Thursday 13 October 2016

एक कविता ...... साथ / विजय शंकर सिंह

साथ ,
साथ साथ होने में नहीं है ,
साथ ,
साथ साथ एक साथ बैठने में नहीं है
साथ ,
बस साथ साथ रहना भी नहीं है
साथ , 
मन का मन को समझना
और
न आये कोई खबर तो
मन का मचलना भी है !

साथ साथ रह कर भी
मन घूमता रहता है ।
गढ़ता रहता है घरौंदे सपनों के,
और ढूंढ़ता रहता है उन्हें
जिन्हे मन ने मन में ही
छिपा रखा है कहीं !

अजीब कश म कश है ,
हम तलाश में भी , रहते हैं ,
मुब्तिला भी उसी के,
जो महफूज़ है , मन में ही कहीं !!

( विजय शंकर सिंह )

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