Tuesday 5 April 2016

पीलीभीत फ़र्ज़ी मुठभेड़ का फैसला - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

पीलीभीत मुठभेड़ फ़र्ज़ी साबित हुयी । 47 पुलिस कर्मी दोषी पाये गए और उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुयी। साथ ही प्रत्येक इन्स्पेक्टर पर ग्यारह ग्यारह लाख,  सब इंस्पेक्टर पर आठ , आठ लाख, और सिपाहियों पर पौने तीन लाख जूर्माना भी लगा। 47 आरोपियों में से दस की सुनवाई के दौरान ही मृत्यु हो गयी है । यह दुःखद समाचार है, विभाग के लिए । पर अपराध और दंड का यही दर्शन है ।

पुलिस सेवा में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी थे, जो अब नहीं हैं । वह 1981 / 82 में जिला मैनपुरी में डी एस पी थे । उनका सरकारी जीवन और कार्यकाल अत्यंत दुखद रहा। वे पढ़ने में मेधावी थे और पी पी एस की सीधी भर्ती के अधिकारी थे । नौकरी के शैशव में उत्साह और उमंग भी कम नहीं होता । आदेश पालन की भावना और आदर्शवाद भी बहुत होता है । कुछ तो उम्र का असर और कुछ तो लगता है कि सब कुछ जो अनैतिक और गैरकानूनी हो रहा है, उसे सुधारने का भी दायित्व मेरा ही है । 1980 के आस पास का मैनपुरी अत्यंत अशांत और दस्यु प्रभावित क्षेत्र था। अनार सिंह, क्षविराम , महावीर , पोथी, अलवर आदि के  गैंग चलते थे । मैनपुरी, एटा, फतेहगढ़, आगरा, इटावा आदि ज़िले इन दस्यु गिरोहों की गतिविधियों से बहुत प्रभावित थे । गिरोह भी ऐसे दुर्दांत थे कि , उनका पकड़ा जाना मुश्किल था और पकड़ते ही मुठभेड़ हो जाती थी। डकैत तो मारे ही जाते थे, पर पुलिस की भी जन हानि होती थी । उसी ज़िले में एक मुठभेड़ की घटना हुयी। मैनपुरी शहर में ही एक मुठभेड़ हुयी और उस मुठभेड़ करने वाले पुलिस दल का नेतृत्व यही डीएसपी कर रहे थे । यह मुठभेड़ विवादित हो गयी और इसकी शिकायत हुयी । शिकायत पर इसकी जांच सीबीसीआईडी द्वारा की गयी। उनके खिलाफ हत्या का मुक़दमा कायम हुआ । और अदालत में चार्ज शीट भेजी गयी। अदालत में भी इस मुक़दमे में सजा हुयी । अन्य जो भी कर्मचारी उन डीएसपी साहब के साथ इस मुठभेड़ में शामिल हुए उन सब को हत्या का दोषी साबित कर अदालत ने आजीवन कारावास की सजा दी। यह सजा सुप्रीम कोर्ट से भी बहाल रही । और उनका कैरियर जो महज़ तीन साल का ही था, न केवल बरबाद हो गया बल्कि वे जेल में ही मर गए । यह एक प्रतिभाशील अधिकारी का दुःखद अंत था ।

यह एक अकेला उदाहरण नहीं है। चूँकि वे मेरे मित्र थे और जब वे संकट झेल रहे थे तो मैं उनके गृह जनपद में ही नियुक्त था और अक्सर वे जब दुखी होते थे तो मेरे पास आते थे । उनके अलावा मैं ऐसे कई पुलिस इंस्पैक्टरों और सिपाहियों को जानता हूँ , जो फ़र्ज़ी मुठभेड़ों के मामले में न केवल मुल्ज़िम है बल्कि अपना बहुत कुछ गँवा चुके हैं । यह समस्या उत्तर प्रदेश पुलिस की ही नहीं है बल्कि देश के अन्य प्रांतों की भी है। इशरत जहां के मुठभेड़ के मामले में गुजरात में कई आईपीएस अफसर भी जेल की हवा खा चुके हैं ।मैं इशरत जहाँ के आतंकी होने या न होने के पचड़े में नहीं पड़ रहा हूँ। मैं उस मुठभेड़ के बारे में अपनी बात कह रहा हूँ, जिसे सी बी आई जांच और अदालती कार्यवाही में, फ़र्ज़ी पाया गया है ।

आप की उत्कण्ठा होगी कि मैनपुरी की घटना और गुजरात के इस चर्चित मामले का आज ज़िक्र क्यों किया जा रहा है । दोनों में क्या अंतरसंबंध है। आज जब पीलीभीत के एक फ़र्ज़ी मुठभेड़ के मुक़दमे में अदालत ने पुलिस के 47 लोगों को दोषी पाया तो इन सारी घटनाओं में अन्तर्सम्बन्ध दिखाई दिया ।
यह अन्तर्सम्बन्ध है, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में लोगों की हत्या का । मैं यहॉं जानबूझ कर लोगों शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ । किसी दुर्दांत से दुर्दांत व्यक्ति की भी फ़र्ज़ी मुठभेड़ जिसे साफ़ साफ़ कहें तो, पकड़ कर मार देने की इज़ाज़त क़ानून कभी नहीं देता। साफ़ अर्थों में यह कृत्य बिधि विरुद्ध है और हत्या है ।

पीलीभीत में भी एक घटना हुयी थी, 1991 में । जैसे 1981 के आस पास मैनपुरी दस्यु प्रभावित इलाके में आता था, वैसे ही पीलीभीत भी आतंकवाद से पीड़ित था। उस समय पंजाब में आतंकवाद ज़ोरों पर था और बहुत से खालिस्तान समर्थक गुटों से प्रभावित भी था। पीलीभीत ही नहीं, तराई के वे सभी ज़िले प्रभावित थे, जहां भारत विभाजन के बाद बहुत से सिख परिवार यहाँ बस गए थे और अपनी मेहनत से इन्होंने इस क्षेत्र की काया पलट कर दी थी । उसी साल 10 सिख युवकों की जो नानकमता गुरूद्वारे से लौट रहे थे को पुलिस ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ दिखा कर मार दिया और उन्हें सिख आतंकी गिरोहों से जुड़ा घोषित कर दिया । खैर, खून खांसी खुसी कभी छुपती नहीं है और यह खून भी नहीं छुपा। आर एस सोढी जो एक वकील थे ने दिल्ली सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर के इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई की जांच हुयी और 47 पुलिस वालों के खिलाफ चार्ज शीट दी गयी। न्याय ने अपना मुक़ाम कच्छप गति से ही प्राप्त किया पर कल इसका फैसला आया तो न केवल पुलिस की इसी मुठभेड़ पर सवाल खड़ा हुआ बल्कि उन मुठभेड़ों पर भी संदेह के बादल घिर गए, जो सच में आमने सामने और वीरता के साथ हुयी थी। संदेह बड़ा विचित्र भाव है। एक बार किसी भी घटना या व्यक्ति के बारे में उत्पन्न हो गया तो फिर उस घटना और व्यक्ति पर विश्वास जमना लगभग असंभव हो जाता है।

अक्सर सोशल मिडिया और जनता के बीच यह सुनने को मिलता है कि सजा तो होगी नहीं, गवाही कोई देगा नहीं, तो आसान रास्ता यही है कि निपटा दिया जाय । हत्या किसी भी समस्या का सबसे आसान समाधान है । मुक़दमे में किसी अपराधी की गिरफ़्तारी कठिन नहीं होती है । कठिन होती है , उसके अपराध के सम्बन्ध में सुबूतों का इकठ्ठा करना और फिर अदालत को यह विश्वास दिलाना कि , सुबूत तार्किक हैं । लेकिन पुलिस को विवेचना के सारे अधिकार, और प्रशिक्षण इसी लिए तो दिए जाते हैं । हत्या करना न तो पुलिस का काम है और न ही उसे हत्या करने की ट्रेनिंग ही दी जाती है। अगर माफिया या संगठित गिरोह के अपराधियों को सजा नहीं हो पाती तो समय समय पर साक्ष्य अधिनियम और अन्य अभियोजन व्यवस्था की कमियों का निराकरण क़ानून बना कर किया जा सकता है । पुलिस के कंधे पर बन्दूक रख कर , अभियोजन की खामियों के कारण , उसे हत्या करने के लिए उकसाना भी अपराध है ।

मैं अपने विभागीय साथियों से यही कहूँगा कि, क़ानून को लागू करते समय क़ानून के ही मार्ग का अनुसरण उचित है । अन्यथा क़ानून के लंबे हाँथ जैसे संवाद जो हम सब अक्सर बोलते हैं, वे हमारी गर्दन पर भी आ सकते हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

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