Sunday 25 September 2016

पाकिस्तानी कलाकार और राज ठाकरे का फतवा / विजय शंकर सिंह

पाकिस्तानी कलाकार और राज ठाकरे का फतवा ।

पाकिस्तानी कलाकारों को भारत से भगाने का फरमान मनसे के राज ठाकरे ने जारी कर दिया है । यह परिवार पहले मुम्बई को और कभी कभी तो पूरे भारत को अपनी निजी जागीर समझने लगता हैं। बाल ठाकरे ने खुद ही जो कभी इंदौर से जाकर रोजी रोटी की लालच में मुम्बई में बसे थे, ने साठ के दशक में घृणा की राजनीति शुरू की । पहला निशाना इनका दक्षिण भारतीय बने जो मद्रासी कहे जाते थे । फिर उत्तर भारतीय । और मुसलमान तो थे ही। देश और देशवासी की परिभाषा इनकी बदलती रहती है । जब बाल ठाकरे नहीं रहे तो शिवसेना में अंदरूनी सत्ता संघर्ष शरू हुआ और राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नाम से एक नयी पार्टी बनायी । निर्माण सदैव समय , दृष्टि और विवेक की मांग करता है पर विध्वंस के लिए इन सब गुणों की आवश्यकता ही नहीं रहती है । मनसे ने भी यही मार्ग अपनाया । उत्तेजक बयान , कानून की अवहेलना, बदतमीज़ी, और क्षेत्र , जाति तथा धर्म की राजनीति करना ही इनकी आदत बन गयी । पर एक भी स्थान इन्हें पिछले चुनाव में महाराष्ट्र विधान सभा में नहीं मिला । इधर इन्होंने एक और राग छेड़ा है कि पाकिस्तानी कलाकार देश से बाहर जाएँ। कुछ महीनों पहले इन्होंने शिवसेना के साथ मिल कर, मुम्बई में होने वाला गुलाम अली का कंसर्ट रद्द करवा दिया था । गुलाम अली ने फिर अपना शो उत्तर प्रदेश के लखनऊ और वाराणसी में किया । यह भी विडंबना ही है गुलाम अली का वाराणसी शो, संकट मोचन मंदिर के प्रागण में हुआ । यह काशी की विराटता और सनातन धर्म की विशाल हृदयता ही है ।

जब भारत नहीं बँटा था तो, आज के पाकिस्तान के इलाके से फ़िल्म जगत को अत्यंत प्रतिभाशाली और लोकप्रिय कलाकार मिले । पृथ्वीराज कपूर, और उनके पुत्र गण, दिलीप कुमार, राज कुमार, देव आनंद, बी आर चोपड़ा, रामानंद सागर, कादिर खान, बलराज साहनी, सुनील दत्त, आदि आदि । उस समय फिल्मों में या तो पंजाब के लोग थे या बंगाल के । हिंदी पट्टी के लोग भी थे पर वे मूलतः गीतकार और संगीतकार तथा फ़िल्म लेखक थे, पर उनमे से कोई अभिनेता नहीं था । हालांकि साठ के दशक के बाद हिंदी पट्टी के बहुत से अभिनेता सफल हुए हैं । आज कल फिल्मों में जिन्हें महानायक कहा जाता है, वह अमिताभ बच्चन खुद ही इलाहाबाद से हैं । जब भारत बँटा तो फ़िल्मी दुनिया भी बँट गयी । पाकिस्तान का फ़िल्म केंद्र लाहौर बना । कुछ मुस्लिम लेखक जो पाकिस्तान के इलाके के रहने वाले थे वे बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए । इसमें  मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो, प्रसिद्ध गायिका नूर जहां जिन्हें मलिका ए तरन्नुम कहा जाता था, भारत से चले गए । लेकिन वहीं  कुछ मुस्लिम कलाकार भारत में ही बसे रहे ।  इसमें सबसे प्रसिद्ध दिलीप कुमार साहब हैं जो अब एक आख्यान हैं ।

पाकिस्तान भले ही धर्म के आधार पर बँटा हुआ हो, पर दोनों देशो की भाषा, रिवाज़, रवायतें , साहित्य के प्रतिमान, प्रतीक और विम्ब, गालियां , ताने, कहावतें आदि आदि सब के सब साझे थे ।  सिर्फ देश बंटा था, पर साहित्य और कला नहीं बटीं थीं। संगीत के वही सुर थे, गीतों का कम्पोजीशन वही था, कहानियाँ और उपन्यासों के कथानक वही थे, इन सब को प्रेरित करने वाली मिटटी से जुडी दन्त कथाएं और लोक कथाएं भी सांझी थी । लेकिन मुम्बई का फ़िल्म उद्योग , बहुत समृद्ध था और तेज़ी से तरक़्क़ी कर रहा था । इस के विपरीत पाकिस्तान अपने जन्म के थोड़े दिनों बाद ही, फौजी हुक्मरानों के बूटों तले आ गया और जब ज़िया उल हक़ का शासन काल आया तो, वहाँ एक तरह की सांस्कृतिक क्रान्ति वहाँ हुयी । यह पाकिस्तान का इस्लामी करण था । जिन्ना का पाकिस्तान बनने के बाद दिया गया प्रथम भाषण अपने शब्दों और भावनाओं सहित दफना दिया गया था । धर्म की कट्टरता बढ़ गयी ।  पाकिस्तान के लिए यह काल संक्रमण और दुविधा का काल था। वह एक तरफ खुद को इस्लाम के खुदमुख्तारी के दम्भ के निर्वाह का बोझ को ढो रहा था, तो दूसरी तरफ पाक की साझी विरासत जो इस भारतीय परम्परा के रूप में वहाँ की मिटटी पानी में मौज़ूद थी , से उलझ रहा था । बुल्ले शाह की अमर कथाएं , आज भी आँखें नम कर देने वाली हीर रांझा के प्रेम की अद्भुत लोक गाथा, और सूफीयाना साहित्य ने इस्लाम के जिस उदार स्वरूप से पाकिस्तान के अतीत को सींचा था, वह राजनीति की रुक्षता के कारण सूखने लगा था । वहाँ के समाज में तमाम प्रतिबंधों के कारण कट्टरता आने लगी और इसका सीधा असर साहित्य, और कला पर पड़ा । जिस साझी विरासत से दोनों देशों की कला और साहित्य विकसित हुए थे, उस के कारण दोनों ही देशों के कलाकार, साहित्यकार और शायर आदि आने जाने लगे ।  दोनों जगह दोनों का स्वागत अत्यंत आत्मीयता से होता था । वहाँ के कलाकार, नुसरत फ़तेह अली खान, राहत फ़तेह अली खान , आबिदा परवीन, गुलाम अली,  शायर फैज़, परवीन शाकिर, फ़हमीदा रियाज़ और भारत के जगजीत सिंह , गुलज़ार , शायरों में वसीम बरेलवी, शहरयार, आदि भी जाते थे । पर पाक के कलाकार अधिक भारत आते हैं ।  एक तो उन्हें यहां लोकप्रियता बहुत मिलती थी और शो अधिक होने से धन भी बहुत मिलता है। फिल्मों में मोहसिन खान और फवाद खान ने तो काम किया ही है , संगीतकार और गायक  अदनान सामी तो यही के नागरिक भी हो गए । पाक के कलाकारों को भारत में काम करने और अपनी कला के प्रदर्शन के लिए अधिक अवसर मिले इस लिए वे इधर आते चले गए , और अब भी आते हैं ।  इस आदान प्रदान और क्रिकेट के खेल को, ट्रैक टू कूटनीति भी कहा जाता है जो जनता का जनता से सीधा संवाद करने की अवधारणा है ।

पाकिस्तान निश्चित रूप से एक दुश्मन देश है । भारत के उस से चार प्रत्यक्ष युद्ध हो चुके हैं और सत्तर सालों से वह आतंक का निर्यात कर भारत के साथ एक छद्म युद्ध लड़ रहा है । हाल ही में पठान कोट और उरी में जो दो हमले और 26 / 11 की आतंकी घटना जिसे मुम्बई हमला ही कहना उचित होगा, में पाक की संलिप्तता, भले ही पाकिस्तान इसे न मानें , पर इन सब में , उसका हाँथ स्पष्ट है । इन रोज़ रोज़ के हमलों, घुसपैठ आदि से पूरा देश आजिज आ चुका है । देश के जनमानस में पाकिस्तान के खिलाफ जनरोष भी बहुत है । अगर पब्लिक मूड या पॉपुलर मूड की बात करें तो, अधिसंख्य लोग सैनिक कार्यवाही के पक्ष में है और युद्ध की बात कर रहे हैं । पर आज के वैश्विक युग में जब दुनिया एक बृहद गाँव बन चुकी और चपटी हो गयी है, तथा एक घटना की प्रतिक्रिया और अनुगूँज दूरस्थ स्थानों पर भी हो सकती है तो सरकार का दायित्व है कि वह कोई ऐसा कदम न उठाये जिस से भविष्य में देश का अहित हो । सरकार कूटनीतिक मोर्चों के अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर भी कुछ न कुछ सोच भी रही है । इसी बीच मनसे की यह मांग केवल खुद को वर्तमान परिस्थितियों में प्रासांगिक बनाये रखने की है । मुम्बई में जो भी कलाकार आज़ादी के बाद पाकिस्तान से आते हैं या आये हैं वे सभी यूँ ही फ्रंटियर मेल पकड़ कर जैसे देव आनंद लाहौर से बम्बई कभी आये थे, नहीं आते हैं । वे भारत सरकार की सांस्कृतिक आदान प्रदान की योजना के अंतर्गत या भारत में किसी फ़िल्म के कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार या शो के निमंत्रण पर आते हैं । सभी अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार वीसा और पासपोर्ट के साथ आते हैं । भारत ने 1996 में पाकिस्तान को मोस्ट फेवर्ड नेशन यानी सर्वाधिक अनुग्रह प्राप्ति राष्ट्र का दर्ज़ा दे रखा है । लाहौर से दिल्ली और मुनाबाव सीमा बाड़मेर पर दोनों देशों में रेल सम्बन्ध हैं । दिल्ली लाहौर की बस तो रोज़ चलती ही है । कश्मीर में भी श्रीनगर और मुजफ्फराबाद के बीच बस सेवा चलती है । दोनों तरफ से व्यापार भी खूब होता है । और त्योहारों पर बीएसएफ और पाक रेंजर्स के बीच मिठाइयों का आदान प्रदान भी होता है । यह निर्णय सरकार को लेना है कि, वह 1996 के मोस्ट फेवर नेशन के दर्जे को समाप्त या संशोधित करती है या जारी रखती है, कलाकारों के सांस्कृतिक आदान प्रदान पर रोक लगाती है या यथास्थिति ही बनाये रखती है । यही निर्णय रेल और सड़क मार्गों और व्यापारिक रिश्तों के सम्बन्ध में भी लेना होगा । सिंधु जल समझौता भी एक मुद्दा है । इन सब पर निर्णय सरकार को लेना है न कि राज ठाकरे और बदजुबानी के कारण हमेशा खबरों में रहने वाले गायक अभिजीत को ।

ठाकरे परिवार तो मुम्बई को अपनी जागीर मानने की मानसिकता से ग्रस्त है ही । वह मुम्बई को ही देश समझता है । खुद बाल ठाकरे ने पूरे जीवन भर भारतीय कानून का पालन नहीं किया । लोकप्रियता का भी एक नशा होता है । इसी नशे से मदहोश शिवसेना  और ठाकरे बंधु, कभी मदरासियों तो कभी गुजरातियों तो कभी उत्तर भारतीयों के पीछे पड़े रहते थे और खदेड़ने रहते थे । मराठी अस्मिता उनके लिए भाव नहीं है, वह उनके लिए व्यापार और सत्ता प्राप्ति का साधन था और आज भी है । यह उनके लिए लूट का साधन भी था कभी । मुम्बई का हर फिल्मवाला उनके यहां हाज़िरी लगाता है, इस लिए नहीं कि उनके प्रति फ़िल्म वालों के दिल में सम्मान था, बल्कि इस लिए कि, उन्हें फ़िल्म व्यवसाय करना है । इस व्यवसाय में काला सफ़ेद होता ही है । पाकिस्तान का विरोध और प्रतिकार आवश्यक है पर इसके नाम पर किसी संगठन को गुंडई करने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए । राज ठाकरे इन कलाकारों का विरोध करने के लिए स्वतंत्र हैं पर वे एक वैध वीसा और पासपोर्ट पर आये व्यक्ति से जो देश के किसी कानून का उल्लंघन नहीं कर रहा है को मुम्बई छोड़ कर जाने के लिए अल्टीमेटम कैसे दे सकते हैं ? हाँ अगर वे व्यक्ति किसी कानून का उल्लंघन करते हैं तो सरकार के पास कार्यवाही करने का पूर्ण अधिकार है और सरकार सक्षम भी है ।

( विजय शंकर सिंह )

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