Friday 13 November 2015

एक कविता - आशीष / विजय शंकर सिंह




सारी बुरी और
दहशत भरी यादें ,
लपेट कर एक झांपी में
रख दिया है मैंने ,
बांस के बनी ये झाम्पियां,
संपेरे लिए घूमते रहते हैं जिसे !

ऐसी ही एक झांपी में ,
सारी अज़ाब भरी यादें ,
दबाये हुए मैं ,
गाँव के बाहर ,
संपेरे के इंतज़ार में
बैठा हूँ !!

शायद कोई संपेरा ,
नमूदार हो जाए कहीं से ,
और समेट ले जाए ,
इन दहशत भरी यादों को ,
और दे जाए आशीष ,
इस काली रात के अवसान के साथ ,
एक नए विहान का !!!
-vss

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