Friday 20 February 2015

एक कविता। मैं अखबार हूँ / विजय शंकर सिंह




 मैं अखबार हूँ
रोज़ सुबह आता हूँ , दरवाजे पर तुम्हारे ,
लपेट कर फ़ेंक देता है मुझे ,हाकर,
आँखें मलते  मलते उठाते हो मुझे ,
झाड़ते हो धूल  मेरी
लपेट लाया हूँ जिसे मैंने , ज़माने की गर्द ओ गुबार से

पलटते हो मुझे पन्ने दर पन्ने .
समेटे हूँ मैं खुद में एक मुकम्मल दुनिया ,
ह्त्या , आगज़नी , लूट , डकैती  और बलात्कार की ,
मंहगाई , दुर्घटनाएं , सियासी सरकस की ,
सरकारों के गिरने और बचने की ,
सस्ते लोन कारों के नए माडल
खोयी हुयी , जवानी के  वापस लाने के नुस्खे ,
बाजीगरी आकड़ों की ,
किस्से कुछ क्रिकेट और फिल्मों की .
सिमट गयी है दुनिया कुछ पन्नों में .

परोस देता हूँ तुम्हे , सब कुछ ,
पढ़ते हो सारी ख़बरें ?
या , देखते हो सिर्फ ज्वार भाता दलाल स्ट्रीट का ,
या, खो जाते हो सेलेब्रिटी स्कैंडल में ,
या ढूंढते हो, आभासी दुनिया , तितलियों की ,
फिर लपेट कर रख देते हो मझे किसी कोने ,
नाश्ते की खाली प्लेट की तरह

सच कहना ,
आंदोलित हुए हो कभी ,
दमन की ख़बरों से ,
कसमसाए हो कभी ,
खाप पंचायत के फैसलों से ,
रात में चौंक कर उठे हो कभी ,
निर्दोष की ह्त्या की ख़बरों से ,
आसूं बहें हैं कभी ,
शहीद होते जवानों की शहादत पर ,
जो तुम्हारे 'कल' के लिए अपना 'आज ' गंवाता है ,
रात के सन्नाटे में , कॉकटेल पार्टियों से
खुमार - पीड़ित  लौटते हुए ,
कभी सोचा है ,
देखे थे जो सपने आज़ाद भारत के,
हमारे पुरखों ने ,
वो कहाँ और कैसे गुम  हो गए .

तुम उन ख़बरों को देखते  ही कहाँ हो ,
खो देते हो खुद को ,
गुदगुदाने वाली ख़बरों में ,
कथित सभ्य समाज की उठा पटक में ,
और कभी उबलते भी हो तो ,
फुस्स हो जाते हो , सड़क के किनारे लगे सूखे नल की तरह ,
जिस से पानी नहीं सिर्फ आवाज़ निकलती है .

नहीं दिखता तुम्हे ,
भीड़ में उतरा  रहे , भूखे चेहरे
पटरियों पर बने पोलिथीन के घरोंदे ,
जिन को हर अधिकार प्राप्त है
तुम्हारी ही तरह, उस मोटी किताब में ,
जिसे तुम तब खोलते हो , जब तुम्हारी साँसें घुटती हैं
और घिर जाते हो .

कहाँ गयी संवेदना तुम्हारी ?
क्यूँ हो गए हो संज्ञा शून्य ?
क्यूँ बनते जा रहे हो द्वीप समृद्धि के ,
क्यूँ कटते जा रहे हो, असली दुनिया से ,
डूबा देगा तुम्हे ये सैलाब , एक दिन ,
जो फैल रहा है , इर्द गिर्द तुम्हारे ,
न चेते अब तो ,
एक अलग किस्म की ग्लोबल वार्मिंग है यह

आगाह करता हूँ तुम्हे , रोज़ सुबह
बाहें फैला कर सब दिखाता हूँ तुम्हे ,
इतिहास और दुनिया बदली है , मैंने
नज़रें मत चुराओ ,
देखो ,
धीरे धीरे ही सही ,
एक नयी दुनिया बन रही है ,
मुझे गौर से पढो ,
मैं अखबार हूँ .
-vss                                                           

                                      
Roj subah darwaaje par tumhaare,
Aataa hoon,
Main akhbaar hoon,
Lapet kar fenk detaa hai mujhe,
Tumhaaraa hawker,
Aankhen malate tum,Utthaate ho mujhe,
Jhaardate ho dhool meree,
Jise lapet laayaa hoon main, zamaane kee,
Tab palatate ho mujhe, Panne dar panne,

samete hoon main khud mein ek mukammal duniyaa,
Hatyaa, aagzanee, loot, dacoity aur balaatkaar kee,
Mahangaayee, durghatanaayen, siyaasee sarkas kee,
Sarkaaron ke girne aur bachne kee,
Saste loan, caaron ke naye model,
Khoyee huyee jawaanee ke waapas laane ke nuskhe ,
baazeegaree aankdon 

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