Monday 14 September 2015

' निज भाषा उन्नति अहै ' - 14 सितम्बर हिंदी दिवस - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह.



14 सितम्बर 1949. स्थान, नयी दिल्ली. अवसर, संविधान सभा की बैठक. सबने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि हिंदी भाषा जो देवनागरी लिपि में लिखी जायेगी, वह भारत की राष्ट्र भाषा होगी. इसी दिन को स्मृति में अक्षुण रखने के लिए हम आज के दिन हिंदी दिवस मनाते हैं. आज सभी सरकारी कार्यालयों में एक छोटी सी गोष्ठियां होती है. कुछ हिंदी के विकास यात्रा पर दुखी होते हैं कुछ विरुदावली बखानते है. फिर कुछ अल्पाहार और सब अपने अपने काम काज पर मस्त हो जाते हैं. यह राज काज हर वर्ष मनाया जाता है. और हम बैलगाड़ी के नीचे चलते हुए श्वान की भाँति यह मान बैठते हैं कि हिंदी इसी आयोजन और गोष्ठियों के कारण  जीवित है और फल फूल रही है !

इस लेख के साथ यह कार्टून भी देखें. दर असल कार्टून, अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जो हंसी मज़ाक के पीछे अत्यंत कठोर सच छिपाए रहता है. यह सच ही है कि, आज हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय लेखक भी अपने लेखन से अर्जित धन से अपना जीवन यापन कर सकें. हिंदी उपन्यास, या पत्रिकाएं कम बिकती है और पढी भी कम जाती है. इस की तुलना में बांग्ला और तमिल साहित्य अधिक बिकता है. बांग्ला ने तो अनुवाद के माध्यम से हिंदी के बाज़ार में अच्छी पैठ बना रखी है. यह भी एक संयोग ही है कि, भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मलेन में , प्रधान मंत्री ने यह कह कर कि उन्होंने चाय बेचते बेचते हिंदी सीखी है, भाषा के प्रसार का वास्तविक कारण और आधार प्रस्तुत कर दिया. चाय बेचना जीविका के लिए ज़रूरी था  , और चाय बिके इसके लिए बताना ज़रूरी था कि यह चाय है, लोग समझें इस लिए उनकी भाषा का प्रयोग आवश्यक था, और उन्हें समझाने के लिए उनकी भाषा में बोलना आना चाहिए था, और बोलने के लिए सीखना पड़ा. भाषा के प्रसार में रोज़गार का असंदिग्ध योगदान है, आप इसे इति सिद्धम कह सकते हैं .

विश्व हिंदी सम्मलेन में राजनेताओं को बुलाये जाने की परम्परा पहले भी रही है. देवरिया में 1993 में विश्व भोजपुरी सम्मलेन का प्रथम अधिवेशन हुआ था , उस अधिवेशन में पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर आमंत्रित थे. उदघाटन किसी पदस्थ राजनीतिक विभूति से कराने का एक लाभ यह भी होता है कि, सम्मलेन को देशव्यापी प्रचार मिल जाता है और कुछ सुविधाएं भी. पहले कुछ राजनेता , राजनीति में सफल होने के साथ साथ स्थामित साहित्यकार भी थे. जैसे मध्य प्रदेश के ही द्वारिका प्रसाद मिश्र जिन्होंने कृष्ण कथा, के रूप में कृषणायण की रचना की. इस अवसर पर प्रधान मंत्री का आना और अपने उदगार व्यक्त करना, एक औपचारिक प्रारम्भ ही है, पर इसी अवसर पर हिंदी के स्थापित साहित्यकारों का होना सम्मलेन के लिए दुर्भाग्य पूर्ण भी है. साहित्य , का सम्बन्ध मेधा से, और मेधा का सम्बन्ध , विचार से, विचार का सम्बन्ध चिंतन से, और चिंतन सबका एक ही फ्रेकेंसी पर ही हो संभव नहीं है. इसी लिए साहित्य में विचारधारा के आधार पर , और उस विचारधारा में भी, सूक्ष्म विचारधारा के आधार पर भेद प्रभेद होते ही रहते हैं. इसे ही गुट या गोल बंदी भी कहा जाता है. यह गुटबाज़ी, चिंतन की उर्वरता का प्रमाण है, मेधा की तीक्ष्णता का द्योतक है और साहित्य के जीवंतता का प्रतीक भी. दुर्भाग्य से इस गुटबाज़ी ने सिर्फ चिंतन और विचार को ही एकांगी बनाया बल्कि इसे व्यक्तित्व वाद का आवरण दे कर अलग अलग बिलगा भी दिया. यह तो व्यक्तिगत गुटबाज़ी हुयी उसका परिणाम साहित्य पर तो उतना नहीं पड़ा, पर ऐसे सम्मेलनों पर अवश्य पड़ा है.

हिंदी भारत की संवैधानिक घोषित राजभाषा है. भाषा की संवैधानिक अनुसूची में अन्य 14 भाषाएँ भी है, पर उत्तर भारत के कई राज्यों में सबसे अधिक प्रचलित और बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है. इसके बोलियों और उपबोलियों की संख्या भी पर्याप्त है. कुछ बोलियों जैसे व्रज, अवधी , मैथिल, आदि का तो साहित्य बहुत ही समृद्ध और लोकप्रिय भी है. हिंदी भाषा के अतिरिक्त भारत की अन्य भाषाएँ , बांग्ला, तमिल , मराठी या गुजराती सहित अन्य भाषाओं का इतिहास हिंदी की तुलना मे अधिक प्राचीन और, साहित्य अत्यंत समृद्ध है. लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी को ही भारत की मुख्य भाषा माना गया. हिंदी को सरकारी भाषा का दर्ज़ा तो मिला, लेकिन यह दर्ज़ा औपचारिक था. यह विडम्बना ही है कि आज भी हम हिंदी दिवस मनाते हैं और वह भी केवल औपचारिकता से. डॉ लोहिया हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के उन्नयन के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन भी चलाया था. पर यह आंदोलन दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन के रूप में 1965 में परिवर्तित हो गया. भाषा नीति पर बोलते हुए एक बार का उन्होंने कहा था, कि भारत में सरकारी और जन भाषाएँ सदैव अलग अलग रही है. प्राचीन काल में जब संस्कृत राज भाषा थी तो, जन भाषा पालि, प्राकृत या अवहट्ट भाषा थी, मध्यकाल में जब फारसी राज भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुयी तो, उस समय उर्दू या हिन्दुस्तानी या व्रज आदि जन भाषा के रूप में प्रचलित हुयी. ब्रिटिश काल में जब अंग्रेज़ी राज भाषा बनी तो, फारसी पदावनत हो गयी और उर्दू जो रेख्ता या दक्किनी कही जाती थी, हिन्दुस्तानी के रूप में जन भाषा के रूप में लोक प्रिय हुयी. उर्दू ब्रिटिश काल में अदालतों और निचले प्रशासन की भाषा आज़ादी के बहुत बाद तक बनी रही.अभी भी उसके बहुत से शब्द अदालतों और, पुलिस या राजस्व महकमे में प्रचलित हैं. आज़ादी के बाद, संविधान ने हिंदी को सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वाधिक प्रसारित भारतीय भाषा मानते हुए राष्ट्र भाषा का दर्ज़ा तो दिया पर यह अभी भी पूरी तरह से सरकारी माध्यम की भाषा नहीं बन पायी.

सभ्यता, और संस्कृति की तरह, भाषाएँ भी एक दूसरे की समाज से बहुत कुछ लेती देती रहती है. आने वाली सभ्यता अपने साथ अपनी भाषा और संस्कृति भी ले आती है. जो संस्कृति अधिक समावेशी होती है, वह आगत संस्कृति को समेटते हुए भी प्रवाहमान रहती है. भारतीय संस्कृति इस में अनुपम है. इसी प्रकार भाषाओं का भी अन्तरमिलन होता है. इसी लिए जब मुस्लिम आक्रमण हुआ और मध्यकाल में मुस्लिम शासन व्यवस्था आयी तो फारसी यहां की मुख्य भाषा बनी. पर व्यापक भारतीय समाज में भाषा अपने अस्तित्व को बचाये रखते हुए जीवित रही. अंग्रेज़ी के साथ भी यही हुआ. चूंकि अंग्रेजों का साम्राज्य पूरी दुनिया में सबसे बड़ा साम्राज्य था, इस लिए अंग्रेज़ी सबसे अधिक देशों में और ब्रिटिश उपनिवेश की सबसे महत्वपूर्ण भाषा बनी रही. भाषाओं का उसके रोज़गार देने की क्षमता का बहुत ही अधिक प्रभाव पड़ता है. ब्रिटिशकाल में सारी अच्छी नौकरियाँ और शिक्षा की पद्धति अंग्रेज़ी होने के कारण अंग्रेज़ी जानने वालों को ही सुलभ थी ,  अतः अंग्रेज़ी  सबसे अधिक लोकप्रिय भाषा बनी रही .  हिंदी से रोज़गार सुलभ भी नहीं था, और जो रोज़गार था , वह भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं था, इस लिए लोगों ने अंग्रेज़ी सीखना शुरू किया. जिन भाषाओं में रोज़गार के नए नए अवसर खुलते गए वे अपना दायरा बढ़ाती गयीं.

फिल्मों का हिंदी भाषा के प्रचार और प्रसार में सबसे अधिक योगदान है, ऐसा माना जाता है. फ़िल्म निर्माताओं की मज़बूरी है कि वे अपनी फिल्मों के देशव्यापी प्रसार के लिए देशव्यापी भाषाई माध्यम चुने. यहां भी आर्थिक फैक्टर ही जिम्मेदार है. हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे कभी राजकीय संरक्षण नहीं मिला है. एक तो इस रूप में इसका जन्म ही ब्रिटिश काल में हुआ तो ब्रिटिश काल में सरक्षण मिलने की तो कोई बात ही नहीं थी. उर्दू ,अलबत्ता सरकार के निचले तबके की भाषा थी. अदालती काम काज की भाषा होने के कारण , उसे सभी पढ़ना और जानना चाहते थे. पहले उर्दू और अंग्रेज़ी मिडिल दो दर्ज़े होते थे. हिंदी सामान्य रूप से बोली तो जाती थी पर सरकार का कोई  भी योदगान इसके प्रसार में नहीं था. लेकिन उत्तर भारत में नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी और इलाहाबाद का हिंदी साहित्य सम्मलेन और दक्षिण भारत में सी राजगोपालाचारी का दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति जैसे गैर सरकारी संगठन इसके प्रचार प्रसार में लगे रहे. आज़ादी के बाद उत्तर और मध्य भारत के नवगठित प्रदेशों ने हिंदी को काम काज की भाषा के रूप में स्वीकार किया तो , इसका प्रसार स्वाभाविक रूप से हुआ.

जन पलायन भी भाषा और संस्कृति के प्रचार का एक प्रभावी माध्यम होता है. ब्रिटिश काल में ब्रिटेन के उपनिवेशों , जो लगभग पूरी दुनिया में फैले हुए थे, में हिंदी भाषी लोग रोज़गार की लालच में गए और वे अपनी भाषा, बोली , रीति रिवाज़, और धर्म संस्कृति भी ले गए. आज भी मॉरीशस, गुयाना , फिजी, सूरीनाम जैसे दूरस्थ देशों में जो कभी यूरोपीय उपनिवेश हुआ करते थे, वहाँ हिंदी भाषा और इसकी पुरबहिया बोली भोजपुरी बहुत लोकप्रिय है. विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन इन देशों में भी हुआ है. हिंदी में मॉरीशस के लेखकों ने प्रवासी हिन्दुस्तानियों की व्यथा कथा पर बहुत ही अच्छी किताबें लिखी है. अभिमन्यु अनत का उपन्यास, ' लाल पसीना ' का उल्लेख मैं करना चाहूँगा.  आज भारत के किसी भी भाग में सुदूर पूर्वोत्तर से लेकर पश्चिमी सागर तट तक और कश्मीर से ले कर कन्या कुमारी तक हिंदी प्रचलित है पर इसका रूप देश और काल के अनुसार भिन्न भिन्न है. जैसे जैसे रोज़गार और व्यापार के अवसर इस भाषा में बढ़ेंगे वैसे वैसे गैर हिंदी भाषी इस भाषा को सीखेंगे और इसका प्रसार बढ़ेगा. कल्पना कीजिए 18 वीं सदी में भारत में हुए ब्रिटिश फ्रेंच संघर्ष में अगर फ्रांस जीत गया होता और भारत फ्रेंच उपनिवेश होता तो , यहां की भाषा अंग्रेज़ी के बजाय फ्रेंच होती. राज व्यवस्था कैसी होती, इस पर मैं नहीं जा रहा हूँ. आज भी कुछ समय पहले तक, पुद्दुचेरी और कोलकाता के पास चन्दन नगर जो फ्रेंच उपनिवेशिका थे की मुख्य भाषा फ्रेंच ही थी. कोई भाषा महत्वपूर्ण नहीं होती उसे फैलाने और बोलने वाले महत्वपूर्ण होते हैं.

कभी कभी सूट बूट भरे माहौल में जब नकली मुस्कान चेहरों पर सजाये, आप किसी आयोजन में नहीं किसी पार्टी में उपस्थित होते हैं तो, कोई गाँव या आस पास का मिल जाता है और आप के मुंह से बेसाख्ता जब निकल जाता है, ' अरे , कहाँ आज कल हउआ, एहर आवा ',  तो आप जो अब तक चुपचाप किसी कोने में दबे सहमे से बैठे हुए थे , अचानक लोगों की नज़रों में जाते हैं. कुछ की नज़रें उपहासात्मक तो कुछ की प्रशंसात्मक होती है. जब आप हवाई जहाज में हों या पांच सितारा होटल के रिशेप्शन पर तो टूटी फूटी ही सही पर अंग्रेज़ी ही आप का मान बनाये रखती है. यह एक प्रकार की हीन भावना है. यह हीन भावना सदियों से उपेक्षित भाषा में बोलने के कारण जाती है. बांग्ला, तमिल , पंजाबी या मराठी भाषियों में यह हीन भावना उतनी नहीं है , जितनी हम हिंदी भाषियों में है. इस हीन भावना से निकलिए और हिंदी धड़ल्ले से बोलिये. जब तक स्वभाषा की उन्नति नहीं होगी , देश की उन्नति नहीं होगी. यह मैं नहीं  कह रहा हूँ, आज से पौने दो सौ साल पहले काशी में जन्मे, भारतेंदु जिन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह माना जाता है, वह कह गए हैं, 
निज भाषा उन्नति अहै , 
सब उन्नति को मूल !
आज चाहे जो भी हो उसे अगर अखिल भारतीय स्वीकृति पानी है तो वह हिंदी में ही बोलेगा भले ही अपनी लिपि में वह पढ़ कर बोले.

आप सब को हिंदी दिवस की अनंत शुभकामनाएं. 
(
विजय शंकर सिंह )

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