Monday 15 August 2016

एक कविता.... आज़ादी / विजय शंकर सिंह


लम्बी त्रासद रात,
सपनों की बरात लिए,
हुजूम दीवानों का,
बंधन तोड़,
गुलामी की जंज़ीरों का
बढ़ रहा है  ,
राजपथ पर धीरे धीरे। 

सो रही थी दुनिया,
पर,
जागती उम्मीदों के हज़ार ख्वाब लिए,
बढ़ रहे थे सभी।
अब जो सूरज निकलेगा कल
हमारा होगा। 

चमकेगा वह,
हमारे हिम शिखरों पर,
हमारे घर आँगन पर,
हमारे आसमाँ पर
हमारे सागरों पर पर। 

आह !
आज़ादी आयी,आधी रात,
खून से लिथड़ी हुयी
सुबह की लाली के साथ।
मुस्कान भी थी अधरों पर,
पर आंसू और बिखरे थे खून भी। 

बिलकुल ज़िंदगी की तरह,
हर सफे में,
कुछ न कुछ स्याह सफ़ेद समेटे। 

बाँट दिया उन्होंने,हमें
कागज़ पर पेन्सिल की नोक से,
एक लकीर खिंची,
और खून के बौछारों से लबालब,
कराहते हुए,
हम कटते हुए चले गए। . 

यह सियासत थी,
या गुमराहियत हमारी,
हिसाब इसका हम,
आज भी कर रहे हैं !

इतिहास के पन्नो में,
खंगाल रहे हैं हम आज भी,
उन साज़िश भरे
शैतानी ताक़तों का दिमाग।  

हज़ारों साल का साथ,
झगडे,लड़ाई,इश्क़,मोहब्बत,
जिन्होंने हमें पाला पोसा था सदियों से,
अब इतिहास के ज़र्द पन्नों में,
बिखरे पड़े हैं। 

कभी मंटो के अफसानों में,
कभी गुलज़ार के गीतों में,
कभी पुरखों के सफ़रनामों में,
बंटने की सारी कराहें,घुटन
और टूटती ज़िंदगियाँ ज़िंदा हैं। 

सरहद पर खड़े टोबा टेक सिंह को छोड़,
सारे रहनुमा पागल हो गए थे !
कागज़ की एक लकीर ने,
कितना बेगाना कर दिए हमें।  

लोग और दिल,एक जैसे होते हैं,
कभी रूठते,कभी मानते,
कभी धूप,कभी छाँव,
कभी सागर,कभी सहरा,
कभी हाँथ में हाँथ,
कभी दो दो हाँथ। 

पर लौट कर वहीं,
जहां सांझी खिलखिलाहट,
सांझे अश्क़ बहते थे,
फिर साथ साथ हो जाते थे। 

कुछ हम बहके थे,
कुछ उन्होंने भटका दिया,
एक नश्तर,
कितनी बेदर्दी से मुल्क़ के सीने में लगा। 
सिंधु सहित हरियाली बिखेरती वे नदियाँ,
जिनके किनारे बसी थीं
दुनिया की सबसे महान सभ्यताएं,
खून के आंसू रो पडी,
कहीं गंगा बंटी,तो कहीं रावी। 

लाखों मरे,
जलावतन हुए लाखों,
आज भी बसी हैं,
उनके बुज़ुर्गों की यादों में,
ज़ुल्म और दहशत भरी कहानियां। 

जो साँझा दुश्मन था,
समेट ले गया सारे एहसानात
और हम,
लड़ते रहे,बंटते रहे,कटते रहे,
न्याय बंदरों का,बिल्लियों की तरह देखते रहे। 

वे घर,अांगन,बाग़,बगीचे,वो साँझा जलसे,
वे सांझी शहादतें,
भगत सिंह,आज़ाद,अशफ़ाक़ुल्ला खां के सपने,
कंधे से कंधा मिला कर लड़ी गयी जंगें,
आज़ादी के लिए थीं,
खुदकुशी के लिए नहीं। 

जैसे कोई आईना टूटता है,दोस्त
टुकड़ों में हमारी शक्लें बिखर गयीं,
कहीं कागज़ों पर लकीरें खींच देने से,
मुल्क़ बंटा करते हैं !

दिल में कहीं कसक है,
हम आज़ाद तो हुए,
पर अधूरे !!
© विजय शंकर सिंह .

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