Thursday 7 July 2016

फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म ' दुआ ' और ईद का त्योहार / विजय शंकर सिंह

14 अगस्त 1967 को , पाकिस्तान के जन्म की बीसवीं सालगिरह पर उर्दू के महान साहित्यकार फैज़ अहमद फैज़ ने एक नज़्म लिखी थी दुआ । यह नज़्म उनके संकलन सर ए वादी ए सीना में संकलित है । यह नज़्म पाकिस्तान की ही एक अत्यंत प्रसिद्ध गायिका इक़बाल बानों ने अपने स्वर में गाया है ।

फैज़ एक तरक़्क़ीपसंद शायर थे । उनका जन्म 1911 में पाकिस्तान में सियालकोट में हुआ था और 1984 में उनका निधन लाहौर में हुआ । उर्दू अदब में आधुनिक काल की त्रयी में इक़बाल , फैज़ और फ़िराक़ का स्थान माना जाता है। पर तीनों की रचनात्मकता और नजरिया अलग अलग थी । इक़बाल मूलतः दर्शन से प्रभावित थे । इस्लाम का भी उन्हें दार्शनिक पक्ष ही प्रभावित करता था । वे अद्वैतवाद और ईश्वर या अल्लाह के अतिरिक्त और कुछ भी स्थायी नहीं " अल्लाह हो बाक़ी, मिल कुल्ले फानी " यानी, ईश्वर के अतिरिक्त सब कुछ नश्वर है के मूल सिद्धांत से प्रभावित थे । उनकी पुस्तक जावेदनाम पढ़ने से उनके दृष्टि और दार्शनिकता का पता चलता है । फैज़ वामपंथी विचारों से प्रभावित थे । उनके जीवन के समानांतर घट रही दुनिया भर की वामपंथी क्रांतियों ने उनके विचार और सोच को और अधिक यथार्थवादी बनाया । रूस की समाजवादी क्रान्ति , भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना और चीन में चल रही कम्युनिस्ट हलचल ने भारत के लेखकों और कवि शायरों को भी बहुत प्रभावित किया । फैज़ भी अछूते नहीं रहे । फैज़ और मंटो पाकिस्तान के उन साहित्यकारों में से रहे हैं जिन्होंने भारत विभाजन को कभी दिल से स्वीकार नहीं किया । दोनों की ही नज़्मों और कहानियों में यह टीस साफ़ झलकती है ।फैज़ की रचनाओ में। परिवर्तन और क्रांति की आवाज़ अक्सर प्रतिध्वनित होती है । फ़िराक़ , रात, नींद और कहानी के शायर थे । वे रूमानी शायर थे पर रूमानी ख़याल का विरह पक्ष ही उन्हें पसन्द आता है । वैसे भी सर्वश्रेष्ठ और दिल को छू लेने वाली रचनाएं विछोह की ही होती हैं ।

आज ईद है और ख़ुशी का यह त्यौहार दुनिया के अनेक मुल्क़ों में, हिंसा और आतंक की काली छाया ले कर आया है । ढाका, बगदाद, मदीना, कातिफ, काबुल में हाल ही में निर्दोषों की हत्या की गयी है । आतंक का यह चेहरा जिस भयानक रूप में नमूदार हो रहा है उस से यह सामान्य धारणा बन रही है इस्लाम दहशतगर्दी का धर्म है । पर ऐसी बात नहीं है । पर इसे साबित करने के लिए इस के उदारमना समाज को सामने आना होगा । यहाँ पर भी अर्थशास्त्र का मुद्रा  सिद्धांत कि बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है, जैसी ही बात है । बुरे और अपराधी समाज ने , समाज के अच्छे और उदारमना लोगों को अप्रासंगिक कर दिया । वे चलन के बाहर हो गए हैं ।

दुआ, फैज़ साहब की एक प्रसिद्ध कविता है । यह कविता दुआ के लिये उठे हांथों से उन सब पर कृपा की आकांक्षी है जो वंचित और शोषित है । यह कविता पढ़ें । उर्दू के कठिन शब्दों का अर्थ अधोलिखित है ।

दुआ.

आइये हाँथ उठायें हम भी, 
हम जिन्हें रस्म दुआ याद नहीं ।

हम जिन्हें सोज़ ए मुहब्बत के सिवा, 
कोई बुत, कोई खुदा याद नहीं ।
( सोज़ ए मुहब्बत - प्रेम की ज्वाला )

आइये, अर्ज़ गुज़ारें कि निगार ए हस्ती, 
ज़हर ए इमरोज़ में शीरींन ए फ़र्दा भर दें ।
( निगार ए हस्ती - जीवन का सौंदर्य , ज़हर ए इमरोज़ - वर्तमान का विष, शीरीन ए फ़र्दा - भविष्य की मिठास )

वो जिन्हें ताब ए गराबारी ए अय्याम नहीं,
उनकी पलकों पर, शब ओ रोज़ को हल्का कर दें ।
( ताब ए गराबारीं ए अय्याम - जीवन के बोझ को उठाने की शक्ति )

जिनकी आँखों में रुख ए सुबह का यारा भी नहीं, 
उनकी रातों को कोई शमा मुक़र्रर कर दे । 
( रुख ए सुबह - प्रातः काल का मुखड़ा, यारा - सहन शक्ति )

जिनकी क़दमों को किसी राह का सहारा भी नहीं, 
उनकी नज़रों में कोई राह उजागर कर दे ।

जिनका दीन पैराबिया कज़्ब ओ रिया है, उनको
हिम्मत ए कुफ़्र मिले, ज़ुर्रत ए तहक़ीक़ मिले । 
( दीन - धर्म,  कज़्ब ओ रिया - झूठ और मकारी का समर्थन , हिम्मत ए कुफ़्र - धर्म द्रोह का साहस,  जुरअत ए तहक़ीक़ - जिज्ञासा करने का साहस, सवाल पूछने की हिम्मत )

जिनके सर मुंतज़िर ए तेग़ ए ज़फ़ा हैं, 
उनको दस्त ए क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले । 
( मुंतज़िर ए तेग ए ज़फ़ा - अत्याचार की तलवार की प्रतीक्षा में , तौफ़ीक़ - सामर्थ्य )

इश्क़ का सर ए निहाँ, जान - तपा है जिस से, 
आज इक़रार करें , और तपिश मिट जाए । 
( सर ए निहाँ - चुभा हुआ तीर , जान तपा - तपते हुए प्राण )

हर्फ़ ए हक़, दिल में खटकता है जो कांटे की तरह, 
आज इज़हार करें , और खलिश मिट जाए !! 
( हर्फ़ ए हक़ - सत्य वचन, सही बात )

अंत में यह दुआ स्वीकार हो और यह दुनिया दुःख कष्ट और शोषण से मुक्त हो। आमीन !

( विजय शंकर सिंह )

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