Monday 16 May 2016

तफ्तीशों में राजनीति या राजनीति से तफ्तीशें - 1 / विजय शंकर सिंह

मालेगाँव ब्लास्ट की तफ्तीश में एन आई ए के दृष्टिकोण पर बिना किसी टीका  टिप्पणी के यह कहा जा सकता है कि पुलिस की तफ्तीश की साख पर सवाल खड़ा हुआ है । हालांकि यह पहली बार नहीं और न हीं नया सवाल है पर देश की शीर्षस्थ और अग्रणी जांच एजेंसी के साख पर सवाल उठना दुर्भाग्यपूर्ण है ।तफ्तीश का उद्देश्य सच को निकालना और असल अभियुक्त को सामने लाना, उसकी गिरफ्तारी, उस से पूछताछ और सुबूतों के आधार पर जो भी सामने आये, उसे सक्षम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर देना है । लेकिन जब सीबीआई जैसी विशेषज्ञ जांच एजेंसी को सुप्रीम कोर्ट तोता कहे और उसके जांच पर अविश्वास प्रगट करे तो समझ लेना चाहिए की पुलिस का सबसे महत्वपूर्ण काम ही संदेह के घेरे में आ गया है । ऐसा बिलकुल नहीं है कि एक ही अपराध की विवेचना अगर दो एजेंसियों से करायी जाय तो दोनों के ही परिणाम एक ही आने चाहिए । सुबूतों की खोज, पूछताछ, बयानों के अध्ययन और समीक्षा के आधार पर निष्कर्ष बदलते रहते हैं और विवेचना के परिणाम इस से प्रभावित हो सकते हैं। इसका निर्णय न्यायालय को ही करना है और वह करता भी है । अक्सर जिलों में होने वाली विवेचना को सीबीसीआईडी बदल देती है और सीबीसीआईडी जो राज्य सरकार के अधीन होती है कि विवेचना के निष्कर्षों को सीबीआई भी बदलती रहती है । यह कोई नया काम नहीं है जो एन आई ए ने किया है ।

मालेगाँव धमाका की जांच मुम्बई एटीएस ने किया था । हेमंत करकरे  उस समय जॉइंट कमिश्नर ए टी एस थे । उन्ही के निर्देशन में जांच हुयी और उस जांच के दौरान मिले सुबूतों के बाद गिरफ्तारियां हुयी और सुबूत अदालत में पेश भी हुए । 2011 में यह जांच एन आई ए को दी गयी । एन आई ए का गठन जटिल आतंकी अपराधों की विवेचना के लिए किया गया है । चूँकि यह एजेंसी आतंकी घटनाओं की विवेचना में विशेषज्ञता हेतु विकसित की जा रही थी, अतः यह विवेचना भी उसे दे दी गयी । जब भी कोई नयी एजेंसी किसी अपराध की विवेचना करती है तो वह पहले इकठ्ठा किये गए सुबूतों का परीक्षण करती है और फिर नए सिरे से तफ्तीश में जुटती है । ऐसा बिलकुल नहीं है कि, जो पहले विवेचक ने कर दिया वही वह भी मान ले। सुबूत एक जैसे हों या बयान भी एक जैसे हों तो भी उसके परीक्षण के बाद निष्कर्ष बदल सकता है और बदल भी जाता है । इस मुक़दमें में भी यही हुआ है । जिन सुबूतों, बरामदगी और इकबालिया बयानों पर एटीएस ने मकोका लगाया उन्ही के परीक्षण के बाद एन आई ए ने प्राविधान को हटाते हुए अदालत में पूरक आरोप पत्र प्रस्तुत कर दिया है । अब यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार में है कि वह एन आई ए के इन निष्कर्षों से सहमत होती है या नहीं ।

मालेगाँव धमाके की जांच जब से एन आई ए को मिली है तब से इस पर विवाद नहीं है विवाद उठा है 2014 में सरकार बदलने के बाद। और वह भी एनआईए के एक एसपी के सुझाव , निर्देश, सलाह या सन्देश, जो भी मानें पर । जब यह जांच चल रही थी तभी, लोक अभियोजक जो सरकार की ओर से अदालतों में मुक़दमें लड़ते हैं ने यह कह कर सनसनी फैला दी कि एन आई ए ने उनसे इन मुक़दमों की पैरवी में सख्ती न करने का सुझाव  दिया । लोक अभियोजक  रोहिणी सालियान ने जब यह बात बतायी , तभी एन आई ए के तफ्तीश और इरादों पर संदेह खड़ा हो गया । यह संदेह स्वाभाविक भी था । रोहिणी का लोक अभियोजक के रूप में काम और क्षवि दोनों ही अच्छी रही है । होता तो यह कि, रोहिणी के इस आरोप पर भी एनआईए को विभागीय जांच करा कर , ऐसा निर्देश या सुझाव देने वाले अधिकारी के विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही की जानी चाहिए थी । पर शायद यह नहीं हुआ । यह एक प्रकार से न्याय को भटकाना ही था, और सरकारी काम में बाधा पहुंचाना भी । रोहिणी के इस रहस्योद्घाटन पर प्रसिद्ध आई पी एस अधिकारी जे ऍफ़ रिबेरो ने एक लंबा लेख भी लिखा था । उन्होंने ने उस लेख में विवेचना में घुस गयी इस प्रवित्ति से पुलिस के अधीनस्थों को आगाह भी किया था । संदेह के इन्ही बादलों के बीच विवेचना चलती रही और अब जा कर पूरक आरोप पत्र न्यायालय में दाखिल हुआ है । 2015 में ही रोहिणी ने न्याय को गुमराह करने के आरोप पर न्यायालय में उक्त एनआईए के एसपी के विरुद्ध एक याचिका भी दायर की है, जिसमें उन्होंने उक्त अधिकारी का नाम भी बताया है । उक्त अधिकारी का नाम सुहास कारके है । सुहास से पूछा जाना चाहिए कि किसके निर्देश पर उन्होंने सख्ती न बरतने के लिये रोहिणी से कहा था। अमूमन ऐसे सुझाव बिना राजनीतिक कारणों के नहीं दिए जाते हैं । कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि रोहिणी को यह विभागीय बातचीत सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए थी । पर रोहिणी ने ऐसा कर के कानून  का ही हित किया है । विवेचना और अभियोजन दोनों का ही मूल उद्देश्य क़ानून का युक्तियुक्त पालन होना है ।

सरकारें बदलती रहती हैं और उसी के अनुसार महत्वपूर्ण अभियोगों की विवेचनाओं के निष्कर्ष भी । विशेष कर राजनीतिक व्यक्तियों के विरुद्ध कायम मुक़दमों के निष्कर्ष बदलते रहते हैं । आय से अधिक संपत्ति की जाँचें जो मुलायम सिंह यादव, मायावती और जयललिता के विरुद्ध चल रही हैं में जो कभी नीम नीम तो कभी शहद शहद टाइप रवैया सीबीआई अपनाती रहती है उसके अध्ययन ने आप राजनैतिक उठा पटक का आसानी से अनुमान लगा सकते हैं ।13 मई 2016 को जो पूरक आरोप पत्र एनआईए द्वारा अदालत में दाखिल किया गया है वह महाराष्ट्र एटीएस द्वारा दाखिल किये गए आरोप पत्र से बिलकुल विपरीत है । एटीएस ने 20 जनवरी 2009 और 21 अप्रैल 2011 को कुल 14 अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप पत्र दिया था । 5000 पन्नों में लिखी गयी केस डायरी एटीएस ने सुबूतों के साथ न्यायालय में। दिया था । एनआइए के गठन के बाद 2011 में इस मुक़दमे की विवेचना उसे सौंपी गयी । एनआईए ने दस अभियुको के खिलाफ पूरक आरोप पत्र दिया और प्रज्ञा सिंह तथा अन्य पर से मकोका हटाने की संस्तुति की। एनआईए के तीन पन्ने के घोषणा से जो उसके वेबसाइट पर उपलब्ध है, यह भ्रम फैला कि एनआईए ही मकोका हटाने के लिए सक्षम है । लेकिन जनता में सोशल मिडिया पर दो पक्ष बन गए हैं । एक पक्ष प्रज्ञा सिंह के पक्ष में खड़ा है और वह एनआईए के निष्कर्षों को सही ठहरा रहा है तो दूसरा पक्ष एनआईए को नमो इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी कहते हुए एटीएस की जांच को सही कह रहा है । कुछ लोग एटीएस के बहाने उसके तब के जॉइंट कमिश्नर शहीद हेमंत करकरे पर अपनी खुन्नस निकाल रहे हैं । जहां तक मकोका का प्रश्न है, सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही इस मुक़दमें में मकोका लागू नहीं होता है, ऐसा निर्णय 16 अप्रैल 2015 को दे दिया है । अब जो भी होगा वह अदालत में  ही होगा । पर इस मुक़दमे में एनआईए की साख पर ज़रूर असर पड़ा है ।

महत्वपूर्ण मुक़दमों की विवेचना के दौरान पुलिस पर दबाव भी कम नहीं होते हैं । ज़िला पुलिस जो सीधे जनता से जुडी रहती है, यह दबाव अक्सर झेलती रहती है । इसी दबाव और निष्पक्षता से सच सामने लाया जा सके, ऐसी विवेचनाएं जिनपर दबाव संभावित होते हैं, सीबीसीआईडी को या सीबीआई को सौंपे जाते हैं । इन एजेंसीज़ पर दबाव सामान्य राजनेताओं का नहीं पद पाता पर उच्च स्तरीय दबाव खूब पड़ता है । अब चूँकि अति महत्वपूर्ण मामलों में लोग जनहित याचिकाएं भी दायर करने लगे हैं, और न्यायालय भी सक्रिय रूप में विवेचनाओं का संज्ञान लेने लगीं है तो उन राजनैतिक दबाओं के मानने या न मानने के धर्म संकट का भारी दबाव इन जांच एजेंसियों पर पड़ता है । अखबारों और अहर्निश न्यूज़ चैनेल्स के साथ साथ  सोशल मिडिया जो, परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ , के स्थायी भाव से भरा हुआ है भी हर मामले में मीन मेख निकाल कर इन एजेंसियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालता रहता है । पुलिस ट्रेनिंग के दौरान जब भी राजनितिक दखलंदाज़ी की बात आती थी तो एक सबक जो एक वरिष्ठ अधिकारी ने कभी दिया था , अक्सर याद आता है । वह सबक यह था कि जिस भी जांच में अधिक या बार बार या विपरीत दलों से कोई दबाव आये तो, जो साक्ष्य मिलें उसी के आधार पर बढ़ना चाहिए अन्यथा मुक़दमे में मुल्ज़िम फंसता है या नहीं, यह तो बाद की बात है, पर जांच कर्ता ज़रूर विवादित हो जाएगा या फंस जाएगा ।
- क्रमशः

( विजय शंकर सिंह )

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