Monday 6 June 2016

एक कविता - आत्मीय / विजय शंकर सिंह





मैं तुम्हे जीवन की समस्त समस्याओं ,
संदेहों और भय से मुक्ति का हल नहीं सुझा सकता हूँ,
लेकिन मैं तुम्हारी बात सुन सकता हूँ,
और हम मिल बैठ कर उनका समाधान ढूंढ सकते हैं ।
 
मैं तुम्हारा अतीत नहीं बदल सकता,
और न ही अतीत के वे दंश जो दिल पर तुम्हारे खुदे हुए हैं
मिटा सकता हूँ। 
और न ही वे दर्द, जिन्हें तुम संजो कर रखे हो,
भुला सकता हूँ तुम्हारे अवचेतन से ।
और न ही भविष्य की उन कथाओं को सुना सकता हूँ,
जो अभी तक लिखी भी नहीं गयी हैं !

पर मैं दुःख के उन कातर छड़ों में ,
जब तुम खुद को नितांत अकेला पाओगे तो, 
उपस्थित रहूँगा.
मैं तुम्हारे क़दमों को लड़खड़ाते हुए तो, नहीं रोक सकता,
पर जब भी तुम्हारे पाँव डगमगायेंगे,
मेरे हाँथ तुम्हे अवलंब दे कर, 
ज़मीन पर तुम्हे गिरने नहीं देंगे ।

तुम्हारे आनंद, विजयोत्सव, सफलताएं, और खुशियों में ,
मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है ।
यह सारे पुष्प तुम्हारे उद्यान के हैं ।
लेकिन श्वेत और नन्हे पुष्पों के निर्झर सी तुम्हारी हंसी के स्वर में,
एक स्वर मेरा भी, आनंद से भरा , जुड़ेगा ।

तुम्हारी ज़िंदगी के फैसले, तुम्हारे होंगे ,
उम्मीदों की खिलती हुयी कोम्पले तुम्हारी होगी,
मैं उन फैसलों तक पहुँचने में,
राह में पड़ने वाले अवरोधों को हटाते हुए
उत्साह का ज्वार भरते हुए, लक्ष्य तक तुम्हारे साथ रहूँगा ,
पर तुम , चाहोगे तब !

तुम मेरी मित्रता की परिधि से दूर जाना चाहो तो,
रोकूँगा नहीं तुम्हे मैं ,
मैं प्रार्थना करूँगा अनंत से, बातें करूँगा तुमसे और ,
प्रतीक्षा करूँगा तुम्हारी, कि तुम वापस लौट आओ  !

हमारी मित्रता किसी सीमा से मुक्त अनंत की तरह,
सात रंगों का आकाश लिए है,
पर तुम किसी बंधन या नियमों से आबद्ध नहीं हो,
वन सुगंध की तरह मुक्त और सर्वव्यापी हो ।

मैं तुम्हारा ह्रदय भग्न और आहत न हो, ऐसा नहीं कर सकता,
भग्न और आहत होना , तो, नियति ही ह्रदय की ! 
ईश्वर ने इसे गढ़ा ही है , भग्न और आहत होने के लिए !

पर मैं उन टुकड़ों को 
प्रेम से चुन कर तुम्हे फिर जीवन पथ पर,
बढ़ने के लिए सहेजने में हर पल साथ रहूँगा !

तुम क्या हो, यह मैं नहीं जानता, और
न चाहता हूँ जानना,
बस, इतना ही सरोकार है मुझे तुमसे, कि,
तुम मेरे सखा हो, और आत्मीय हो मेरे !!

© विजय शंकर सिंह 

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