Saturday 1 August 2015

विनम्र स्मरण डॉ राही मासूम रजा - 1 सितंबर , उनके जन्म दिवस पर / विजय शंकर सिंह .




डॉ राही मासूम रजा का नाम आप भूले नहीं होंगे। आज 1 सितंबर को उनका  जन्म दिवस है . उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में एक जिला है ग़ाज़ीपुर। सोया हुआ खामोश पर सरसब्ज़ और प्रतिभासंपन्न।  गंगा इस इस ज़िले को सींचती  हुयी गुज़रती हैं. इसी ज़िले के एक गाँव गंगोली में राही साहब का जन्म हुआ था . उन्होंने मूलतः  फिल्मों की पटकथाएं और संवाद लिखे हैं , पर उनकी प्रसिद्धि फ़िल्मी लेखन से अलग भी है . उनका एक उपन्यास है आधा गाँव , जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ था तो , हिंदी साहित्य में बहुत ही चर्चित हुआ .उपन्यास की आलोचना भी कम नहीं हुयी .उपन्यास में कहीं कहीं गालियों का भी उल्लेख किया गया है .गालियों के कारण यह उपन्यास आलोचकों के निशाने पर रहा .पर इस उपन्यास में गाँव और गाँव के जन समाज , उनकी विसंगतियों और विडम्बनाओं का बहुत ही विषद ढंग से वर्णन किया गया है .यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”।

राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” मार्च 1969 में प्रकाशित हुआ। आधा गांव की तुलना में यह जीवन चरितात्मक उपन्यास बहुत ही छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक का बचपन का साथी था और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन पहली अगस्त सन्‌ सत्तईस को हुआ था।

उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित प्रधान उपन्यास में भी उसी गांव के निवासी की जीवन गाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन्‌ 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया।

सन्‌ 1970 में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास “ओस की बूंद” का आधार भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

सन्‌ 1973 में राही का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए।

सन्‌ 1977 में प्रकाशित उपन्यास “सीन 75” का विषय भी फिल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बम्बई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी जीवन भी है। विशेषकर इस उपन्यास में फिल्मी जगत से सम्बद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखमय अन्त का सजीव चित्रण किया गया है।

सन्‌ 1978 में प्रकाशित राही मासूम रजा के सातवें उपन्यास “कटरा बी आर्जू” का आधार फिर से राजनैतिक समस्या हो गया है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बतलाना चाहते हैं कि इमरजेंसी के समय सरकारी अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट पहुंचाया।

राही मासूम रजा की अन्य कृतियाँ है - मैं एक फेरी वाला, शीशे का मकां वाले, गरीबे शहर, क्रांति कथा (काव्य संग्रह), हिन्दी में सिनेमा और संस्कृति, लगता है बेकार गये हम, खुदा हाफिज कहने का मोड़ (निबन्ध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं। इन सबके अलावा राही ने फिल्मों के लिए लगभग तीन सौ पटकथा भी लिखा था। इन सबके अतिरिक्त राही ने दस-बारह कहानियां भी लिखी हैं। जब वो इलाहाबाद में थे तो अन्य नामों से रूमानी दुनिया के लिए पन्द्रह-बीस उपन्यास उर्दू में उन्होंने दूसरों के नाम से भी लिखा है।

राही साहब को ' मैं तुलसी तेरे आँगन की ' ,के  सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखन के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया .महा भारत सीरियल का संवाद इन्होने ही लिखा था .कृपया उनकी यह प्रसिद्ध कविता पढ़ें .....

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बंदा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस खून और आँसू, चीखें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाजे
खून में लिथड़े कमसिन कुरते
जगह जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाजों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और खून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।

( डाक्टर राही मासूम रज़ा )

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