Tuesday 3 November 2015

अथ श्री लंगोट कथा - बहुक़्म तोगड़िया जी / विजय शंकर सिंह



विश्व हिन्दू परिषद के एक बड़े नेता , डॉ तोगड़िया सर , एक अवतारी पुरुष हैं. इनका आकलन हम अभी नहीं कर पाएंगे. समसामयिक व्यकित्व के आकलन करने में बहुत दिक्कतें आती हैं. आग है उनमे. आग। बोलते हैं तो फेचकुर भी फेंक हैं कभी कभी। चेहरा भी दमकता है. उनसे वार्तालाप करने का अवसर भी मुझसे मिल चुका है। . हरिद्वार में 2010 के कुम्भ के दौरान वह आये थे और वहाँ के वी आई पी घाट पर उनसे सत्संग हुआ था. गंगा स्नान कर के वह मन्त्र जाप कर रहे थे. तभी उनसे मेरी बात हुयी. इस संस्मरण पर फिर कभी. अभी तो आप लंगोट पर आइये . अभी तक तो मुल्लों और धर्म के नाम पर साम्राज्य फैलाने वाले बादशाहों के मुंह से ही इस्लाम खतरे में है, का नारा सुना था मैंने. अब सुन रहा हूँ , हिंदुत्व संकट में है, संस्कृति संकट में है, और राष्ट्र संकट में है . भीड़ से उठता हुआ शोर भीड़ के दुहराने से तेज़ तो होता है पर रहता है अस्पष्ट ही . और जब भीड़ बिखरती है तो , वह शब्द भी खोखला हो जाता है। यह इस्लाम का प्रभाव है या संकट की पदचाप या राज्य करने की कुछ की रणनीति, इस पर विचार विमर्श चलता रहेगा. पर संस्कृतियों और समाज के संसर्ग से विचार , अच्छे हों या बुरे, एक दूसरे को प्रभावित तो करते ही है. किस का , किस पर, किस तरह, किस समय, कितना प्रभाव पड़ा, यह मध्ययुगीन इतिहास के पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है. लेकिन धर्म पर भी यह प्रभाव गया है। उस पर भी फिर कभी चर्चा होगी. अभी तो आप लंगोट पर आइये ! तोगड़िया जी ने अभी एल बयान में कहा है कि हिंदुओं को लंगोट पहनना चाहिए. इस परिधान का कोई शास्त्रीय प्राविधान है या नहीं यह तो हमारे त्राता तोगड़िया सर ही बताएँगे. पर उन्होंने भी एक फतवा, हुक्मनामा, जारी किया है कि सभी हिन्दू लंगोट पहनें. सनातन धर्म में फतवा या हुक्मनामा का कोई प्राविधान मुझे तो अभी तक नहीं मिला कहीं. हो सकता है तोगड़िया सर को वह प्राविधान ज्ञात हो. पर अब इस प्रकार की शंका समाधान की परम्परा जिसने उपनिषदों जैसी दिव्य ज्योतित विचार श्रृंखला दी है , का वक़्त नहीं रहा. वक़्त अब बदल रहा है. पूछो मत, नहीं तो समझौता एक्सप्रेस में ही नज़र आओगे. तो पूछताछ बंद. सवाल जवाब बंद . आर टी आई बंद. लिखना पढ़ना बंद . कह दिया लंगोट पहनो तो , चुप चाप पहन लो। आखिर लज्जा तो ढंकनी ही है। और कुछ जिज्ञासा हो तो , उसे डालिये भरसाईं में, पर अभी तो आप लंगोट पर आइये.

यह चित्र एक सुन्दर महिला का है। महिलाओं का सौंदर्य सदैव और सबको आकर्षित करता रहा है. आगे भी करता रहेगा. जो खुद को अत्यंत संस्कारी दिखाते हुए नारी में मातृ और भगिनी भाव खोजते हैं ,, उन्हें भी नारी सौंदर्य आकर्षित करता है. पर वह संस्कृति के रक्षा भार का गुरुतर दायित्व संभाले रहते हैं तो, वह सौंदर्य दर्शन जनित प्रतिक्रिया का दमन भी कर लेते हैं. इस सुन्दर और आकर्षक महिला ने एक लंगोट उठा रहा है. वह इसका प्रचार कर रही है बाज़ारवाद का भी एक अज़ीब गणित है. महिलायें वह सब प्रचारित करती हैं जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करती. नारी मुक्ति के पैरोकार इसे नारी शोषण, संस्कृति के पहरेदार इसे संस्कृति का प्रदूषण, और ऐड गुरु इसे बाज़ार का आकर्षण ही कहेंगे. पर यह सच तो यह है कि महिला के हाँथ में थामा हुआ लंगोट, बरबस सिगमंड फ्रायड की याद दिला देता है,. प्रचार, विज्ञापन, नारी शक्ति, नारी मुक्ति और संस्कृति पर फिर कभी बात करेंगे. अभी आप तो लंगोट पर आइये ! लंगोट का आविष्कार आदम और हव्वा के समय हुआ था. हालांकि यह पुराकथा सेमेटिक धर्मों की है. भारतीय परम्परा के धर्मों की नहीं . खुद के नग्न होने का संज्ञान होते ही जिस वृक्ष के पत्ते से दोनों ने अपने गुप्तांग ढंके होंगे , वह संभवतः पहला वस्त्र रहा होगा. तो यह गुप्तांग ढंकने का पहला उदाहरण मिलता है। मेरी राय में पहली बार लंगोट का जन्म हुआ. फिर तो दुनिया बनी. जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ और ज्ञान का आलोक फैला , तो कुछ मौसम के कारण तो कुछ लज्जा के कारण वस्त्रों में नये प्रयोग हये , जिसे वस्त्रकला के इतिहास के रूप में आप पढ़ सकते हैं. टेक्सटाइल विज्ञान और कला के इतिहास में , इसे पढ़ाया जाता है। आप की रूचि हो तो इसका अध्ययन भी कर सकते हैं। अभी इस पर कोई पाबंदी नहीं लगी है। इतिहास का यह पक्ष अक्सर कम ही पढ़ाया जाता है. हम सब ताजमहल और तेजोमहालय के झगडे ही पढ़ते रहते हैं. सिलेबस में भी यही है. इस पर फिर कभी , अभी तो आप लंगोट पर आइये ! मैं वाराणसी का रहने वाला हूँ. यह तो आब ओ दाना है कि कानपुर में आ बसा हूँ. पर बनारस , मुझे , यही नाम अधिक जंचता है, जब भी जाता हूँ तो वहाँ से आने का मन कम ही करता है. बनारस की कल्पना गंगा के बिना नहीं की जा सकती है, और गंगा के किनारे आदि केशव से ले कर असी तक पक्के घाटों की जो परम्परा है वह अद्भुत है. इन घाटों पर कभी सुबह सुबह जाइए तो आप को अब भी लंगोट पहने मालिश कराते, मुगदर , जोड़ी भांजते , लोग मिल जाएंगे. लेकिन यह नज़ारा दशाश्वमेध घाट पर नहीं बल्कि पंचगंगा आदि घाट जो मणिकर्णिका घाट से गंगा के प्रवाह की दिशा में हैं, पर देखने को मिलेगा. मैंने अपने बचपन में लाल गमछे और लंगोट में बनारस के सभ्रांत वर्ग को भी एक हाँथ में एक लोटे के साथ प्रसन्न बदन , हर हर महादेव करते हुए जाते, देखा है. दो गमछों और एक लंगोट से अधिक कुछ भी नहीं.रहता है उनके पास। एक गमछा , कंधे पर और एक कमर में बंधा रहता था यह बनारस के मस्त और निर्द्वन्द्व मानसिकता का परिचायक भी है। . एक बार वाराणसी के जिला मैजिस्ट्रेट थे भूरे लाल. तब मेरा चयन पी पी एस में हो चुका था , पर ट्रेनिंग में नहीं गया था.. वे बहुत तेज़ तर्रार अधिकारी थे। उन्होंने एक दिन सुबह सुबह घाटों का निरीक्षण किया तो उन्हें लंगोटधारी स्नानार्थी भी दिखे. वे रहने वाले हरियाणा के थे। . उन्हें यह बहुत नागवार और अश्लील लगा. उन्होंने इस पर प्रतिबन्ध लगाने की सोची. पुलिस तो अक्सर सब काम करती है, भले उसका असली काम पीछे छूट जाए. सिपाही घाट घाट घूम घूम कर लंगोटधारियों की टोकाटाकी करने लगे. थोड़ी बहुत उत्कोच की भी शिकायतें मिलने लगी. फिर जनता में रोष हुआ और लोग लामबंद हो गए. शहर में चौक से गोदौलिया होते हुए दशाश्वमेध तक कुछ लोगों का जुलूस निकला, जो लंगोट बांधे, एक गमछा कमर में और एक कंधे पर रखे, बिलकुल शिव की बरात की तरह, ' कोउ मुख हीन, विपुल मुख काहू,' की तर्ज़ पर यह जुलूस, दशाश्वमेध घाट गया और वहाँ स्नान कर के , फिर बाबा विश्वनाथ के दरबार में जा कर उन्हें सारी समस्या से अवगत करा कर ,विसर्जित हो गया. शिव तो खुद ही अल्प वस्त्र धारी है. फिर तो बनारस फिर अपने रंग में आ गया. डी एम साहब का फरमान , बस्ता ए खामोशी में दफ़न हो गया. तोगड़िया , आज लंगोट पर आये हैं . और कंपनियां भी कल डिजायनर लंगोट ले कर आ जाएंगी. जितना आर एन्ड डी विभाग विश्व हिन्दू परिषद का तेज़ है , उतना ही कंपनियों का भी है . देखिये बाज़ार में सिली सिलाई धोती मिलने लगी हैं. लंगोट का हिंदुत्व से कोई सम्बन्ध है या नही यह मुझे नहीं मालूम. तोगड़िया सर से पूछने का मतलब पाकिस्तान ही जाना होता है। फिलहाल तो बनारस जाने का मूड है. ( विजय शंकर सिंह )

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