Wednesday 9 March 2016

विजय माल्या फरार नहीं हुए हैं ! / विजय शंकर सिंह

विजय माल्या फरार नहीं हुए है ! उन्होंने देश छोड़ा है। वे भला फरार कैसे हो सकते हैं ? वे तो देशभक्त है । याद है न, वे टीपू सुलतान की तलवार और गांधी जी से जुडी कुछ वस्तुएं नीलाम में ले कर आये थे। उनका जज़्बा , उनकी देशभक्ति का पूरा देश कायल था कभी। 7000 करोड़ की ही तो बात है। आधा प्रतिशत बैंक उबारू सेस लगा कर सारे बैड लोन , को गुड लोन में बदल सकते हैं। सरकार को इस पर विचार करना चाहिए ! वे मेरे नाम राशि हैं। पर उन्हें मैं बिलकुल नहीं जानता हूँ। मिलने का तो सवाल ही नहीं। पर उनकी कहानियां ज़रूर अखबारों में पढ़ा हूँ। उनका कैलेण्डर भी देखा है और मुझे वह पसंद भी आया है। आज जब समाचार देखा तो पता चला कि उधर ये मंहगे वकीलों की फ़ौज़ लिए उन्हें रोकने को आमादा थे और वे चुपचाप खिसक लिए। पता नहीं लुक आउट नोटिस थी भी या नहीं। या सब महठिया गए थे, या मानवता जाग गयी थी, राम जाने क्या हुआ था, वे परदेस निकल गए।

यह पहली महाभिनिष्क्रमण टाइप फरारी नहीं है, और न ही आखिरी ही होगी। याद कीजिए क्वात्रोची सर को। वे भी सरक गए थे, जब बोफोर्स की तोप गरजने लगी थी तो। उनसे पहले एक एंडरसन जनाब थे। भोपाल में जो हवा इन्होंने छोड़ी थी उसका असर आज तक भी है। वह भी जब मामला गरमाया तो निकल लिए। शोर तो मचा। संसद में भी और सड़क पर भी। शोर उन्होंने भी मचाया जो चाहते थे भाग जाएँ। पर हुआ कुछ नहीं। किसी का इंटरेस्ट एंडरसन के भाग जाने पर था तो कोई मायके के मोह से पीड़ित निकला और उधर जांच की केस डायरी में दरोगा जी ने परचा काटा और मुल्ज़िम फरार। चिल्लाते रहें कप्तान साहब, अब मूलज़िम फरार तो फरार।

तीसरा किस्सा जो मुझे याद है, ललित मोदी का। यह कथा अत्यंत लालित्य समेटे हैं। कभी यह सज्जन क्रिकेट में अभिनव प्रयोग के लिए याद किये जाते थे। खिलाड़ी पहली बार नीलाम हुए। उनकी पैंठ लगी जैसे पशु मेले लगते हैं। जिसे क्रिकेट के बॉल का वज़न और क्रीज़ का कदम भी पता न हो वह भी अजीबोगरीब नाम धर कर खरीदना लगा। नयी पीढी तो पगला ही गयी। अच्छा है इसी खेल तमाशे में उलझी रहे, अन्यथा सोचने और पढ़ने लगेंगे तो आफत ही जोत देंगे ! खूब पैसा आया। धन और नेता का सम्बन्ध गुड़ च्यूंटे जैसा है। धकाधक नेता खेल में आये। और जब नेता इसमें आये तो पूंजीपति भी शामिल हो गए। यह खेल जिसे अंग्रेज़ बड़े शान से गेम ऑफ़ द लॉर्ड्स यानी भद्र लोगों का खेल कहते थे, भारत में आ कर , कलियुग के चौथे पन में दलालों, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, अफसरों और सट्टेबाजों का खेल बन गया। यही ललित मोदी , किसी समय राजस्थान के सत्ता के बरामदे में सबसे चहेते चेहरे थे और वसुंधरा जी के नाक के बाल थे। पर नाक का बाल ऐसा इरेज हुआ कि सीधे टेम्स के किनारे दिखा। फिर शुरू हुआ, कौआ रोर। कैसे भागा, कौन भगाया, कब भागा और न जाने क्या क्या । चिल्ला और पूछ सभी रहे थे, जिसने भगाया वह भी और जिसे कुछ मालुम नहीं था तो वह तो शोर मचायेगा ही। बाद में इस ललित कथा में एक मोड़ भी आया। सरकार ने चुपके से मदद की, सोचा कि किसी को पता ही नहीं चलेगा , बात आयी गयी हो जायेगी। पर जब से कर लो दुनिया मुट्ठी में का परम ज्ञान सब को प्राप्त हो गया है, यह बात भी खुल ही गयी। फिर क्या था। हम सब तो परम तार्किक परम्परा के ठहरे। एक नंबर के आर्गुमेंटेटिव। कह दिया कि , उनकी पत्नी बीमार थी, तो मानवीय आधार पर मदद कर दी। चलिए कहा सुना माफ़ किया। नियम भी है एम्बुलेंस को सबसे पहले वरीयता दी जाय!

पर यह सारी मानवी भावनाएं धन पशुओं के लिए ही क्यों जागती हैं ? यह सवाल न तो नया है और न ही इसका उत्तर भी सबके लिए अनजान है। दर असल मानवीय भावनाएं जागती हैं या नहीं पर वे एक आड़ के रूप में ज़रूर सामने आती हैं। जितना क़र्ज़ देश के बड़े पूंजीपतियों पर बकाया है और जितना वह डूब गया है या डूबने की कगार पर है, उसका 10 प्रतिशत अंश कृषि क्षेत्र में किसानो पर है।मैंने किसी भी बड़े पूंजीपति को क़र्ज़ में डूब जाने पर आत्म हत्या करते नहीं देखा है। मध्यम स्तर के व्यापारियों को ज़रूर क़र्ज़ डूबने पर आत्म हत्या करते सुना है, पर देश में हर हफ्ते किसान आत्म हत्या कर रहे हैं यह खबर आती तो है पर अब झकझोरती नहीं है।

2014 में 5642 किसानों ने आत्महत्या कर ली। हिन्दू अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र में 2001 से लेकर 2015 तक 20,504 किसानों ने आत्महत्या की है। 26 फरवरी 2016 के इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में लिखा है कि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में 2015 में 1100 किसानों ने आत्महत्या की और इस साल जनवरी-फरवरी में 139 किसानों ने आत्महत्या की है। कर्ज़ न चुका पाना आत्महत्या का बड़ा कारण है।

अब जरा आंकड़ों पर नज़र डालें।
2013 से 2015 के बीच भारत के सरकारी बैंकों ने बड़ी-बड़ी कंपनियों का 1.14 लाख करोड़ का डूबा हुआ कर्ज़ माफ़ कर दिया। देश के क़रीब आधे किसान कर्ज़ में डूबे हैं। इनमें से 42 फीसदी बैंकों के कर्ज़दार हैं और 26 फीसदी महाजनों के कर्ज़दार हैं।
31 मार्च, 2015 तक देश के टॉप पांच बैंकों का 4.87 लाख करोड़ रुपया सिर्फ़ 44 बड़ी कंपनियों पर बकाया था। ये सभी बकाएदार वो हैं जिन पर पांच हज़ार करोड़ से ज़्यादा का बकाया है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने ऐलान किया है कि 21,313 करोड़ का कर्ज़ अब वापस नहीं मिल सकता।
लेकिन क्या ऐसी पहल छोटे क़र्ज़ लेने वाले किसानों या मध्यम दर्जे के व्यापारियों के लिए किसी बैंक ने कभी की है ? शायद नहीं।

विजय माल्या की कंपनी किंगफिशर एयरलाइन्स जो अब बंद हो चुकी है और इस पर 17 कर्ज़दाताओं के 7800 करोड़ रुपए बकाया हैं। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के 1600 करोड़ रुपया किंगफिशर पर बाकी हैं। बाकी कर्ज़दाताओं में पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, ककनरा बैंक, बैंक ऑफ़ इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, फेडरल बैंक, यूको बैंक और देना बैंक शामिल हैं। किंगफिशर एयरलाइंस ने घाटे में जाने के बाद जनवरी 2012 से कर्ज़ चुकाना जाना बंद कर दिया था। पिछले साल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने माल्या को विलफुल डिफॉल्‍टर यानी जानबूझकर कर्ज़ ना चुकाने वाला घोषित कर दिया। पंजाब नेशनल बैंक ने भी विजय माल्या उनकी कंपनी यूनाइटेड ब्रुअरीज़ होल्डिंग्स और किंगफिशर एयरलाइंस को विलफुल डिफॉल्‍टर घोषित किया था।

इस बीच स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया विजय माल्या के ख़िलाफ़ डेट रिकवरी ट्रि‍ब्यूनल चला गया। स्टेट बैंक ने कहा कि डियाजिओ कंपनी से यूपी ग्रुप के प्रमोटर विजय माल्या को 515 करोड़ रुपए मिल रहे हैं, उस पर कर्ज़दारों का पहला हक़ होना चाहिए। बैंक ने डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल से कहा है कि माल्या के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए। ट्रिब्यूनल ने प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहले उस याचिका को लिया जिसमें डियाजिओ से मिली रकम पर पहला हक़ कर्ज़दाताओं का बताया गया है। विजय माल्या के वकील होला ने कहा कि उनके मुवक्किल रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों के मुक़ाबले बहुत छोटे डिफ़ॉल्टर हैं। उनका आरोप है कि बैंक छोटे डिफॉल्टरों को परेशान कर रहे हैं जबकि बड़े डिफॉल्टरों को छोड़ रहे हैं। उन्होंने रिज़र्व बैंक का हवाला देते हुए कहा कि बैंक बड़ी मछलियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करते हैं। कई कंपनियों ने तो चालीस हज़ार करोड़ तक का डिफ़ॉल्ट किया है और उन्हें कुछ नहीं होता। मतलब अभी और भी बड़े बड़े क़र्ज़ खोर बैठे हैं। माल्या सर तो बेचारे हैं !

इंडियन एक्सप्रेस ने आरटीआई के ज़रिये पता किया है कि सरकारी बैंकों ने पिछले तीन साल में 1 लाख 14 हज़ार करोड़ रुपये माफ किये हैं। जिसे अंग्रेजी में राइट ऑफ कहते हैं। भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस टी.एस. ठाकुर की बेंच ने कहा है कि लोगों पर सरकारी बैंकों के हज़ारों करोड़ रुपये के कर्ज़ हैं। यह सबसे बड़ा फ्रॉड है। 2015 में दस बड़े बैंकों ने 40,000 करोड़ के कर्ज़ माफ कर दिये। कोर्ट ने ऐसे लेनदारों की सूची भी मांगी है जिन्होंने 500 करोड़ से अधिक के कर्ज़ लिये हैं।

क्या सरकार और रिजर्व बैंक कोई ऐसा दंडात्मक प्राविधान बनाएंगे जिस से देश के कर से प्राप्त धन का ऐसा बन्दर बाँट न हो ने पाये ?
( विजय शंकर सिंह )

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