Friday 7 August 2015

एक कविता.......पर तुम आना, मेरे दोस्त. / विजय शंकर सिंह



सुबह सूरज तो, सब के आँगन में उतरता है, 
हजार किरणों की, बारात लिए, 
उम्मीदों की, नातमाम सौगात लिए,
आस का गुबार लिए,
कितनी ख्वाहिशें, अरमान कितने , हर रोज़ जगा जाता है. मन में !

पर ऊषा की लालिमा के साथ, 
सुबह की अलसाई और तन्द्रित आँखे, 
भास्कर के इन उपहारों से बेपरवाह 
तुम्हे ढूंढती ही रहती हैं , 
चाय के प्याले और अखबारों की पंक्तियों में !

अचानक इन किरणों में, 
अलग से दीप्तिमान तुम, 
अद्भुत आभा बिखेरते हुए 
दिख जाते हो जब, 
लगता है, सच में प्रभात है जीवन में.

सूरज आये, आये, 
कभी घेर लें, घोर घटाएं उसे, 
पर तुम आना, मेरे दोस्त. 
मेरे लिए, तुम्हारा दर्शन ही सवेरा है, 
सूरज का क्या, 
वह तो रोज़ ही, आता और जाता है !! 

( विजय शंकर सिंह )


  

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