Monday 28 September 2015

हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार, डॉ शिव प्रसाद सिंह, विनम्र स्मरण / विजय शंकर सिंह.



चंदौली ज़िले में एक गाँव है जलालपुर. यह गाँव जमानिया के पास बिहार सीमा से सटा है. यह डॉ शिव प्रसाद जी का गाँव है. शिव प्रसाद जी इसी गाँव से निकल कर उदय प्रताप कॉलेज में पढ़ने के लिए आये थे. बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम किया, और बाद में वहीं लेक्चरर हो गए. इनके गुरु थे हिंदी की आचार्य परंपरा के अंतिम आचार्य , आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी.   आचार्य द्विवेदी के दो विलक्षण शिष्य निकले. एक डॉ शिव प्रसाद सिंह और दूसरे डॉ नामवर सिंह. डॉ नामवर सिंह अभी साहित्य साधना में रत है और वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे. वे अब भी प्रोफ़ेसर ईमेरिटस हैं .डॉ शिव प्रसाद सिंह भी प्रोफ़ेसर ईमेरिटस रहे हैं. डॉ नामवर सिंह ने हिंदी आलोचना में अपनी धाक जमायी तो डॉ शिव प्रसाद जी ने कथा और उपन्यास साहित्य को समृद्ध किया. डॉ शिव प्रसाद जी समाजवादी विचार धारा से प्रभावित थे जब कि डॉ नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी से चंदौली से चुनाव भी लड़ चुके है. यह अलग बात है कि वह पराजित हो गए थे. आज ही के दिन 2008 में डॉ शिव प्रसाद जी का निधन हुआ था.

डॉ शिव प्रसाद जी ने " कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा " पर शोध प्रबन्ध लिखा और इसी विषय पर उन्हें पी एच डी की डिग्री भी मिली. उन्होंने कई कहानियां लिखी है और उनकी एक अत्यंत प्रसिद्ध कहानी कर्मनाशा की हार है. कर्मनाशा एक नदी है जो चंदौली की बिहार के साथ सीमा बनाती है. इस नदी की भी विचित्र कथा है. कहा जाता है इसमें स्नान करने से सारे पुण्यों का क्षय हो जाता है. यह भी विचित्र संयोग है, कि   वही पास में ही पुण्य सलिला गंगा है जिनके दर्शन मात्र से ही सारे पाप नष्ट होते हैं. और कर्मनाशा में सारे पुण्य. क्या अद्भुत विकल्प है , यदि पाप मुक्त होना चाहते हैं तो, गंगा में और पुण्यों से ऊब गए हों तो कर्मनाशा में डुबकी लगा लें. एक किवदंती के अनुसार कर्मनाशा का एक नाम क्रमनाशा है. यह नाम संभवतः इसके भौगोलिक स्वरुप पर पड़ा होगा. यह नदी अत्यंत सर्पाकार गति से नागवंशी क्षत्रियों के भूभाग से गुज़रती है.

इस नदी के उद्गम की भी एक कथा है. कथा रोचक है. विश्वामित्र और वसिष्ठ में प्रतिद्वंद्विता थी. यह प्रतिद्वंद्विता क्यों थी, इसका कारण फिर किसी दिन. विश्वामित्र ने सम्राट नहुष को उनकी इच्छा के अनुसार सदेह स्वर्ग भेजने का अनुष्ठान किया. विधान के अनुसार सदेह स्वर्ग किसी का भी प्रवेश वर्जित है. नहुष को विश्वामित्र ने ऊपर भेज तो दिया, पर इंद्र ने उन्हें ऊपर स्वर्ग में नहीं आने दिया. उन्हें स्वर्ग से धक्का दे दिया. इधर विश्वामित्र उन्हें ऊपर प्रक्षेपित कर रहे थे, और उधर इंद्र नीचे धकेल रहे थे. अंततः वह ऊपर जा पाये और नीचे आ पाये , वह बीच में ही लटक गए. इस से उनका एक और नाम पड़ा, त्रिशंकु.  उनके लटके मुंह से जो लार निकली और बही, उस से , कहते हैं, जो जल धारा बह निकली वह कर्मनाशा कहलाई. लेकिन डॉ शिव प्रसाद जी की कहानी , कर्मनाशा की हार का यह कथ्य नहीं है. कहानी गाँव के बदलते सामाजिक तानों बानों पर लिखी गयी है. यह उनकी सबसे प्रसिद्ध कहानियों में से एक है.`

उनकी प्रसिद्धि उनके उपन्यास त्रयी से है. काशी के इतिहास के कुछ काल खण्डों पर उन्होंने तीन उपन्यास लिखे हैं. ये हैं " गली आगे मुड़ती है ", " नीला चाँद " और " वैश्वानर ". इन तीन उपन्यासों के अतिरिक्त, " अलग अलग वैतरणी " ," दिल्ली दूर है " तथा अन्य उपन्यास भी लिखे हैं. काशी त्रयी के क्रम में लिखा उनका उपन्यास " वैश्वानर " काशी के प्रारम्भ का काल  बताता है. वैश्वानर का अर्थ अग्नि है. यह अग्नि जीवन है और इसकी उष्णता के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. काशी तब आज की तरह नहीं थी. इसका क्षेत्र बरुणा और गंगा के संगम पर था. आज जहां वसंत कन्या महाविद्यालय है राजघाट के पास उसके आगे वरूणा गंगा में मिलती हैं. उपन्यास के अनुसार, सरस्वती नदी जब क्षीण होने लगी तो आर्यों का प्रसार जल की खोज में पूर्व की और हुआ. क्षत्रवृद्ध आर्यों का क़बीला कर गंगा यमुना के संगम पर स्थित आज के झूंसी में बसा ,  और इस प्रकार , वर्तमान झूंसी, तब का प्रतिष्ठान पुर राज्य बना. यह प्रथम राज्य था जहां से चंद्रवंशी क्षत्रियों का उद्भव हुआ . यहां से फिर एक शाखा पूर्व की और  बड़ी और वह गंगा और वरूणा के संगम पर रुकी. इस शाखा के प्रमुख धन्वन्तरि थे. धन्वन्तरि वैद्य थे. उस समय उस संगम पर किरात और मुंडा जातियों का बस्ती थी. इन जातियों में उस समय तक्मा  नामक एक महामारी फ़ैली थी.  वैद्यराज धन्वन्तरि ने शोध कर उस रोग का इलाज़ ढूँढा और इस आदिवासी समुदाय को इस महामारी से मुक्त किया. धनवंतरि के पुत्र भीमरथ, और भीमरथ के पुत्र दिवोदास थे. देवदास को काशी का प्रथम राजा बनाया गया. दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन था. वह बड़ा प्रतापी था. उसी समय मध्य भारत में सहस्रार्जुन कार्तवीर्य का राज्य था. वह हैहय वंशी था. इसी के वंश का परशुराम ने नाश किया था. यह पूरा उपन्यास काशी में आर्यों की इस शाखा के प्रतिष्ठित होने की एक गाथा है. यह काशी का ऊषा काल था.


इसी क्रम में अगला उपन्यास है नीला चाँद. नीला चाँद मूलतः मध्य काल के काशी की कथा कहता है. यह काशी का संक्रमण काल रहा है. काशी कभी भी बड़ा राज्य या साम्राज्य नहीं रहा है. यह एक नगर राज्य की तरह रहा है. पर धर्म का केंद्र होने के कारण इसकी महत्ता देशव्यापी रही है. तीसरा उपन्यास " गली आगे मुड़ती है " है. 1974 /75 / 76 इस उपन्यास का काल खंड है. इसी काल खंड में मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में था. यह उपन्यास छात्र आंदोलन और विश्वविद्यालय की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया. यह तीन साल जे पी आंदोलन के संघर्ष पूर्ण साल थे. इसी अवधि में मैं भी विश्वविद्यालय में था . 

इस उपन्यास त्रयी के अतिरिक्त उनका पहला उपन्यास " अलग अलग वैतरणी " चंदौली तहसील के एक गाँव को केंद्रित कर लिखा गया है. इस उपन्यास से डॉ सिंह ने प्रेमचंद के बाद वाराणसी से हिंदी उपन्यास क्षेत्र में एक नए और सशक्त हस्ताक्षर के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा दी थी. इसी क्षेत्र पर उनका एक और उपन्यास " शैलूष " नाम से  प्रकाशित हुआ, पर यह उपन्यास इनके अन्य उपन्यासों की तरह चर्चित नहीं हुआ है. इसी प्रकार मध्यकाल में दिल्ली को केंद्र बना कर इन्होंने एक उपन्यास लिखा " दिल्ली दूर है " . हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास बहुत लिखे गए है. पर एक ही नगर के विविध काल खण्डों पर लिखा गया इनका काशी त्रयी अद्भुत है. उनसे किसी ने पूछा कि क्या आप का यह लेखन चार खंडो में लिखी गयी प्रख्यात ऐतिहासिक उपन्यास " अलेक्जेंड्रिया " से प्रेरित है ? इस पर इनका कहना था कि अलेक्जेंड्रिया वस्तुतः इतिहास या रिपोर्ताज अधिक है . जब कि काशी त्रयी में इतिहास के साथ साथ कथा भी है. दरअसल वैश्वानर के समय की काशी का सारा श्रोत ही वेद है. उसी से मथ कर इतिहास निकालना पड़ता है. एक बात और काशी त्रयी के तीनों उपन्यास स्वतंत्र हैं. वह एक दुसरे के पूरक या अनुवर्ती नहीं हैं. डॉ सिंह को सरस्वती सम्मान, व्यास सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं.

ऐसा नहीं है कि उन्होंने केवल कहानियां और उपन्यास ही लिखा है. वह अरविन्द के दर्शन,  मस्तिष्क के विकासवाद के सिद्धांत से भी बहुत प्रभावित रहे हैं. उन्होंने अरविंदो पर एक जीवनीपरक उपन्यास " उत्तर योगी " भी लिखा है. अरविन्द एक जटिल दार्शनिक थे. भारतीय दर्शन के इस अप्रतिम मनीषी को समझना आसान नहीं है. वेदों और गीता पर उन्होंने जो अपना भाष्य लिखा है वह बिलकुल ही अलग दिखता है. लेकिन ' उत्तर योगी ' के पढ़ने से अरविन्द के जीवन के साथ साथ उनके दार्शनिक सिद्धांत के विकास पर भी एक नयी दृष्टि पड़ती है. इसके अतिरिक्त ललित निबंधों की संख्या  भी कम नहीं है. कविता और को छोड़ कर उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर लिखा है.

1994 में देवरिया में विश्व भोजपुरी सम्मलेन का आयोजन किया गया था. डॉ अरुणेश नीरन जो इस सम्मलेन के आयोजक और मेरे मित्र भी हैं ने डॉ सिंह को भी इस सम्मलेन में आमंत्रित किया था. मैं उस समय देवरिया में ही अपर पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त था.डॉ शिव प्रसाद सिंह देवरिया आये थे और वह मेरे अतिथि बने. उन्होंने मुझे पढ़ाया भी था. उनका यह आतिथ्य मेरे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात थी. विश्वविद्यालय के दिनों में भी गुरुधाम कॉलोनी स्थित उनका आवास सुधर्मा मेरे लिए एक तीर्थ ही था. मुझ पर उनकी बड़ी कृपा रही है. आज ही के दिन वह दिवंगत हुए थे. ऐसे ही अचानक एक दिन जब मैं वाराणसी उनके घर पर उनके निधन के बाद पहुंचा और उनके निधन का मुझे तब पता भी नहीं था , तो, अचानक जब उनके घर पहुँच कर उनके बारे में  पूछा तो यह दुखद समाचार मिला कि वह नहीं रहे।  मैं स्तब्ध रह गया . आज जब चंचल जी की पोस्ट फेसबुक पर देखी तो जो उनका लिखा, मैंने पढ़ा था, उसे आप सब के सामने रख दिया. यह किसी आलोचक की निगाह नहीं है, बल्कि एक पाठक की दृष्टि है. जैसा समझ पाया,  वैसा लिख दिया.

आज वह नहीं है. पर उनकी याद आते ही एक अत्यंत स्नेहिल और रोबीला चेहरा , मुंह में पान भरे याद आता है. एक बार उनके यहां गया था. मैं सिविल सेवा की तैयारी कर रहा था. हिंदी भी मेरा एक विषय था. उनके यहाँ मेरा आना जाना बहुत होता था. एक बार उन्होंने कहा, तुम्हारा हाँथ देखूँ. उन्होंने हाँथ देखा. पता नहीं सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञान उन्हें था या नहीं , पर उन्होंने मेरी उंगलियां देख कर कहा कि यह तो लेखकों की अँगुलियों जैसी है. फिर एक ज़ोरदार उनका ठहाका गूँज पड़ा. बनारस में मुस्कुराने की नहीं बल्कि ठहाका लगाने की संस्कृति है. मुक्त अट्टहास. आज के डिजिटल युग में  यह एक अभद्रता और असभ्यता लग सकती है. टाई बंधे सूट में सब कुछ बंधा बंधा सा.  पर यह मुक्ताकाशी अट्टहास, सभी डिजिटल अंकों से मुक्त है. यह मस्ती और मुक्त हास ही इस महा श्मशान को, जीवंत किये रहता है.

उनकी कृतियाँ -
उपन्यास : अलग-अलग वैतरणी, गली आगे मुड़ती है, नीला चाँद,  शैलूष, हनोज दिल्ली दूर अस्त, औरत, वैश्वानर
कहानी संग्रह : आर पार की माला, कर्मनाशा की हार, शाखा मृग, इन्हें भी इंतजार है, मुर्दा सराय, राग गूजरी, भेदिए
निबंध संग्रह : शिखरों के सेतु, कस्तूरी मृग, चतुर्दिक
रिपोतार्ज : अंतरिक्ष के मेहमान
नाटक : घाटियाँ गूंजती हैं
आलोचना : विद्यापति, आधुनिक परिवेश और नवलेखन, आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद
जीवनी : उत्तरयोगी श्री अरविंद
संपादन : शांतिनिकेतन से शिवालिक तक.


डॉ शिव प्रसाद सिंह, को उनकी पूण्य तिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !
( विजय शंकर सिंह )

2 comments:

  1. Dr.shiv prasad advitiy sahitya thhe jinki rachnayen hum padte too hai hi per sath unki rachnaon ke drishyon chal chitra ki bhati avlokan bhi karte hai pathako ke maan mastisk per amit chhap chodte hai unke chune bune huye drishy mera unhe shat shat naman Anand kumar singh

    ReplyDelete