Thursday 12 May 2016

एक कविता ... घने जंगल मुझे बुलाते हैं / विजय शंकर सिंह




घने जंगल मुझे बुलाते है,
ऊंचे ऊंचे सघन स्वस्थ वृक्ष,
राहों से लिपटती,
फूल और कांटो भरी, झाड़ियाँ,
धूप के शिद्दत को थाम लेते,
चौड़े और घने पत्ते,
इनके बीच सुगंध बांटता,
सरसराता पवन,
मौन आमंत्रण देता रहता है मुझे.

शहर की बोझिल,
भीड़ भरी, और उबा देने वाली, सोहबतें,
ज़िंदगी को कितनी मशीनी बना जाती हैं.

मुस्कुराहटों के पीछे,
अनेक चतुर अर्थ समेटे लोग,
ख्वाबो को गढ़ते, पर
मेरी ख़्वाबों पर धूल डालते कुछ,
कितने चेहरे, दीखते हैं,
शहरों के पथरीले आईने में.

कोई भटकाता है , तो कोई भरमाता है,
तो कोई करता है ढोंग, दिलासा देने का.
तो कोई, उम्मीदों के इतने दिखाता है , आसमाँ ,
कि विधाता का आकाश भी छोटा हो जाता है.

ऐसे ही कभी जब टूटने के कगार पर  ,
पहुँचने लगता हूँ तो,
जंगल मझे शरण देता है.
बिना बोले, बिना एहसान जताए, ,

चुप चाप, पवन, वृक्ष, जीव जंतु ,
सब अपनी रौ में जीते हुए,
मुझे समेट लेते हैं अपने आलिंगन में.
अद्भुत रूप, प्रकृति का, 
ऊर्जस्वित कर जाता है, मुझे बार बार !
घने जंगल मुझे अक्सर बुलाते है , दोस्त !!

© विजय शंकर सिंह 

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