Monday 26 September 2016

जीवेद शरदः शतम् - डॉ मनमोहन सिंह / विजय शंकर सिंह


2014 का चुनाव समाप्त हो गया था । भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिल चुका था । कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दिनों में थी । मोदी का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था । शपथ ग्रहण के मुहूर्त की प्रतीक्षा थी । इतिहास का यह एक करवट था । मोदी जिस प्रचार और समर्थन के ज़ोर पर दिल्ली की गद्दी पर पहुंचे थे उसकी प्रतिध्वनि सुनायी दे रही थी । इन सब के बीच पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का एक अख़बार के लिये इंटरव्यू चल रहा था । डॉ सिंह स्वभाव से ही अल्पभाषी और मृदुभाषी हैं । ज़ोर से भी नहीं बोलते और नाटकीयता और मंचीय भंगिमा से दूर , किताबों की दुनिया में रमे रहने वाले शख्श हैं । नियति ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया और वे नेहरू , इंदिरा के बाद सबसे अधिक समय तक रहने वाले पीएम बने । अध्यापक , बैंकिंग प्रशासक, रिजर्व बैंक के गवर्नर, वित्त मंत्री के आर्थिक सलाहकार, फिर स्वयं वित्त मंत्री, और अंत में प्रधान मंत्री की कुर्सी तक वे पहुंचे । 1991 के कठिन दिनों में जब देश अस्थिर था, राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी, सांप्रदायिक वातावरण और मण्डल आयोग की संस्तुतियों के माने जाने के कारण जातिगत संघर्ष का वातावरण बन गया था, तब पीवी नरसिम्हाराव ने देश की कमान संभाली और मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री बने । तब तक दुनिया एक ध्रुवीय बन चुकी थी। सरकार की नीति मुक्त व्यापार की बनी । देश की खिड़कियाँ और दरवाज़े खोल दिए गए । अचानक समृद्धि आयी । पर जीवन की मूल समस्या और नेताओं का प्रिय वाक्य कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति का उत्थान , अफ़साना ही बना रहा । फिर भी इंफ्रास्ट्रक्चर और निजीकरण से नौकरियाँ बढ़ी और जीवन स्तर बढ़ा । फिर वही वित्त मंत्री 2004 से 2014 तक देश के प्रधान मंत्री बने । कार्यकाल के अंतिम तीन साल कठिन बीते । घोटाले हुए, और अकर्मण्यता और उनकी अनदेखी करने के आरोप भी लगे । अंततः 2014 में इनके नेतृत्व में कांग्रेस को अत्यंत शर्मनाक हार झेलनी पडी । उस पत्रकार से बात करते हुए जब एक सवाल उनसे यह पूछा गया कि
" आप अपने कार्यकाल का आकलन कैसे करना चाहेंगे ? "
डॉ सिंह थोड़ी देर चुप रहे । क्या कहते । हार को पचाने में वक़्त लगता है । वह कोई जनाधार वाले लोकप्रिय नेता तो थे नहीं । उनकी थाती ही उनका ज्ञान और उनकी प्रतिभा थी । फिर उन्होंने धीरे से एक वाक्य कहा,
" इतिहास मेरा मूल्यांकन करते समय मेरे प्रति दयालु रहेगा । वह इतना निर्मम नहीं रहेगा जितना की आज मिडिया और विपक्ष है । " 

मनमोहन सिंह एक खलनायक थे उस समय । जनज्वार भी अज़ीब होता है । उमड़ता है तो सारे अच्छे कामों को भी बहा ले जाता है । उसे दो ही श्रेणी दिखाई देती है । या तो देव या दानव । इंसान की कल्पना वह कर ही नहीं सकता । यह उन्माद की मोहावस्था होती है । जो परिपक्व नेता होते हैं वे इन परिस्थितियों को जानते हैं और वे इसकी काट भी रखते हैं । पर डॉ सिंह कोई पेशेवर नेता तो थे नहीं । उनका अपना कोई जनाधार भी नहीं था । बिरादरी , धर्म , जाति के समीकरणों में वे कभी पड़े ही नहीं । नौकरशाही का जो एक सतत आज्ञा पालक भाव होता है , वह उनमें बना रहा । यह उनकी कमज़ोरी भी आप कह सकते हैं और उनकी ताक़त भी । जब शोर कम हुआ और गर्द ओ गुबार थमा, और हनीमून , ( यह शब्द सरकारों के लिए भी अब प्रयुक्त होने लगा है ) बीता तो फिर जिस तस्वीर पर घूल जम चुकी थी , उसे फिर साफ़ किया जाने लगा । वह थोडा बेहतर लगने लगे । किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन समसामयिक काल में नहीं किया जा सकता है । मूल्यांकन सदैव सापेक्ष होता है । उनके दस साल सदैव कसौटी पर परखे जाते रहेंगे , कभी तो उनके पक्ष में या उनके विरोध में । आज उन्ही डॉ मनमोहन सिंह का जन्म दिन है । वे स्वस्थ और सानंद रहें । यही शुभकामनाएं है।
( विजय शंकर सिंह )

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