Monday 9 November 2015

धन्वन्तरि जयंती - एक ऐतिहासिक विवेचन / विजय शंकर सिंह




आज धनतेरस है. सामान्यतया हम लोग आज कुछ कुछ धातु अपनी सामर्थ्यानुसार खरीदते हैं. अर्थ , पुरुषार्थ चतुष्टय में से एक है  तथा अत्यंत महत्वपूर्ण भी. पर धनतेरस की व्युत्पत्ति धन से नहीं हुयी है, पर , इसका सम्बन्धधन से भी अधिक महत्वपूर्ण धन  आरोग्य से है. यह पर्व आरोग्यावतार और आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि का जन्म दिवस भी है. धन्वंतरि काशी के राजा थेया यों कह लें कि काशी ने ही उन्हें धन्वन्तरि बनाया है.

आर्यों का प्रवास सरस्वती नदी के उपकंठ यानी कछार में  सहस्रों वर्ष पहले था. सरस्वती, एक सदा नीरा नदी थी. और हिमालय से निकल कर पंजाब , हरियाणा , राजस्थान होते हुए, कच्छ के पास अरब सागर में गिरती थी. कच्छ क्षेत्र में हुए भूगर्भीय परिवर्तन से इसका मुहाना जो अरब सागर में था बाधित हो गया. जिस से इस महान नदी जिसके किनारे आयों की महान सभ्यता पल्लवित हुयी थी थम गयी. यही नहीं, बल्कि, एक हिमालयी भूकम्प के कारण सरस्वती का पथ हरियाणा के उत्तर में एक स्थान जहां यह और यमुना नदी पर्वतों से उतर कर धरा पर आती हैपर , परिवर्तित हो गया और वह दो भागों में बँट गयी. एक भाग यमुना  से मिल कर पूर्वाभिमुख हो गया, और इलाहाबाद , जो पहले प्रतिष्ठान पुर था में कर गंगा में मिल गयी. यह प्रयाग, जिसका शाब्दिक अर्थ ही संगम होता है , दो बड़ी नदियों , गंगा और यमुना के मिलने के कारण प्रयाग राज कहलाया. इसी लिए गंगा और यमुना तो प्रत्यक्ष दिखती हैं, पर सरस्वती लुप्त हैं. यह कथा त्रिवेणी की है.

इसी सरस्वती उपकंठ से आर्यों का एक दल, सरस्वती के क्षीण होने पर पूर्व की और बढ़ा और जहां गंगा यमुना का संगम है, वहाँ रुका. गंगा पार, जहां आज झूंसी है, वहाँ प्रथम राज्य की नीव पडी, जिसका नाम पड़ा प्रतिष्ठान पुर था. यह चंद्रवंशी क्षत्रियों की शाखा थी. पूरी कथा इस प्रकार है. मनु के आठ पुत्र थे. इनके सबसे बड़े पुत्र इक्ष्वाकु थे. जिनको मध्य देश का राज्य मिला, जिसकी राजधानी अयोध्या थी. दुसरे पुत्र नाभानेदिष्ठ थे, जिन्होंने कोसल राज्य के पूर्व में सदानीरा यानी गंडक के पूर्व में राज्य की स्थापना की. इसी वंश में विशाल नामक राजा हुए जिन्होंने विशाला नामक नगर की स्थापना की जो आज की वैशाली हैमनु के तीसरे पुत्र शर्याति ने काठियावाड़ के पास राज्य की स्थापना की. उनके पुत्र अनर्त के नाम पर आनर्त राज्य बना. इसकी राजधानी कुशस्थली अर्थात द्वारिका बनी.चौथे पुत्र का नाम करुष था जिसके वंशज कारूष कहलाये. इसका राज्य बघेल खंड के पूवोत्तर में शोण नदी के पास स्थापित हुआ. मनु के छठें, सातवें और आठवें पुत्र क्रमशः नाभाग, पृषघ्नु, और प्रांशु थे. जिसमें से एक शूद्र हो गया, एक भारत के बाहर चला गया और एक के बारे में इतिहास मौन है.

मनु की पुत्री का नाम इला था. इला का विवाह हिमालय निवासी किसी चंद्र नामक राजा से हुआ था. इला को मध्यदेश यानी अयोध्या का ही एक भाग मनु ने दिया था, जो प्रतिष्ठानपुर कहलाया. इला का पुत्र पुरुरुआ या येल के नाम से यह वंश येल वंश भी कहलाया. यह इस वंश का प्रथम नृपति हुआ. उर्वशी और पुरुरुआ की कथा जगत प्रसिद्ध है. प्रतिष्ठान से ही यह वंश, कान्यकुब्ज, काशी, और पश्चिमोत्तर भारत तथा दक्षिण की और फैला. एक कथा के अनुसार इला बाद में सौद्युम्न नामक पुरुष बना और उसे तीन पुत्र हुए. इनके नाम गय, उत्कल और हरिताश्व थे. गय को बिहार का दक्षिणी भाग ,मिला. गया इसी गय के नाम पर ही है. उत्कल को वर्तनाम ओडिशा, और हरिताश्व या विनताश्व को गया का पूर्वी भाग मिला.

पुरुरूवा के दो पुत्र थे , आयु और अमावसु. आयु , प्रतिष्ठानपुर के नरेश हुए और अमावसु कान्यकुब्ज के राजा हुए. आयु के दो पुत्र थे नहुष और क्षत्रवृद्ध. नहुष प्रतिष्ठान पुर के ही राजा बने रहे. क्षत्रवृद्ध काशी की और चले और वहाँ के राजा हुए. क्षत्रवृद्ध आर्यों के वंशजों का प्रचुर उल्लेख पुराणों में मिलता है. श्रीमद्भागवतपुराण के अनुसार क्षत्रवृद्ध के पुत्र का नाम सुहोत्र था. सुहोत्र के तीन पुत्र हुए. काश्य, कुश और गृत्समद, गृत्समद के पुत्र हुए शुनक, और उनके पुत्र हुए शौनक. शौनक ब्रह्मचवर मुनि हो गए थे. काश्य के पुत्र हुए दीर्घतमा, और  धन्वन्तरि.दीर्घतमा के पुत्र थे, और धन्वन्तरि के पुत्र हुए दिवोदास . जिनका प्रथम राज्याभिषेक हुआ और वह काशी के राजा हुए. इस प्रकार धन्वन्तरि काशी के राजवंश के पूर्व पुरुषों में थे. यह श्लोक देखें ..
काशस्थ काशिस्ते पुत्रो राष्ट्रों दीर्घातमाः पिता,
धन्वन्तरि दैर्घतम आयुर्वेद प्रवर्तक !!
(
श्री मद्भागवत 9 - 1 - 7 )
आज उन्ही धन्वन्तरि की जयंती है, जिनको आयुर्वेद का जन्मदाता माना जाता है. यह जयंती त्रयोदशी के दिन पड़ती है अतः आज धनतेरस भी कहा जाता है. धन्वन्तरि को काशी राज विरासत में मिला था. पर उन्होंने लोक कल्याण के लिए  राज्य का त्याग कर दिया.

जब क्षत्रवृद्ध काशी आये तो काशी में किरातों और मुंडा आदिवासी समाज का राज था. किरात मूलतः हिमालय के मध्य भाग के पहाड़ी जाति थी. वह कब काशी आयी और इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है. किरातों के पूर्व यहां मुंडा नामक एक आटविक जाति थी. काशी तब आज के वरुणा और गंगा के संगम पर स्थित थी. आज जो बनारस शहर आप देख रहे हैं वह तब सघन वन था. शिव किरातों के देवता थे. किरात उनकी पूजा या उपासना के लिए उन्हें अपने साथ साथ ही काशी में लेते आये. शिव स्वयं को संस्कृत नाटक में किरातार्जुनीयम् में स्वयं को किरात कहते भी हैं. आर्यों के काशी पहुँचने पर किरातों और मुंडा जाति के साथ इनका विवाद हुआ. आर्य सबल पड़े. और उन्होंने मुंडा और किरात को वरुणा गंगा संगम के पार खदेड़ दिया. शिव स्थापित देवता थे अतः शिव को आर्यों की देव परम्परा में सम्मिलित कर लिया गया. दीर्घतमा के पुत्र धन्वन्तरि की रूचि आरोग्य विज्ञान में थी. उन्होंने राज कार्य से विरत रह कर अपना आरोग्य ज्ञान बढ़ाया. किरात , मुंडा और आर्यों के बीच अक्सर युद्ध चला करता था. किरातों की बस्तियां भी अलग थीं. अचानक एक बार किरातों की बस्ती में कोई रोग फैला. ज्वर से पीड़ित हो कर लोग मरने लगे. धन्वन्तरि को जब इस बात का संज्ञान हुआ तो , वह किरातों की बस्ती में गए और उन्होंने सेवा सुश्रुसा की. किरात इस से ठीक होने लगे. धीरे धीरे इस विचित्र ज्वर तथा और व्याधियों के निदान हेतु धन्वन्तरि ने शोध कार्य भी किया. धन्वन्तरि के इस प्रयास से किरातों और आर्यों के बीच का जो कटु सम्बन्ध था वह सुधरा और एक सद्भाव का वातावरण बना. दीर्घतमा के बाद काशी राज के पद पर प्रतिष्ठापित होने के लिए धन्वन्तरि ने मना कर दिया. तब जा कर धन्वन्तरि के पुत्र दिवोदास का काशी नरेश के रूप में राज्याभिषेक किया गया. धनवंतरि का यह श्लोक पढ़ें.
त्वहं कामये राज्यम्, स्वर्गम्  , पुनर्भवम्, 
कामये दुखतप्तानां , प्राणीनांमार्ताशनाम !!
"
तो मुझे राज्य की कामना है , स्वर्ग की, मैं पुनर्जन्म से मुक्ति चाहता हूँ. मेरी कामना है कि मैं , दुःख से तपते हुए प्राणी मात्र का दुःख  , कष्ट दूर करता रहा हूँ .

भारतीय मनीषा में त्याग का बहुत महत्व है. और आरोग्य के लिए यह धन्वन्तरि का महान त्याग था. जब धन्वन्तरि अशक्य हो गए और उनकी मृत्यु आसन्न हो गयी तो. उन्होंने अपने पौत्र प्रतर्दक से, जो अपने पिता दिवोदास से भी अधिक प्रतापी था और जिसने काशी राज की सीमा पूर्व में बक्सर जिसे तब व्याघ्रसर कहा जाता था तक बढ़ाया , यह इच्छा व्यक्त की मृत्य के बाद कुछ दुर्लभ और चमात्कारिक औषधियां और जड़ी बूटियाँ , मध्यमेश्वर के शिव मंदिर के पास स्थित एक अष्टकोणीय कूप में डाल दी जाय. जिसके जल का पान करने से लोगों का रोग दूर हो. ऐसा किया भी गया. आज भी मध्यमेश्वर मंदिर वाराणसी के प्रसिद्ध शिव मंदिरों में से एक है . वह कूप भी है . आज भी उस कुएं के जल में रोग दूर करने के चमत्कार की मान्यता है. यह काशी की अविरलता है. निरंतरता है.

आज धन्वन्तरि जयन्ती के अवसर पर आप सब रोग मुक्त रहें. धन्वन्तरि की कृपा बनी रही !!
( विजय शंकर सिंह )

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