Monday 25 April 2016

रियो ओलम्पिक में सद्भावना दूत के लिए सलमान खान का चयन - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

ओलम्पिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल का आयोजन होता है । हर चार साल बाद इसका आयोजन होता है । आने वाला ओलम्पिक , रियो द जेनरो में आयोजित है । भारत उस खेल आयोजन में भाग लेता रहा है और कुछ आयोजनों में इसे सफलता भी मिलती रही है । पर जितनी सफलता मिलनी चाहिए , उतनी अभी तक नहीं मिल पायी है । इसके अनेक कारण हो सकते हैं, पर इस पर मैं अभी नहीं जा रहा हूँ । खेलों के लिए सद्भावना दूतों की भी नियुक्ति देशों से की जाती है । यह चयन देश का ओलम्पिक संघ करता है या सरकार या दोनों मिल कर तय करते हैं, इसकी स्पष्ट जानकारी मुझे नहीं है । रियो ओलम्पिक के लिए  ,सद्भावना दूत के रूप में सलमान खान का नाम तय किया गया है । सलमान का नाम किसने और क्यों तथा किन परिस्थितियों में तय किया है , यह मेरे लिए बता पाना मुश्किल होगा। पर आज के अखबारों से पता चला कि, सलमान को ही सद्भावना दूत बनाया गया है । और यह भी पता चला कि, ओलम्पिक संघ के इस फैसले पर विवाद भी हो गया है । विवाद स्वाभाविक भी है ।

सलमान खान का खेलों से क्या संबंध रहा है, यह तो सलमान जानें या खेल संघ या सरकार । पर जितना मुझे मालुम है, सलमान खान का खेलों से कोई भी सम्बन्ध नहीं रहा है । पर इस नामांकन के पीछे कोई छुपा कारण हो तो वह अलग बात है । अगर आयोजन फ़िल्म , कला आदि को ले कर होता तो, उनके नामांकन पर किसी को भी आपत्ति नहीं होती । पर खेलों के लिए हुए उनके नामांकन पर विवाद स्वाभाविक है। सलमान खान खुद भी विवादों से घिरे हैं । वे एक आपराधिक मुक़दमे में अभियुक्त हैं और उसकी सुनवाई चल रही है । एक में वे सत्र न्यायालय से सजा पा कर, पर उच्च न्यायालय से बरी हो कर , सर्वोच्च न्यायालय में अपील पर हैं । अज़ीब सोच के मुक़ाम पर हैं हम । चाहते हैं भय मुक्त और अपराध मुक्त समाज। पर जब कुछ करने का वक़्त आता है तो, दल का मुखिया हो या पुलिस का मुखिया दोनों ही हम उन्हें चुन लेते हैं, जो या तो कई मुक़दमों में अभियुक्त रहा हो, या जमानत पर रिहा हो। फिर हम उम्मीद भी करेंगे कि सब पाक साफ़ हो ।बिलकुल वैदिकी हिंसा , हिंसा न भवति की मानसिकता । सलमान एक अच्छे इंसान है, और कमाल के अभिनेता भी । पर खेल आयोजन के लिए अच्छा इंसान हो यह तो ठीक है, पर कमाल का अभिनेता भी हो, इसकी क्या ज़रूरत है ? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है ।

खेल संघों पर राजनीतिक नेताओं का कब्ज़ा रहा है । मेरे गाँव के एक बुज़ुर्ग सज्जन अक्सर कहते हैं, कि " इनहन के खाली वोट आ नोट चाही । एकरे लालच में ई कुल मनिकनिका पर बैठ जइहें और ओइजों केहू के ना छोड़िहें ! "
बात यह मज़ाक में कही गयी है पर अक्सर मज़ाक भी कैप्सूल की तरह होते हैं । मिठास में लिपटी हुयी कड़वी चीज़ की तरह। सारे खेल संघों के पदाधिकारियों की प्रोफाइल चेक कर लीजिये , तो पाइएगा कि सभी पर कोई न कोई नेता विराजमान है या कोई बड़ा अफसर । विरोध नेता का नहीं और न ही अफसर का है । एक स्टेट या नेशनल स्तर का खिलाड़ी नेता भी हो सकता है और अफसर भी । सेना और पुलिस में तो ऐसे अफसर हैं भी । कुछ नेता भी होंगे । पर मैं उनकी बात कर रहा हूँ, जो सिर्फ राजनीति के कारण खेल संघों में जमे हुए हैं । ऐसे पदाधिकारी अक्सर,  खेल की गुणवत्ता के बजाय खेल के , और खेल के माध्यम से खुद के अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में व्यस्त रहते हैं। बीसीसीआई के बारे में जो अदालती कार्यवाहियां इधर हुयी हैं और चल रही है, वह कालीन से छिपे गटर का स्पष्ट संकेत देती हैं । ऐसा नहीं है कि सरकार को पता नहीं है और प्रोफेशनल खिलाड़ी इसका विरोध नहीं करते हैं । सरकार को पता भी है, और खिलाड़ी विरोध करते करते , आजिज़ भी आ चुके हैं, पर लगाम लगाए कौन और कसे कौन । मछली की तरकारी और बिलार भंडारी, वाली कहावत है यह ।

आई ओ ए के इस फैसले का मिल्खा सिंह ने विरोध किया है । आई ओ ए का तर्क है इस से खेल लोकप्रिय होते हैं । यह बचकाना तर्क है । लोग अपनी रूचि से ही खेल देखते हैं । किसी को क्रिकेट पसंद है तो किसी को हॉकी या फुटबॉल या कोई अन्य खेल । हर खेल के अपने अपने स्टार होते हैं । उनका आकर्षण भी किसी भी फ़िल्म स्टार से कम नहीं होता है । बल्कि उनपर जब फिल्में बनती हैं तो, उसमे यही कलाकार अभिनय करते हैं । जैसे फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह का या प्रियंका चोपड़ा ने मेरीकॉम का अभिनय किया था । वह अभिनय था , मूल नहीं । आई ओ ए को किसी भी खेल में भारत में लोकप्रिय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी मिल जाएंगे जिन्हें आई ओ ए अपना सद्भावना दूत बना सकता है । पूर्व हॉकी कप्तान परगट सिंह ने इसके लिए सचिन तेंदुलकर या मिल्खा सिंह, का नाम सुझाया है । दोनों ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर जाने पहचाने नाम हैं। सचिन तो क्रिकेट में विश्व के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक है हीं । इनके अतिरिक्त अन्य खेलों से भी ऐसे सितारे छांटे जा सकते हैं । चूँकि उन्हें बड़ी कंपनियां विज्ञापन के लिए नहीं लेती, अतः वे थोड़े अल्प ज्ञात भी होते हैं ।

लोकप्रियता ही किसी सद्भावना दूत का पैमाना नहीं हो सकता है । फ़िल्म स्टार स्वाभाविक रूप से लोकप्रिय होते है। पर तभी तक जब तक वे पर्दे पर आते रहते हैं । आज जो क्रेज़ सलमान, आमिर, ऋतिक, अमिताभ का है , गुज़रे ज़माने में इस से कम क्रेज़ दिलीप, राज और देव की तिकड़ी का नहीं था । लेकिन वक़्त की धूल उन के चकाचौंध को भी धूमिल कर देती है। आज लोकप्रिय बनाने और लोकप्रियता बनाये रखने के लिए मीडिया का विस्तारित संसार है । लोकप्रिय होने के साथ विवाद रहित और उस आयोजन से ऐसा व्यक्तित्व जुड़ा हो, ऐसा होना भी ज़रूरी है । किसी साहत्यिक आयोजन में सचिन को नहीं भेजा जा सकता है, भले ही उनकी आत्म कथा बेस्ट सेलर रही हो, किसी फ़िल्म फेस्टिवल में हम मिल्खा सिंह को नहीं भेज सकते भले ही उनके जीवन और उपलब्धियों पर एक बेहतरीन फ़िल्म बनी हो, पूर्व सैनिकों या सैन्य आयोजनों पर सन्नी देवल को नहीं भेजा जाना चाहिए , भले ही फ़िल्म बॉर्डर में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया हो। सबका अपना अपना क्षेत्र है और सबकी अपनी अपनी उपलब्धियाँ है । सद्भावना दूत , उस आयोजन में देश की भावना का प्रतिनिधित्व करता है । ओलंपिक में गैर खिलाड़ी को दूत के रूप में भेजे जाने पर , खेल के प्रति देश की उपेक्षा भाव का सन्देश भी जाएगा । जो वास्तव में ऐसा नहीं है । खेल को खेल ही रहने दीजिये, उसे बाज़ार न बनाइये ।

( विजय शंकर सिंह )

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