तुलसी की गंध , आम रास्ता नहीं है, जगत तपोवन सो कियो, जीवन अज्ञात का गणित, घनी फगुनहट बौरे आम, उठ जाग मुसाफिर ।
कहानी संग्रह -
जीवन परिधि, गूंगा जहाज, नयी , कोंपल, कालातीत, बेटे की बिक्री, चित्रकूट के घाट पर, सर्कस ।
इन सब के अतिरिक्त, छः कविता संग्रह, तेरह समीक्षा ग्रन्थ, दो व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित ग्रन्थ, दो संस्मरण ग्रन्थ, भोजपुरी में नौ पुस्तकें, और पांच ग्रंथों का संपादन भी इन्होंने किया है । ऐसा विपुल रचनाधर्मिता मुश्किल से ही मिलती है ।

उनकी रचनाओं और साहित्य सेवा का सम्मान भी कम नहीं हुआ है । उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद पुरस्कार, साहित्य भूषण तथा महात्मा गांधी सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार का सवोच्च नागरिक सम्मान यश भारती, बिहार राजभाषा विभाग द्वारा आचार्य शिवपूजन सहाय पुरस्कार, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान, मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान, विश्व भोजपुरी सम्मेलन का सेतु सम्मान, हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति, प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान आदि सम्मान से डॉ विवेकी राय को सम्मानित किया जा चुका है ।

फणीश्वर नाथ रेनू के उपन्यास  मैला आँचल और परती परिकथा के बाद हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यासों का दौर प्रारम्भ हुआ । आंचलिक उपन्यासों में अंचल ही नायक और उसी की कथा मुख्य होती है और पात्र उसे ही अभिव्यक्त करते हैं । पूर्वांचल की मिट्टी की सोंधी महक और गाँव गिराँव के वातावरण से इनकी कहानियाँ न केवल रू ब रू कराती हैं बल्कि वे आप के साथ खेत की मेंड़ पर सहयात्री की तरह साथ बनी रहती हैं । पूर्वांचल का देहात इन कहानियों में जीवंत हो गया है । लेखक की सबसे बड़ी खूबी ही यह है कि जो लोक वह रचता है वह लोक पाठक को न केवल अपना लगे बल्कि घरउ भी लगे । अगर वह लोक अनजाना और अनचीन्हा लगता है तो वह उपन्यास या कहानी उबाऊ लगने लगती है । डॉ राय की कहानियाँ और उपन्यास बांधे रखते हैं । यह इनकी विशिष्टता है ।  विवेकी राय का रचना कर्म नगरीय जीवन के ताप से तपायी हुई मनोभूमि पर ग्रामीण जीवन के प्रति सहज राग की रस वर्षा के सामान है जिसमें भींग कर उनके द्वारा रचा गया परिवेश गंवइ गंध की सोन्हाई में डूब जाता है। गाँव की माटी की सोंधी महक उनकी ख़ास पहचान है।

डॉ राय की प्रसिद्धि अगर उनकी कहानियों को ले कर है तो ललित निबंध विधा में भी इनकी लेखनी ने कम ऊंचाइयों को नहीं छुआ है । पाठकों की मुख्य रूचि कहानी और उपन्यास पढ़ने में होती हैं । यह एक कल्पना का लोक है । यह लोक,  प्रेम भरा रूमानी भी हो सकता है , सनसनी फैलाता थ्रिलर भी, और आदर्श का प्रवचन देता हुआ पौराणिक टाइप कथा भी और इतिहास में कल्पना और नाटकीयता से पगा हुआ ऐतिहासिक भी । यह काल्पनिक लोक अगर सधा हुआ उपन्यास है तो बांधे रखता है । ललित निबंध कम लोग पढ़ते हैं ।  क्यों कि, ललित निबंध कोई प्रत्यक्ष लोक नहीं गढ़ता है, वह एक विषय की विभिन्न रूपों से व्याख्या करता हुआ , चुपचाप एक खूबसूरत उद्यान का भ्रमण करवाता हुआ लगता रहता है । निबंध लेखन के लिए विचारों और चिंतन की प्रौढ़ता आवश्यक है । सबसे अच्छे ललित निबंध आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के माने जाते हैं । डॉ राय की भी गिनती आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की परम्परा में की जाती है। " मनबोध मास्टर की डायरी " और "फिर बैतलवा डाल पर " इनके सबसे चर्चित निबंध संकलन हैं । उपन्यासों में सोनामाटी उपन्यास डॉ राय का सबसे लोकप्रिय उपन्यास है ।

डॉ विवेकी राय के दुःखद निधन पर हार्दिक संवेदना और उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि । कलमकार कभी नहीं मरता । सम्राट भी उसी की लेखनी के दम पर जीवित और प्रासंगिक बने रहते हैं । डॉ राय के शब्द जिनसे उन्होंने साहित्य का अद्भुत लोक रचा है वह सदैव जीवित रहेगा । देह का क्या , वह तो नश्वर है ही ।

( विजय शंकर सिंह )

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