Tuesday 19 April 2016

पाकिस्तानी हिंदुओं को भारतीय नागरिकता - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

भारत सरकार ने पाकिस्तान के हिन्दू विस्थापितों के लिए नागरिकता की घोषणा की है । हर व्यक्ति और हर समाज को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार है । पाकिस्तान के हिन्दू अल्पसंख्यक भी इसके अपवाद नहीं है । पाकिस्तान का बंटवारा , हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं के इस अज़ीब ओ गरीब सिद्धांत के आधार पर हुआ था । लेकिन जब पाकिस्तान बंटा तो पाकिस्तान की सरकार ने अल्पसंख्यक समुदायों जिसमें हिन्दू, सिख, ईसाई और बाद में अहमदिया आदि कुछ फिरके भी थे  को किसी भी प्रकार की राहत और सुरक्षा देना तो दूर की बात रही, इसके विपरीत, उन्होंने इन अल्पसंख्यकों का न केवल  उत्पीड़न किया, बल्कि ऐसा वातावरण बना दिया , जिस से इन अल्पसंख्यकों का जीना ही दूभर हो गया । 1947 में हुए व्यापक पलायन के बाद भी पाकिस्तान में अच्छी खासी जन संख्या हिंदुओं और सिखों की बच गयी थी । लेकिन आज उनका प्रतिशत बहुत ही गिर गया है । और इनका जीवन बेहद कष्टपूर्ण है । इसका सबसे बड़ा कारण वहाँ की सरकार है जिसने धर्म की मदान्धता में इनका जबरदस्त उत्पीड़न किया है और आज भी स्थिति बुरी है ।

जब पाकिस्तान का गठन हुआ था तो जिन्ना ने जो पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल थे ने कहा था कि पाक के एक इस्लामी देश होने के बावज़ूद , यहां अल्पसंख्यकों को उनकी संस्कृति और परम्परा के अनुसार उपासना की स्वतंत्रता रहेगी। लेकिन यह भी एक जुमला था और सबसे खूबसूरत वादा खिलाफी भी । जनरल जिया उल हक़ के पूर्व तो स्थिति कुछ ठीक ठाक कही जा सकती थी , पर जिया के शासन में पाक का जो इस्लामीकरण या वहाबीकरण हुआ उस से यह देश हिंदुओं के लिए नरक सदृश्य हो गया है । ईश निंदा क़ानून, शरीयत के दकियानूसी कानूनों ने पाकिस्तान को मध्ययुगीन समाज की ओर प्रत्यावर्तित कर दिया । अभी हाल ही में जो हिन्दू यहां आये थे उनकी मर्मस्पर्शी कहानियां दिल को दहला देती हैं ।

जब देश बंटा था तो, साम्प्रदायिकता के ज़हर का जो उफान था उसे धारण करने के लिए शिव जैसी प्रतिभा की आवश्यकता थी, जो उस गरल का समाधान कर सके, पर देश अपने इतिहास के उस भयानक दौर में एक विराट और स्टेट्समैन सरीखे नेतृत्व से वंचित रहा। गांधी जैसे विराट और सर्वमान्य नेता भी उस कठिन समय में बौने नज़र आये। जैसे टूट जाता है कोई बाँध और बहा ले जाता है, रुका हुआ जल, और छोड़ जाता है पीछे सिर्फ महाविनाश , कुछ ऐसा ही था । संभवतः , ज़हर का डोज़ इतना बड़ा विनाश लाएगा , किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। हम इसे खुद को सांत्वना देने के लिए अंग्रेज़ी मुहावरे टीथिंग ट्रबल जैसा वाक्य प्रयोग में ले आएं , पर यह सच में सन्निपात था । हम उबर गए, यह अलग बात है । अगर इसकी कुछ भी कल्पना नेताओं ने बंटवारे की चर्चा के पहले की होती तो शायद यह बच सकता था । पर  यही नियति थी । यही कह कर आगे बढ़ता हूँ ।

हर देश का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को सम्मान पूर्वक जीने के लिए न केवल वातावरण बनाये बल्कि उन्हें पूरा सरक्षण भी दे । पाकिस्तान सरकार अल्पसंख्यकों को तो छोड़िये खुद अपने ही धर्म के ही लोगों को, जिनके बेहतरी के लिये , उन्होंने एक नया देश बनाया था, को सम्मान पूर्वक रखने में असमर्थ दिख रही है । पाकिस्तान और बांग्लादेश से हिंदुओं का स्वाभाविक पलायन अगर होगा तो भारत में ही होगा । केवल इसलिए नहीं कि यहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं बल्कि देश के सरकार और जनता की मनोवृत्ति भी सबको सम्मान से जीने देने की है । और हिंदुओं की इच्छा भी यही होगी कि वे इस देश के नागरिक बनें और यहीं वैधानिक रूप से रहें । जब देश का भूभाग बँटा था तो, जो भूभाग पाकिस्तान और अब बांग्लादेश के पास है में उसमें उन सिखों और हिंदुओं का भीं अधिकार था, जो बंटवारे के बाद अपना मूल देश छोड़ कर नहीं गए, और पाकिस्तान और अब बांग्लादेश  को ही अपनी मातृभूमि मान ली । वही रहे और वे वहां के नागरिक भी हैं ।  बंटवारे के मसौदे में ऐसा कोई प्राविधान नहीं था, जिस से उन हिंदुओं और सिखों को उस भूभाग में रहने से रोका गया हो । नया बंटा पाकिस्तान भी जितना मुस्लिमों का था उतना ही उन हिन्दू और सिखों का भी था जो वहीँ रह गए । आज जब दोनों देशों से सिर्फ हिन्दू और सिख होने के कारण उत्पीड़ित जन जब, भारत आ रहे हैं और नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं तो इनकी जनसंख्या के अनुपात में पाकिस्तान और बांग्लादेश से उतनी भूमि भी ली जानी चाहिए ।

हालांकि यह आसान नहीं है । इस सम्बन्ध में अंतराष्ट्रीय क़ानून और परम्पराएँ क्या कहती हैं  इसे भी देखना होगा। भारत पाक के बीच जब भी वार्ता हो , धर्म के नाम पर् उत्पीड़ित जन समुदाय का मुद्दा भी उठाया जाना चाहिए । पाकिस्तान के साथ सुदृढ़ सीमा होने के कारण यह समस्या पाकिस्तान की ओर से उतनी नहीं है जितनी बांग्लादेश की ओर से है । बांग्लादेश की सीमा उतनी सुदृढ़ता से सुरक्षित नहीं है । 1971 में भारत का बांग्लादेश मामले में दखल का एक कारण यह भी था, कि बांग्ला सीमा से व्यापक पलायन हुआ था । नागरिकता , देना एक सदाशयता है, सराहनीय है, पर यह समस्या का समाधान नहीं है । यह उन देशों में उत्पीड़न को तो बढ़ाएगी ही और हिन्दू आबादी को भारत जाने के लिए उकसायेगी भी । यह एक और बड़ी समस्या होगी ।

( विजय शंकर सिंह )

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