Wednesday 21 October 2015

साहित्यकारों के अकादमी सम्मान लौटाने के प्रकरण पर राम चंद्र गुहा की एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

जब मुझे ट्विटर से पता चला कि भारत के वित्त मंत्री ने लेखकों पर हमला करते हुए एक ब्लॉग लिखा है तो मैं हैरत में पड़ गया. गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स अभी अधर में है, भारत में कई जगह किसान सूखे की मार झेल रहे हैं, भारत की आर्थिक नीति से जुड़े कई अहम मुद्दों पर बहस चल रही ऐसे वक़्त में भारत के वित्त मंत्री अपना समय और ऊर्जा हम जैसे लेखक मात्र लोगों पर ख़र्च कर रहे हैं?

फिर मैंने ख़ुद अरुण जेटली का ब्लॉग पढ़ा और मेरी हैरत और बढ़ गयी. मैं उनसे कभी मिला तो नहीं लेकिन उनके बारे में जो सुना या सार्वजनिक जीवन में देखा है उसके आधार पर वो मुझे वो समझदार और धीरमति वाले आदमी लगते थे. लेकिन उनके इस हमले में बदमिज़ाजी झलक रही है.कहीं कहीं तो वो ख़ास लोगों को निशाना बनाते नज़र आए हैं. 

वित्त मंत्री ने दावा किया है कि अपने साथी लेखकों की हत्या का लेखकों द्वारा किया जाने वाला विरोध 'कारखाने में तैयार विद्रोह' है और ये 'भाजपा के प्रति वैचारिक असिहुष्णता का एक उदाहरण है.' 

वित्त मंत्री के अनुसार ये लेखक कांग्रेस या वामपंथी पार्टियों के हाथों की कठपुतली हैं और ये लोग पुरस्कार लौटाकर 'अपरोक्ष रूप से राजनीति' कर रहे हैं.

वित्त मंत्री का बयान इन लेखकों के व्यक्तिव और बुद्धिमत्ता का अपमान सरीखा है. साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की शुरुआत कर्नाटक से हुई, जहाँ कांग्रेस सरकार प्रसिद्ध विद्वान एमएम कलबुर्गी की हत्या रोकने में विफल रही. सरकार कलबुर्गी के क़ातिलों को पकड़ने में भी अब तक सफल नहीं हुई है. इसके विरोध में स्थानीय लेखकों ने कर्नाटक का राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया. एक कन्नड़ लेखक ने अपने बयान में कहा, “ऐस बदले हुए राजनीतिक माहौल में जहाँ कट्टरपंथियों के सामने केंद्र और राज्य सरकारें मूक बनी हुई हैं, लेखक, तर्कवादी और बुद्धिजीवी भय में जी रहे हैं.”

उसके बाद उदय प्रकाश और नयनतारा सहगल ने अपने (केंद्रीय) साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाये. इन लेखकों के इस फ़ैसले की मिली सराहना और मीडिया कवरेज ने दूसरे लेखकों को भी केंद्र और राज्य के अकादमी पुरस्कार लौटाने के लिए प्रेरित किया. लेखकों के फ़ैसले स्वप्रेरित थे. ये'कारखाने में तैयार' विद्रोह नहीं है, न ही इसके पीछे कोई संगठित कैंपेन है. लेखकों ने अपने फ़ैसले निजी तौर पर लिए हैं.

अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में एमएम कलबुर्गी और नरेंद्र दाभोलकर का जिक्र किया है लेकिन वो गोविन्द पानसरे का नाम लेना भूल गए हैं. मैं मान लेता हूँ कि ये महज संयोग है. बहरहाल, ये विरोध कांग्रेसी साजिश का परिणाम है ये बात इस तथ्य से खारिज हो जाती है कि ये विरोध कांग्रेस शासित राज्य कर्नाटक में शुरू हुए. हो सकता है कि कांग्रेस इन विरोधों का इस्तेमाल करने की कोशिश करे लेकिन लेखक भी आम आदमी की तरह विभिन्न राजनीतिक विचारों से जुड़े होते हैं या फिर किसी राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखते.

जिन लेखकों ने पुरस्कार लौटाए हैं उनमें से कई को मैं जानता हूँ. उनमें से कई लम्बे समय से कांग्रेस के कटु आलोचक रहे हैं. जेटली ने दावा किया है कि ये सभी लेखक 'पुरानी सत्ता से संरक्षण प्राप्त' थे लेकिन सच्चाई इसके उलट है. इनमें से ज़्यादातर लेखक लुटियन दिल्ली से दूर भारत के सुदूर क़स्बों में बेहत सामान्य घरों में अनियमित आय के साथ जीवन गुजारते हैं. ऐसे लेखकों पर'करियरवादी' होने का आरोप लगाना सरासर नाइंसाफ़ी है.

ये सम्भव है कि इनमें से कुछ लेखकों के व्यवहार में लोगों को फांक दिखे. जब 1989 में राजीव गांधी ने सलमान रश्दी की किताब 'द सैटेनिक वर्सेज' पर प्रतिबंध लगा दिया था तब उदारवादी बुद्धिजीवी धर्मा कुमार ने लिखा था, “सेकुलर भारत में ईशनिंदा संज्ञेय अपराध नहीं हो सकता, भारत के राष्ट्रपति किसी या सभी धर्मों के रक्षक नहीं हैं.” 

ये दुखद था कि तब बहुत से लेखक रश्दी की किताब पर प्रतिबन्ध लगाने के दूरगामी परिणाम का अंदाजा नहीं लगा सके.

अभी हाल ही में जब पश्चिम बंगाल की तात्कालिक लेफ़्ट फ्रंट की सरकार ने तसलीमा नसरीन की किताब पर प्रतिबन्ध लगा दिया, उन्हें राज्य से बेदखल कर दिया तब बहुत ही कम उदारवादी बुद्धिजीवियों(वामपंथियों ने तो और भी कम) ने इस फ़ैसले का सार्वजनिक विरोध किया. इन विफलताओं ने दक्षिणपंथी भाषणबाज़ों के लिए जगह बना दी. उसके बाद से ही वो देश के अलग अलग हिस्सों में लेखकों और कलाकारों को धमकाते रहे हैं.

इसी साल जनवरी में मैंने द टेलिग्राफ़ अख़बार में एक लेख (अ फ़िफ्टी फ़िफ्टी डेमोक्रेसी) लिखा था जिसमें मैंने तर्क दिया था कि 'बोलने की आज़ादी' पर ख़तरा भारत के लिए नयी बात नहीं है. इस ख़तरे के स्रोत अलग अलग रहे हैं, जैसे अंग्रेजों के ज़माने के कोलोनियल क़ानून, न्यायपालिका की कमजोरी, पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार, नेताओं की कायरता, प्रकाशकों और मीडिया संस्थानों की मिलीभगत. नयी चीज़ ये हो रही है कि अब लेखकों की चुन चुन कर हत्या की जा रही है. पहले किताबों पर बैन लगता था, कला प्रदर्शियों में तोड़फोड़ की जाती थी, फ़िल्मों को सेंसर किया जाता था. अब लेखकों की बस अपने विचार सामने रखने के लिए हत्या की जा रही है.

जब महाराष्ट्र में दाभोलकर की हत्या हुई तो केंद्र और राज्य दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी. जब कलबुर्गी की कर्नाटक में हत्या हुई तो केंद्र में भाजपा और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी. दोनों हत्याओं में कॉमन बात ये है कि दोनों लेखकों के पीछे हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी समूह लम्बे से पड़े हुए थे. इन हत्याओं के बाद भारत बांग्लादेश का प्रतिरूप लगने लगा है जहाँ हाल ही में कई आज़ाद ख़्याल ब्लॉगर इस्लामी कट्टरपंथियों के हाथों मारे जा चुके हैं.

लेखकों का वर्तमान विरोध इन जघन्य हत्याओं के ख़िलाफ़ है. ध्यान देने की बात है कि जिन लेखकों ने पुरस्कार नहीं लौटाए हैं वो भी भारतीय समाज में बढ़ती असिहुष्णता की मुखर आलोचना करते रहे हैं. ये असिहष्णुता केवल लेखकों केख़िलाफ़ नहीं बढ़ी है, बल्कि आम लोगों के ख़िलाफ़ भी बढ़ी है.

उम्मीद के अनुरूप ही जेटली ने अपने ब्लॉग में पहले की सरकारों के तानाशाही रवैये पर सवाल उठाया है. उन्होंने पूछा है, "इनमें से कितने लेखकों ने इमरजेंसी के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी दी, विरोध प्रदर्शन किये या अपनी आवाज़ उठायी?”

जेटली के सवाल के चार अलग अलग जवाब हैं जो शायद आपस में जुड़े हुए भी हैं.  

एक, इनमें से कुछ लेखकों का जन्म ही इमरजेंसी के बाद हुआ था. 

दो, इनमें से कुछ लेखकों ने इमरजेंसी का साहसपूर्वक विरोध किया था और उसका ख़मियाजा भी भोगा था. (जेटली को ज़रूर पता होगा कि नयनतारा सहगल ने इंदिरा गांधी की तानाशाही मुखर आलोचना की थी और वो जयप्रकाश नारायण की पत्रिका एवरीमैन में इंदिरा शासन के ख़िलाफ़ लगातार लिखती रही थीं. उन्हें सबक सिखाने के लिए इंदिरा गांधी ने उनके पति को प्रताड़ित किया था.)  

तीन, जिनके मंत्रिमण्डल में जगमोहन और मेनका गांधी जैसे लोग हों उन्हें इमरजेंसी के विरोध का दम्भ नहीं भरना चाहिए.  

चार, क्योंकि जेटली ख़ुद इमरजेंसी की ज़्यादतियों के शिकार रहे हैं इसलिए उन्हें उन लोगों से सहानुभूति रखनी चाहिए और उनका समर्थन करना चाहिए जो 'बोलने की आज़ादी' और संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ उठा रहे हैं.

पिछले हफ़्ते मैं बैंगलोर के कुछ युवा अकादमिकों से मिला था. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मेरे परिवार वालों को इस बात से डर लगता है कि मैं भाजपा, कांग्रेस और तमाम भारतीय प्रधानमंत्रियों की खुली आलोचना करता हूँ. मैंने उन्हें जवाब दिया कि कई बार उन्हें डर लगता है लेकिन सच्चाई ये है कि इस देश में अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों पर उतना ख़तरा नहीं होता जितना की भारतीय भाषाओं में लिखने वाले लेखकों को होता है. 

ये महज संयोग नहीं है कि दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी अपनी अपनी मातृभाषाओं में लिखते थे. ये भी महज संयोग नहीं है कि पुरस्कार लौटाने वाले ज़्यादातर लेखक अंग्रेजी लेखक नहीं हैं.पंजाबी और हिन्दी के ये कवि, मलयालम और कन्नड़ के उपन्यासकार शायद जेटली जैसों के राडार से बाहर हैं. लेकिन इन लेखकों को वो हत्यारे और नाख़ुश लोग जानते हैं और उन्हें निशाना बनाते हैं जो (अफ़सोस अक्सर) व्यापक संघ परिवार से कोई न कोई नाता होने का दावा करते हैं, जिस परिवार के जेटली भी एक सदस्य हैं.

(रामचंद्र गुहा बैंगलोर स्थित इतिहासकार हैं. उनकी हालिया किताबें 'गाँधी बिफ़ोर इंडिया' और 'इंडिया ऑफ्टर गाँधी'चर्चित रही हैं.) 

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