Tuesday 31 March 2015

एक कविता , इश्क़ , एक अंतहीन सफर ,/ विजय शंकर सिंह




मेरी कविताओं में ,
इश्क़ मुहब्बत की बातें देख
वह वह थोड़ा शरारत से मुस्कुराये ,
और फुसफुसा कर पूछा ,
' यह आह फ़ुग़ाँ , यह सितम बयानी ,
इज़हार इश्क़ यह !
आखिर सफर ये दरिया आतिश का ,
क्या बला है। '

कहा हमने ,
उसी अंदाज़ में ,
 जिस में रू रू हुए थे वह ,
" बला खूबसूरत है , या क्या है ,
नहीं पता मुझे। 
यूँ ही बैठे बिठाए , एक निर्झर ख्यालों का ,
तोड़ कर भीतर कुछ,  फूट पड़ता है ,
शब्द बिखरते हैं ,
चुनता हूँ उन्हें मैं ,  तस्वीर खिंच जाती है ,
लोग समझते हैं वह हजरत इश्क़ हैं ! '

सुन के बयान मेरा ,
धीरे से बोले वे  मुझ से ,
' फिर ये सारे शेर , कवितायें ,
किस से शुरू होती हैं ,
और उतरती कहाँ हैं। 
कितने ज़ालिम किस्से ,
इश्क़ के  बयाँ हैं इनमें। 
आखिर कोई तो शै होगी ,
जहां से  है इब्तिदा  इनकी।  ''

मैंने कहा ,
" इब्तिदा है इश्क़ की , है कहीं इंतहा ,
जाने कब एक सोता फूट पड़ता है ,
पत्थरों को तोड़ कर ,
एक आहट हल्की सी ,
और चल पड़ता है , ढलान  की ओर ,
एक अंतहीन यात्रा पर।

आँख के कोर से घोर उमस के बाद ,
मन में घुमड़े बादल ,
पा कर राह , छलक उठते हैं। '
सब को तृप्त करती सरिता ,
हर अवरोध के बीच , मार्ग ढूंढती ,
अग्रसर है सागर की ओर। '

इश्क़ मुहब्बत में , कोई बला हो ,
यह ज़रूरी  तो नहीं,
एक पत्थर दिल पर ही रख दे कोई,
और सोख ले सारा रस, जीवन का ,
हो जाय बंजर सब ,
पसर जाय  मरू चहुँ ओर ,
फिर कहाँ से घुमड़ेंगे , प्रेम पगे अभ्र,  मित्र  !

यह सफर तो दोस्त ,
आगाज़ दुनिया से शुरू हो कर ,
दुनिया के फना होने तक चलेगा।
भला प्रेम के बिना भी कभी ,
दुनिया रह सकती है !!

( विजय शंकर सिंह )

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