Friday 17 June 2016

एक कविता, प्रक्षालन / विजय शंकर सिंह




निःशब्द वन, निस्तब्ध बुद्ध,
मंद पवन, चंचल चंद्र,
चकित जन, उत्कण्ठित मन,
प्रश्न किया, तथागत से,
प्रश्नाकुल शिष्य ने,
" शास्ता, कुछ उपदेश आज,
कुछ अमिय ज्ञान, कुछ मार्ग,
कोई अवलंब जीवन का,
कुछ कृपा करें , मुझ मूढ़ पर । "

मुंदे नयन, प्रशस्त ललाट,
अद्भुत अधर, मोहक मुस्कान,
देखते हुए शिष्य को ,
उत्तर तो दिया नहीं,
प्रतिप्रश्न और कर दिया,
बोले बुद्ध,
" भोजन के बाद कभी,
जूठे पात्र, धोये हो ? "
चकित शिष्य , हुआ और भ्रमित,
जागा कुछ भाव उपालम्भ का,
बोल पड़ा,
" जूठा पात्र, हर दिन तो धोता हूँ ,
भोजन के बाद उसे,
भला, बिना धोये,
कैसे खा लूंगा, जूठे बर्तन में ? "

बुद्ध मुस्कुराये,
खिल उठा चाँद,
बादलों के बीच ,
शिष्य की आँखों में देख,
पूछा,
" पात्र धोने के कार्य से कुछ सीखा,
या धोते रहे हो उसे
ऐसे ही अब तक ?"

" पात्र धोने में क्या सीखना, प्रभु,
यह तो कर्म है नित्य का,
सभी तो धोते हैं, जूठे पात्र को,
बिना प्रक्षालित किये , भला,
खा सकता है,
कैसे कोई उस पात्र में ?
अस्वस्थ न हो जाऊँगा ? "
शिष्य ने तर्क रखा,
और सोचने लगा,
जूठा पात्र भला, क्या देगा सीख मुझे !

अधखुले नयन तथागत के,
अधर हिले,
" ध्यान देना तुम,
पात्र , को बाहर तो कम
पर अधिक धोना पड़ता है
भीतर उसे ।
यह देह भी तो पात्र ही है ।
धोते तो इसको भी नित्य ही हो, तुम
पर अंदर कभी देखा है ?
झाँको और पैठो भीतर,
मन पर जो जमी धूल ,
चीकट जो चिपकी है ,
धोना पड़ता है अधिक उसे । "

शिष्य स्तब्ध, बोले बुद्ध फिर
" सब कुछ तो मन ही है ,
बांधे और रखता है साधे सबको,
कभी उदास तो ,
कभी पा चुका हो सब कुछ जैसे,
भरा हो आत्मतोष से,
बिलकुल पूर्णिमा के चाँद की तरह,
सम्पूर्ण कलाओं को समेटे ,
रश्मि बिखेरता,
और पराजित करता, अन्धकार को ।
साफ़ रखो, मन को, 
जूठे पात्र को, जैसे,
भीतर से अधिक धोते हो,
रखते हो, साफ़ उसे ! "

बुद्ध फिर हुए मौन,
आत्मलीन, आँखे मूंदे, स्मित अधर ,
सब शांत और दिव्य !
एक उजास दूर कही ,
क्षितिज के पार दिखने लगा
प्रत्यूष होने लगा !!

© विजय शंकर सिंह

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