Tuesday 9 August 2016

एक कविता ...... स्वार्थ / विजय शंकर सिंह


दरीचे से झांकते पेड़ों के इर्द गिर्द,
कुहरे की चादर ओढ़े,
वह बूढ़ा बरगद,
वक़्त के सितम झेलते झेलते,
अपनी जटाओं के सहारे बैठे हुए,
चुप चाप मेरी और देख रहा है ।

उसकी शाखों पर बने घोंसलों में,
चिड़ियों के बच्चे,
इस विपरीत मौसम में भी
जीने की तमन्ना लिए स्पंदित है ।

दूर दूर तक कुहरे की चादर,
मुनिस्पेलटी के लैंप पोस्ट की मटमैली रोशनी,
दूर से छन कर आती हुयी
ट्रक के टायरों की आवाज़,
सर्दी से कंपकपाते हुए पिल्लों की कुकुहाहट .
यह जतला देती है कि,
जीवन का एक आयाम यह भी है ।

आओ अब
नरम और गुदाज़ बिस्तर पर चलें.
लिहाफ ओढ़
ठण्ड को कुछ जवाब दें.
कान तक ओढ़ लें , लिहाफ को,
आँखें बंद कर,
खुदगर्ज़ खोल में घुस जाएँ.
न दिखे दरीचा, न घोंसले , न परिंदे,
स्वर भी न सुनाई पड़े,
ठंडाते हुए पिल्लों के.
सड़क से गुज़रते हुए ट्रक के टायरों के.
मेरे लिहाफ का मौसम,
अब जुदा है,
दुनिया के मौसम और मिज़ाज से ।

जीवन एक अबूझ पहेली है.
पर उसे सुलझाये कौन ?
परिंदे हों या दरिंदे, या हम,
सबके अपने अपने दुःख है.
सब की अपनी अपनी गति है.
सबकी टेक है अपनी अपनी,
एक तय शुदा स्क्रिप्ट पर,
संवाद अदायगी की तरह,
सब अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं .
खुदगर्ज़ी अब मुझे
अपने गिरफ्त में, ले रही है।
मैंने तुम्हे सर से ढँक दिया है.
अब सो जाओ ।
मुझे नहीं पता,
घोंसले और आँगन में क्या घट रहा है.
बस तुम ,
चैन से इस गर्माहट में सो जाओ ।

हाँ यह मेरा स्वार्थ है.
स्वार्थ की सारी सीमा तुम तक ही है.
उसके बाहर,
सब कुछ मेरे लिए बेमानी है.
शीत को शिद्दत से गिरने दो.
सुबह का अखबार सब बता देगा ।

तुम्हारी प्रश्नाकुल आँखें, 
मेरी खीज बढ़ा रही हैं,
मुझे अब कोई सरोकार नहीं है,
मौसम और शहर के मिज़ाज से ।
हाँ , हाँ, चीख के कहूँ क्या,
हाँ यह खुदगर्ज़ी है मेरी.
मेरा स्वार्थ है !!
( विजय शंकर सिंह ).

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