Sunday 20 November 2016

एक कविता , कितने बदल गए हैं वे / विजय शंकर सिंह



कितने बदल गए हैं वे ,
मुंह में लगे खून को,
कितनी आसानी से चाट कर
मुस्कुराहटों के नकली मुखौटे ओढ़ ,
शातिराना मासूमियत लिए ,
दिलासे परोस रहे हैं, 
कितने बदल गए हैं वे !

सुनो,  ज़रा तुम उनको ,
दहकती आग पर, जिन्होंने 
पानी के छींटे तक नहीं डाले कभी, 
भड़का कर सेंकते रहे रोटियाँ ,
और मुस्कुरा कर, 
खेलते रहे उन्ही रोटियों से वे, 
कितने बदल गए हैं , वे !

शीरीं बयानी तो देखो 
उनकी,जुबां नहीं 
सिर्फ बयान शीरीं हैं !

क्या अजब बयार चली है जंगल में ,
गुर्राने वाली आवाज़ लिए दरिंदे ,
पूंछ समेटे आज ,
लपलपाती ज़ुबान ,और
कितनी अदाकारी से ,
सुन रहे हैं शिकवे जंगल के !

कितने दिन रहेगा यह मौसम ,
जंगल को तो जंगल ही रहना है।

उनकी ओढ़ी हुयी, मुस्कराहट
और मासूमियत उनकी ,
फिर बदल जाएगी ,
उन्ही खौफनाक गुर्राहटों में ,
जो बन चुका है  , 
स्थायी भाव उनका !!


( विजय शंकर सिंह )

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