Thursday 21 January 2016

रोहित की आत्महत्या - क्या समस्याएं और भी हैं ? / विजय शंकर सिंह

जब भी कोई बड़ी घटना होती है तो उस पर राजनीति होने लगती है. जो विपक्ष में रहता है वह विरोध की और जो सत्ता में रहता है वह समर्थन की मुद्रा में आ जाता है. वक़्त के साथ साथ मंच और संवाद , तर्क और वाग्जाल , अभिनय और मुद्रा वही रहती है पर केवल किरदार बदल जाते हैं. चाहे घटना रोहित की आत्महत्या हो या अन्य कोई. रोहित की आत्महत्या से जो सवाल उभरे थे, वे या तो नेपथ्य में चले गए या नेपथ्य में धकेल दिए गए, और वह सवाल सामने खींच कर लाये गए जिनका सिस्टम की बेहतरी से कोई सम्बन्ध नहीं है. रोहित की आत्महत्या एक दलित की आत्महत्या बना कर प्रस्तुत की जा रही है, एक प्रतिभावान छात्र की नहीं जो एक राजनैतिक विचारधारा की दुरभिसंधि से सम्पुटित विश्वविद्यालय प्रशासन की असफलता है. रोहित प्रतिभावान छात्र था, और वह वाम पंथी विचारधारा से प्रभावित था. उसका प्रवेश डॉक्टरेट में सामान्य श्रेणी में हुआ था और उसकी सामाजिक राजनीतिक सरोकारों में रूचि भी थी. वह आम्बेडकर की विचार धारा से प्रभावित था. उसने आम्बेडकर स्टूडेंट एसोशिएसन ASA के नाम से एक संस्था बनायी थी. दुर्भाग्य से आम्बेडकर अपनी सारी प्रतिभा और मेधा के बावज़ूद, एक दलित नेता के ही रूप में देखे जाते हैं. अतः उनसे जुड़े संगठन और लोग दलित के स्टैम्प से उबर नहीं पाये हैं. ASA और ABVP  में वैचारिक मतभेद है. यह वैचारिक मतभेद छात्र और युवा होने के कारण अक्सर बहस मुबाहिसे से अलग हट कर मार पीट पर भी उतर जाता था. उसी झगडे का का एक कारण यह घटना है.

जब आप इस घटना को दलित एंगल से ही देखेंगे तो, यह दृष्टिदोष समस्या की जड़ तक आप को पहुँचने नहीं देगा. हालांकि दलित एंगल से देखने के कारण राजनीतिक दलों को अधिक डिविडेंड मिलेगा पर इस से वह बीमारी दूर नहीं होगी, जिसका दुष्परिणाम यह घटना है.
समस्या है , विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का राजनीतिक आक़ाओं के समक्ष आत्मसमर्पण,
समस्या है सरकार का राजनीतिक दलीय विचारधारा के आधार पर विश्वविद्यालयों के काम काज में दखल.
समस्या है नियुक्ति से ले कर प्रोन्नति में भेदभाव और स्वायत्तता की कीमत पर सरकार का दखल.
समस्या है कुलपतियों की नियुक्ति की कोई निर्धारित नियमावली का न होना.
इनके अतिरिक्त और भी समस्याएं होंगी, जो मित्र विश्वविद्यालयों से जुड़े हैं वे मुझसे अधिक इस विषय में जानते होंगे.
पर किसी भी राजनैतिक दल ने विश्वविद्यालय प्रशासन के इस मौलिक बीमारी पर न तो ध्यान दिया और न ही इसे बहस का मुद्दा बनाया. क्यों कि यह बीमारी  उन्हें भी रास आयी थी, जब वे सत्ता में थे या जब वे सत्ता में आएंगे.

प्रशासनिक सुधार किसी भी राजनैतिक दल के एजेंडे में नहीं होता है. और अगर वह होता भी है तो कोई भी सरकार कभी उस एजेंडे पर काम भी नहीं करती है. आप पुलिस सुधार या प्रशासनिक सुधार आयोग की रपटें देख लें , इन पर समितियां उपसमितियों बनती रहती हैं  , उनकी अनुशंसाएं आती रहती हैं और वह पड़े पड़े फाइलों में धूल खाती रहती हैं. ऐसा नहीं की वैचारिक आधार पर नियुक्तियां आज ही हो रही हैं, बल्कि यह नियुक्तियां पहले भी होती रहीं हैं और आगे भी होती रहेंगी. फिर भी विश्वविद्यालय का प्रशासन निष्पक्ष और शैक्षणिक हो इसके लिए योग्य प्रशासक की नियुक्ति होना आवश्यक है. ऐसा कभी भी संभव नहीं है कि, किसी एक विश्वविद्यालय में एक ही विचारधारा के मानने वाले सभी छात्र हो. समाज में कोई आर एस एस की विचारधारा , तो कोई मार्क्सवादी विचारधारा, तो कोई लोहियावादी विचारधारा का होता है. सबके अपने अपने तर्क और दर्शन हैं. पर किसी विचारधारा को ही देशद्रोही साबित कर उसे लांछित करने की जो परम्परा कुछ स्वयंभू राष्ट्रवादी मित्रों में आ गयी है यह भी एक प्रकार की अधिष्णुता ही है. टिटिहरी की मानसिकता से ऐसे मित्रों को उबरना होगा. वैचारिक बहस किसी भी विचारधारा की जीवंतता ही नहीं बताती है, उसका खोखलापन भी सामने लाती है.

रोहित की आत्महत्या के कारणों और परिणामों के साथ साथ , विश्वविद्यालयों या शैक्षणिक संस्थानों की बुराइयों की पहचान  , पड़ताल और उनका निदान किया जा सकता है. इसे दलित और देशद्रोही के खांचे में रख कर देखेंगे तो ऐसे घटनाएं आगे भी होंगी. रोहित की आत्महत्या उस मानसिकता, और उन कमियों का दुखद परिणाम है, जो आज भी ज़िंदा है. इसका निदान आवश्यक है. सरकार ने रोहित के मामले में अपराध का मुक़दमा दर्ज़ कर लिया है. उसकी तफतीश भी हो रही होगी. पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ऐसे मुक़दमे में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वालों के खिलाफ साक्ष्य मुश्किल से ही मिलता है.
-vss.

Wednesday 20 January 2016

' कारण कौन नाथ मोहिं मारा ' / विजय शंकर सिंह .


आत्महत्या कायरता है !
और विपन्नता, सामाजिक भेदभाव, जाति से जुड़े सम्मान और जाति के उद्बोधन से उपजता और ध्वनित होता हुआ, अपमान और अपशब्द, वीरता है क्या ?
अब कहा जा रहा है कि, उसकी जाति अनुसूचित नहीं थी. वह पिछड़ी जाति का था. जैसे पिछड़ी जाति का होता और मर जाता तो कोई विशेष बात नहीं होती. फिर पता लगा कि उसकी माँ ने बताया कि वह अनुसूचित जाति का है. एक अखबार लिखता है वह संगतराश , या पथरकट जाति का है. जो भी हो अपनी माँ के लिए वह भी अनमोल था, यह अलग बात है कि मुनव्वर राणा की तरह माँ पर वह उतने खूबसूरत शब्द न लिख पाता हो.
विपन्नता अभिशाप है. दरिद्रता पाप है. पर इस दरिद्रता और विपन्नता के जो सूत्रधार हैं क्या वे इस पाप और अभिशाप के लिए जिम्मेदार नहीं है. वह प्रतिभाशाली छात्र था। उसका प्रवेश सामान्य श्रेणी में हुआ था। अनुसूचित जाति का लाभ उसने नहीं लिया था. 

विश्वविद्यालयों में राजनैतिक आंदोलन चलते रहे हैं. जब 1973 से 76 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मैं था तो भी समाजवादी युवजन सभा, विद्यार्थी परिषद, एस एफ आई , ए आई एस एफ आदि छात्र संगठन थे जो वैचारिक स्तर पर विचार गोष्ठियां आयोजित करते रहते थे. आंबेडकर तब उतने चलन में नहीं थे. आम्बेडकर , चलन में तब आये जब बाम सेफ और डी एस 4 , आदि ने उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के रूप में 1985 में एक राजनैतिक दल का गठन किया. फिर तो आम्बेडकर कुछ दलों की मज़बूरी बन गए उन्हें दरकिनार कर राजनीति की ही जा सकती है। 

ऐसा नहीं है कि किसी विश्वविद्यालय में आत्म हत्या की यह पहली घटना हो. कानपुर आई आई टी में लगभग हर दूसरे  , तीसरे साल कोई न कोई छात्र आत्म हत्या करता ही है. कारण संस्थान की गलती है या छात्र का भाग्य पता नहीं . संस्थानों में आत्म हत्याएं क्यों होती हैं. क्या इस पर भी सरकार ने कोई अध्ययन किया है , मुझे नहीं पता. हो सकता हो किया भी हो.
सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि, वह याक़ूब मेमन के फांसी का विरोधी था. यह भी कहा गया है कि उसने इस फांसी के विरोध में विश्वविद्यालय में कोई प्रदर्शन भी किया था.
याक़ूब की फांसी का विरोध तो बहुत से विद्वानों और बुद्धिजीवियो ने भी किया था. यहां तक कि अंतिम समय में भी याचिका दायर कर के उसे रुकवाने की कोशिश भी की गयी थी. सुप्रीम कोर्ट को आधी रात उस याचिका की सुनवाई करनी पडी और उस याचिका को निरस्त कर कोर्ट ने फांसी की सजा को बहाल रखा. दुनिया के आधे से अधिक देशों में फांसी की सज़ा का प्राविधान समाप्त कर दिया गया है। खुद भारत के विधि आयोग ने भी फांसी की सजा समाप्त करने की संस्तुति कर रखी है। 
याक़ूब की फांसी का विरोध क्या राष्ट्रद्रोह है ?
अगर है तो, इन सब के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह के लिए कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की गयी ?
क्या विश्वविद्यालय प्रशासन ने रोहित को याक़ूब की फांसी का विरोध करने पर  कोई वैधानिक नोटिस दी ?
( मैं खुद याक़ूब के फांसी का विरोध करने वालों का विरोधी हूँ. मेरा तर्क है कि, फांसी की सजा , कानूनन दी गयी है और उसका विरोध भी कानूनन हो चुका है, और सर्वोच्च न्यायालय ने सारी विरोध की अपीलें भी निरस्त कर दी और सजा बहाल कर दिया. तब विरोध का कोई औचित्य नहीं था. )

एक तर्क और दिया जा रहा है कि वह विवेकानंद का विरोधी था. अगर उसने विवेकानंद के विरोध में आंबेडकर को उद्धृत किया था या विवेकानंद की आलोचना की थी तो क्या इस से उसका उत्पीड़न जायज़ ठहराया जा सकता है ? क्या विवेकानंद की आलोचना का जवाब , रोहित के तर्कों को काट कर नहीं दिया जाना चाहिए था ? ईश निंदा का कोई भी कांसेप्ट भारतीय परम्परा में नहीं रहा है. यहां विष्णु को भी , भृगु की लात खानी पडी थी. और कही भी भृगु ऋषि की निंदा नहीं की गयी है.

एक अन्य तर्क दिया गया कि उसने बीफ पार्टी का आयोजन किया था .
क्या बीफ खाना देश में प्रतिबंधित है ?
क्या तेलंगाना में बीफ खाने पर कानूनन रोक है ?
क्या बीफ खाने की बात जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ऋषि कपूर जैसे लोगों ने नहीं स्वीकारी ?
इनके खिलाफ क्या कार्यवाही की गयी ?
ये तो आज भी धड़ल्ले से जो मर्ज़ी खा रहे हैं, जो मर्ज़ी कह रहे हैं , जो मर्ज़ी लिख रहे हैं.
अगर बीफ पार्टी का आयोजन गैर कानूनी था तो , रोहित के विरुद्ध कोई अपराधिक मुक़दमा क्यों नहीं किया गया ?
मैं बीफ खाने और बीफ पार्टी के आयोजन का समर्थक नहीं हूँ. बल्कि विरोधी हूँ. मैं उस पशु का मांस खाने का विरोधी हु जिस से बहुसंख्यक की भावनाएं जुडी हों. उत्तर प्रदेश में गो वध एक दंडनीय अपराध भी है.
पर मैं क़ानून के उल्लंघन का कानूनी उपचार चाहता हूँ.

रहा सवाल कायरता का तो यह पूरा का पूरा समाज ही कायर है. सदियों के दलन ने उसे उस बीहड़ खोह में निरुद्ध रख दिया है जहां कायरता और आत्म सम्मान का भाव आत्मा तक समा गया है.  जब वे अब सिकुड़ कर खड़े होने की कोशिश भी करते हैं तो , कुछ को उनका यह अहंकार चुभने लगता है. इसी देश में , ई वी रामास्वामी पेरियार ने खुले आम ईश्वर की निंदा की, हिन्दू देवी देवताओं का अपमान किया, तमिलनाडु के बर्बर ब्राह्मणवाद के विरोध में ज़बरदस्त दलित आंदोलन खड़ा कर दिया , पर उन्हें भी इस सहिष्णु समाज ने पचा लिया. पेरियार संभवतः अकेले ऐसे महापुरुष है जिनकी जीवित रहते सबसे अधिक प्रतिमाएं दक्षिण भारत में हैं  यह आम्बेडकर के पहले की बात है. आम्बेडकर ने देश नहीं छोड़ा, पर उन्होंने उस धर्म को ज़रूर छोड़ दिया जिसने उनके पुरुखों को ज़लालत के सिवा कुछ भी नहीं दिया था . उन्होंने अपनी मेधा और प्रतिभा से यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा किसी जाति का विशेषाधिकार और चेरी नहीं है.

कुछ मित्र कहते हैं कि वह वाम पंथी था. क्या वामपंथ की विचारधारा या मार्क्सवाद इस देश में प्रतिबंधित हो गया है ? इरादा ज़रूर होगा कि इसे प्रतिबंधित कर दिया जाय. पर ऐसा करने का न तो साहस है और न ही सामर्थ्य. हाँ, इसे प्रतिपन्धित न कर पाने की कुंठा ज़रूर है कुछ लोगों में। और उसी कुंठा का परिणाम रोहित की आत्म हत्या और आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सिद्धार्थ वरदराजन के भाषण का विरोध है . कुछ मित्र भूल जाते हैं कि भारत की आत्मा ही बहुलतावादी संस्कृति की रही है. हर विचार का स्वागत हुआ है. खंडन मंडन और शास्त्रार्थ की एक जीवंत परंपरा रही है. माथे पर तिलक, गले में माला और कंधे पर भगवा गमछा धारण कर उद्दंडता करना ही आज के कुछ मित्रों का हिंदुत्व हो गया है. अब जब यह घटना हुयी तो कहा जा रहा है इसे जाति के चश्मे से न देखा जाय. 14 के चुनाव के दौरान प्रधान मंत्री जी कहते थे क्या छोटी जाति में जन्म लेना गुनाह है ? खुद को वे कभी किसी न किसी पिछड़ी जाति का ही बताते थे. चुनाव बिना जातिगत समीकरणों के जीता नहीं जा सकता. हालांकि इस के अपवाद भी रहे हैं. पर लोकतंत्र की यह अजब विडम्बना है. क्या प्रधान मंत्री जी यही सवाल अपने एच आर डी मंत्री से पूछेंगे ?
- vss 

Tuesday 19 January 2016

रोहित की आत्म ह्त्या के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह


 

हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटना से राष्ट्र का सम्मान बढ़ा या घटा यह तो राष्ट्रवादी जानें पर इस घटना से एक बात साफ़ है कि खुद को धर्म का सबसे बड़ा रक्षक समझने वाला गिरोह, अगर आंबेडकर का नाम लेता है, या खिचड़ी भोज का आयोजन करता है तो यह एक हाई प्रोफाइल नाटक है. कभी वह आरक्षण की समीक्षा की बात करता है, कभी सामाजिक समानता की, तो कभी विराट हिंदुत्व के गौरवशाली अतीत की. पर सच तो यह है आंबेडकर की प्रशंसा करना उसकी मज़बूरी है. इसी लिए जब प्रशंसा की बात आती है तो वह अत्यंत मुक्त कंठ से , सप्तम स्वर से प्रसंशा करते हैं. लेकिन जब उनकी नीयत , और नीति देखें तो , चाल चरित्र और चिंतन , सब बदला हुआ होता है , चेहरा ज़रूर वे कुछ अलग दिखाते हैं.

जो कुछ भी हैदराबाद विश्वविद्यालय में हुआ है उसकी कड़ी मैं थोड़ा अतीत से उठाता हूँ. वाराणसी में संस्कृत विश्वविद्यालय की यह घटना है. बनारस मे संस्कृत का एक प्रसिद्ध कॉलेज था. जिसे अंग्रेजों ने स्थापित किया था. यह कॉलेज जब, डॉ सम्पूर्णानंद 

मुख्य मंत्री हुए तो उन्होंने संस्कृत विश्वविद्यालय में उच्चीकृत कर दिया, और इसका नाम हुआ वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय. बाद में उसके नाम के साथ सम्पूर्णानंद का नाम जोड़ दिया गया. डॉ सम्पूर्णानंद की एक प्रतिमा, विश्वविद्यालय के बाहर एक चौराहे पर लगाई गयी और उस प्रतिमा का अनावरण बाबू जगजीवन राम ने किया. जगजीवन राम के हांथों उस प्रतिमा का अनावरण किया जाना विश्वविद्यालय के छात्र संघ को उचित नहीं लगा. उस प्रतिमा को गंगा जल से धो कर, उसकी शुद्धि की गयी. छात्र संघ के अध्यक्ष उस समय विजय शंकर पांडे थे. यह मानसिकता 70 के दशक की थी. और अब हैदराबाद, कुल चालीस साल हो गए पर यह मानसिकता नहीं बदली तो नहीं बदली.

कुछ लोग एकलव्य और द्रोणाचार्य की बात करते हैं. द्रोण ने तो एकलव्य को शिष्य ही नहीं बनाया था. एकलव्य ने द्रोण की प्रतिमा के समक्ष धनुर्विद्या का अभ्यास किया. पर द्रोण, यह समझ गए कि यह भील बालक उनके प्रत्यक्ष शिष्य अर्जुन को पछाड़ देगा तो उन्होंने अपने प्रच्छन्न शिष्य के दाहिने हाँथ का अंगूठा ही कटवा लिया. एकलव्य की बड़ी प्रसंशा की जाती है. उसे आदर्श शिष्य भी कहा जाता है. पर द्रोण को केवल इसी व्यवहार से मैं आदर्श गुरु नहीं मान सकता. जिस एकलव्य को द्रोण ने कभी कोई शिक्षा नहीं दी , उस से गुरुदक्षिणा मांगने का उनका क्या नैतिक अधिकार था. पर हम तर्क प्रिय लोग इसमें भी कुछ कुछ तर्क ढूंढ ही लेंगे. यह मानसिकता आज भी है. और इसी मानसिकता का परिणाम रोहित वेमुला की आत्म हत्या है.

दलित समुदाय से आने वाले रोहित को उनके चार अन्य साथियों के साथ कुछ दिनों पहले हॉस्टल से निकाल दिया गया था.
इसके विरोध में वो पिछले कुछ दिनों से अन्य छात्रों के साथ खुले में रह रहे थे. कई अन्य छात्र भी इस आंदोलन में उनके साथ थे.
आत्महत्या से पहले रोहित वेमुला ने एक पत्र छोड़ा है. यहां हम अंग्रेज़ी में लिखे उनके पत्र का हिंदी में अनुवाद दे रहे हैं.

गुड मॉर्निंग,
आप जब ये पत्र पढ़ रहे होंगे तब मैं नहीं होऊंगा. मुझ पर नाराज़ मत होना. मैं जानता हूं कि आप में से कई लोगों को मेरी परवाह थी, आप लोग मुझसे प्यार करते थे और आपने मेरा बहुत ख़्याल भी रखा. मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है. मुझे हमेशा से ख़ुद से ही समस्या रही है. मैं अपनी आत्मा और अपनी देह के बीच की खाई को बढ़ता हुआ महसूस करता रहा हूं. मैं एक दानव बन गया हूं. मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था. विज्ञान पर लिखने वाला, कार्ल सगान की तरह. लेकिन अंत में मैं सिर्फ़ ये पत्र लिख पा रहा हूं.
मुझे विज्ञान से प्यार था, सितारों से, प्रकृति से, लेकिन मैंने लोगों से प्यार किया और ये नहीं जान पाया कि वो कब के प्रकृति को तलाक़ दे चुके हैं. हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं. हमारा प्रेम बनावटी है. हमारी मान्यताएं झूठी हैं. हमारी मौलिकता वैध है बस कृत्रिम कला के ज़रिए. यह बेहद कठिन हो गया है कि हम प्रेम करें और दुखी हों.
एक आदमी की क़ीमत उसकी तात्कालिक पहचान और नज़दीकी संभावना तक सीमित कर दी गई है. एक वोट तक. आदमी एक आंकड़ा बन कर रह गया है. एक वस्तु मात्र. कभी भी एक आदमी को उसके दिमाग़ से नहीं आंका गया. एक ऐसी चीज़ जो स्टारडस्ट से बनी थी. हर क्षेत्र में, अध्ययन में, गलियों में, राजनीति में, मरने में और जीने में.
मैं पहली बार इस तरह का पत्र लिख रहा हूं. पहली बार मैं आख़िरी पत्र लिख रहा हूं. मुझे माफ़ करना अगर इसका कोई मतलब निकले तो.
हो सकता है कि मैं ग़लत हूं अब तक दुनिया को समझने में. प्रेम, दर्द, जीवन और मृत्यु को समझने में. ऐसी कोई हड़बड़ी भी नहीं थी. लेकिन मैं हमेशा जल्दी में था. बेचैन था एक जीवन शुरू करने के लिए. इस पूरे समय में मेरे जैसे लोगों के लिए जीवन अभिशाप ही रहा. मेरा जन्म एक भयंकर दुर्घटना थी. मैं अपने बचपन के अकेलेपन से कभी उबर नहीं पाया. बचपन में मुझे किसी का प्यार नहीं मिला.
इस क्षण मैं आहत नहीं हूं. मैं दुखी नहीं हूं. मैं बस ख़ाली हूं. मुझे अपनी भी चिंता नहीं है. ये दयनीय है और यही कारण है कि मैं ऐसा कर रहा हूं.
लोग मुझे कायर क़रार देंगे. स्वार्थी भी, मूर्ख भी. जब मैं चला जाऊंगा. मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लोग मुझे क्या कहेंगे. मैं मरने के बाद की कहानियों भूत प्रेत में यक़ीन नहीं करता. अगर किसी चीज़ पर मेरा यक़ीन है तो वो ये कि मैं सितारों तक यात्रा कर पाऊंगा और जान पाऊंगा कि दूसरी दुनिया कैसी है.
आप जो मेरा पत्र पढ़ रहे हैं, अगर कुछ कर सकते हैं तो मुझे अपनी सात महीने की फ़ेलोशिप मिलनी बाक़ी है. एक लाख 75 हज़ार रुपए. कृपया ये सुनिश्चित कर दें कि ये पैसा मेरे परिवार को मिल जाए. मुझे रामजी को चालीस हज़ार रुपए देने थे. उन्होंने कभी पैसे वापस नहीं मांगे. लेकिन प्लीज़ फ़ेलोशिप के पैसे से रामजी को पैसे दे दें.
मैं चाहूंगा कि मेरी शवयात्रा शांति से और चुपचाप हो. लोग ऐसा व्यवहार करें कि मैं आया था और चला गया. मेरे लिए आंसू बहाए जाएं. आप जान जाएं कि मैं मर कर ख़ुश हूं जीने से अधिक.
'
छाया से सितारों तक'
उमा अन्ना, ये काम आपके कमरे में करने के लिए माफ़ी चाहता हूं.
अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन परिवार, आप सब को निराश करने के लिए माफ़ी. आप सबने मुझे बहुत प्यार किया. सबको भविष्य के लिए शुभकामना.
आख़िरी बार
जय भीम
मैं औपचारिकताएं लिखना भूल गया. ख़ुद को मारने के मेरे इस कृत्य के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है.
किसी ने मुझे ऐसा करने के लिए भड़काया नहीं, तो अपने कृत्य से और ही अपने शब्दों से.
ये मेरा फ़ैसला है और मैं इसके लिए ज़िम्मेदार हूं.
मेरे जाने के बाद मेरे दोस्तों और दुश्मनों को परेशान किया जाए.
(
बीबीसी हिन्दी )

यह आत्महत्या के पहले लिखा गया सुसाइड नोट है. रोहित की आत्म हत्या एक होनहार प्रतिभा की ही आत्म हत्या नहीं है बल्कि पूरे सिस्टम में कहीं भीतर तक पैठे सड़ी हुयी जातिगत विद्वेष की मानसिकता है.

रोहित की आत्महत्या के मामले को दलित और सवर्ण के चिरपरिचित विवाद से थोडा अलग हट कर देखिये. रोहित का विद्यार्थी परिषद के किसी कार्यकर्ता से झगड़ा हुआ था. जिस से हुआ था वह भी दलित था. बंगारू लक्ष्मण वहाँ से सांसद हैं. उन्होंने विद्यार्थी परिषद के कुछ नेताओं के कहने पर मानव संसाधन मंत्री को उन छात्रों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए पत्र लिखा. स्मृति ईरानी ने विश्वविद्यालय के कुलपति को उन लड़कों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए निर्देशित किया. कुलपति ने इन पांच लड़कों को विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया. उनकी छात्र वृत्ति रोक दी गयी.और इस से जो परिस्थितयां बनी उस से यह घटना घटी.
जो छात्र विश्वविद्यालय से निष्कासित किये गए हैं  वे आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोशिएसन के थे. विद्यार्थी परिषद से इनका वैचारिक मतभेद था और है. विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस प्रकरण पर तो कोई निष्पक्ष कार्यवाही की और ही आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोशिएसन के पदाधिकारियों को बुला कर इस मामले को सुलझाने का प्रयास ही किया. विश्वविद्यालय के सभी छात्र एक ही जैसे होते हैं . उनके बीच विवाद और झगडे होते रहते हैं. पर अगर दोनों ही पक्षों को प्रॉक्टर या डीन ऑफ़ स्टूडेंट्स द्वारा बुला कर बात कर ली गयी होती तो संभवतः यह मामला सुलझ गया होता और यह हादसा टल जाता. पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने पक्षपात पूर्ण कार्यवाही की. परिणाम सब के सामने है. यह उम्र भावुक होती है और भावुकता का अतिरेक कुछ भी करा सकता है.

इन छात्रों को केवल विश्वविद्यालय से निलंबित ही किया गया, बल्कि जब उनको अपनी पढ़ाई जारी रहने की अनुमति दी गयी तो उनको हॉस्टल, तथा अन्य स्थानों पर जाने की रोक भी लगा दी गयी. उनकी छात्रवृत्ति भी रोक दी गयी जिस से ये छात्र आर्थिक संकट में गए. अगर उन छात्रों ने मारपीट की थी तो जो आपराधिक मुक़दमें कायम थे उन पर कार्यवाही की जानी चाहिए थी कि विश्वविद्यालय प्रशासन उनके खिलाफ ही पड़ जाता. पर यहां जैसी ख़बरें रही है. उस से विश्वविद्यालय प्रशासन का पक्षपाती रवैय्या साफ़ दिख रहा है..
-vss.